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Alghoza: राजस्थान का राज्य वाद्ययंत्र है अल्गोजा, DJ कल्चर में धीरे-धीरे खत्म हो रहा चलन

Bundi News: अलगोजा राजस्थान का राज्य वाद्ययंत्र है, जिसे धार्मिक कार्यक्रमों में बजाया जाता है, लेकिन आधुनिक वाद्य यंत्रों के आने से इसका चलन खत्म होता जा रहा है, जिसको लेकर कलाकार चिंतित हैं.

Rajasthan News: क्या आपने अलगोजा (Algoza) के बारे में सुना है. दरअसल अलगोजा(Algoza) राजस्थान (Rajasthan) का राज्य वाद्ययंत्र है. यह बांसुरी की तरह होता है, जिसे बांस, पीतल या अन्य किसी भी धातु से बनाया जा सकता है. अलगोजा में स्वरों के लिए 6 छेद होते हैं. जिनकी दूरी स्वरों की शुद्धता के लिए निश्चित होती है. वादक दो अलगोजे मुंह में रखकर उन्हें एक साथ बजाता है. एक अलगोजे पर स्वर कायम रखे जाते हैं और दूसरे पर स्वर बताए जाते हैं. आज हम आपको राजस्थान के सर्वश्रेष्ठ सरगोजा वादक कलाकार से मिलवाने जा रहे हैं और इनका नाम है रामकल्याण मीणा (Ramkalyan Meena). बूंदी (Bundi) जिले के खजुरा गांव (Khajura Village) के रहने वाले 70 वर्षीय मीणा ने  गांव, शहरों व अन्य प्रांतों में होने वाले लोक कार्यक्रमों में न केवल अपनी कला से सबको मंत्रमुग्ध किया है बल्कि उन्हें उनकी कला के लिए कई बड़े मंचों पर सम्मानित भी किया गया है.

एक जोड़ी अलगोजा बनाने में आता है इतना खर्चा
अभावों से जूझते लोक कलाकार रामकल्याण मीणा का कला से इतना लगाव हो गया है कि वह इसे अपने साथ जीवंत रखना चाहते हैं. अलगोजा और मशक वादन करने के साथ-साथ मीणा पिछले एक दशक से घर पर ही अलगोजा बना रहे हैं और इन्हें वाद्य यंत्रों की दुकानों और लोक कलाकारों को उपलब्ध करा रहे हैं. मीणा बताते हैं कि एक जोड़ी अलगोजा बनाने में करीब 250 से 300 रुपए तक का खर्चा आता है. मौजूदा सीजन में इनकी खपत अधिक रहने से एक जोड़ी अलगोजा 500 से 600 रुपए में बिक जाता है. अलगोजा जितनी बढ़िया क्वालिटी का होगा, इसके सुर इतने की अच्छे होंगे.

ये 20 कला हैं राजस्थान में प्रसिद्ध 
राजस्थान में अलगोजा के अलावा 20 ऐसी कलाएं जो राजस्थान भर में प्रसिद्ध हैं. इनमें  लोक वाद्य, अलगोजा, इकतारा, कामायचा, खड़ताल, चंग, जंतर, झांझ, ढोल, तंदूरा, ताशा, नगाड़ा, पुंगी, भपंग, मंजीरा, मशक, मादल, रावण हत्था, शहनाई, सारंगी सहित लोक संगीत प्रसिद्ध हैं, जबकि अलगोजा को धार्मिक आयोजनों में बताया जाता है. वैसे दो अलगोजा मुंह से बचाया जाता है लेकिन कुछ माहिर कलालार इसे नाक से भी बजा लेते हैं. अलगोजा जैसलमेर, जोधपुर, बाड़मेर, बीकानेर, जयपुर, सवाई माधोपुर एवं टोंक आदि क्षेत्रों में मुख्य रूप से बजाया जाता है. अलगोजा को वीर तेजाजी की जीवन गाथा, डिग्गीपुरी का राजा, ढोला मारू नृत्य और चक्का भवाई नृत्य में भी बजाया जाता है. इसका प्रयोग भील और कालबेलियां जातियां अधिक करती हैं.

मीणा को ऐसे पड़ा अलगोजा बजाने का शौक
 राष्ट्रीय कलाकार एसोशिएशन के सदस्य रामकल्याण मीणा ने बताया कि 14 साल की उम्र में वह मवेशियों को चराने जाते थे. उसी दौरान जंगल मे  गांव के बिरधी लाल बैरवा ने उन्हें अलगोजा, मशक बजाना सिखाया. इसके बाद वे  तेजाजी गायन, जागरण, भजन मंडलियों में अलगोजा और मशक बजाने लगे. धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धि बढ़ी और उन्हें लोक कला सांस्कृतिक कार्यक्रमों में जिले, राज्य के बड़े शहरों व अन्य प्रांतों में अलगोजा बजाने का मौका मिला. साल 2015 में उन्हें  भारत लोकरंग महोत्सव इलाहाबाद, शेखावाटी महोत्सव मोमोसर और साल 2019 में गुरदासपुर  (पंजाब) के कच्ची घोड़ी नृत्य में उन्हें सम्मानित किया गया.

एक दशक से घर पर अलगोजे तैयार करते हैं मीणा
मीणा बताते हैं कि खराब हो जाने पर जब लोग उनके पास अलगोजा लेकर आते तो वो उसे ठीक कर देते थे, धीरे-धीरे सभी  औजार और संसाधन जुटाकर उन्होंने खुद ही अलगोजा बनाना शुरू कर दिया. मीणा बताते हैं कि वह साल भर में 150-200 अलगोजों के जोड़े तैयार कर लेते हैं, जिससे उनका खर्चा चल जाता है. वो कहते हैं कि अच्छी क्वालिटी के चलते खरीददार उनके घर पर ही आ जाता हैं. उन्हें सोशल मीडिया के माध्यम से भी इसके ऑर्डर मिल जाते हैं. 2 साल पहले रामकल्याण मीणा की पत्नी उनका साथ छोड़कर इस दुनिया से चली गईं. उनके दो लड़के हैं जिसमें से एक मूर्तिलाल नौकरी करता है जबकि दूसरा बेटा मियाराम खेती करता है.

ऐसे तैयार किया जाता है अलगोजा
अलगोजे बनाने के लिए केकड़ी, जयपुर, कोटा, श्योपुर (टाल) से आसाम का बांस, जंगल से करीरी पेड़ की लकड़ी लाई जाती है.  बास को सुखाकर, रेती, कटर, ग्राइंडर, औजारों से साफ सफाई व लोहे के काटे को गर्म कर स्वर के लिये छेद किये जाते है.   अलगोजे में बासुरीनुमा लंबी छोटी नलियां होती हैं. दोनों नली के मुंह मत्स्याकार होते हैं, खूबसूरती के लिये केरोसिन, सरसों तेल, मेहंदी का लेप किया जाता है.

कला को सरंक्षण देने की जरूरत
बदलते वक्त के साथ लोक वाद्य यंत्रों का चलन भी धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा है. डीजे साउंड आने के बाद शहनाई,अलगोजे, मशक अब समारोह में अप्रसांगिक बन चुके है.  केवल सीमित समय तेजाजी मेलो, लोक सांस्कृतिक कार्यक्रमों में यदा-कदा ही अब ये वाद्य यंत्र बजाए जाते हैं. नई तकनीक के आने से लोक संस्कृति लुप्त होती जा रही है. रामकल्याण मीणा ने इसको लेकर अपना दर्द जाहिर किया और कहा कि  गांवों में लोक कलाकार  गुमनाम होते जा रहे हैं, इनको किसी तरह की आर्थिक मदद , अनुदान व किसी योजना का लाभ नहीं मिल रहा है.

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