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Reporter's Diary: क्या पायलट खेमे से निपटने में ही बीत गये गहलोत सरकार के तीन साल, जानें राजस्थान सरकार की सियासी उठापटक

गहलोत की सरकार के तीन साल 17 दिसंबर को पूरे हो रहे हैं. क्या गहलाेत सरकार का तीसरा कार्यकाल में कुर्सी बचाने के लिए दिल्ली दाैड़ते बीत गया या कोराेना ने बढ़ाईं मुश्किलें. यहां जानें पूरा सियासी हाल.

गहलोत सरकार के तीसरे कार्यकाल के तीन साल 17 दिसंबर को पूरे हो रहे हैं. मैंने उनके तीनों कार्यकाल गौर से देखे हैं. पहली बार वह 1998 में मुख्यमंत्री बने थे. तब अकाल में उन्होंने शानदार काम किया था लेकिन 2003 में चुनाव हार गये थे. विधायक भी इतने चुन कर आए जो 50 सीटर बस में समा जाएं. दूसरी बार गहलोत 2008 में मुख्यमंत्री बने, लेकिन ठीकठाक काम के बावजूद 2013 में चुनाव हार गये थे. तब कहा गया था कि केन्द्र की मनमोहन सिंह सरकार के  खिलाफ अन्ना आंदोलन से उपजे असंतोष का खामियाजा गहलोत को उठाना पड़ा था.

 खैर तब इतने विधायक चुन कर आए थे जो एक मिनीबस में समा जाए. तीसरी बार 2018 में गहलोत मुख्यमंत्री बने. अब तीन साल पूरे हो रहे हैं. इसमें से आधा समय कोरोना का मुकाबला करने में बीत गया और बाकी का आधा समय सचिन पायलट से निपटने में. अब बीजेपी तंज कस रही है कि कांग्रेस के अगले चुनाव में इतने विधायक आएंगे जो एक इनोवा में समा जाएं. ऐसा होता है या नहीं देखना पड़ेगा लेकिन अशोक गहलोत कई बार पुरानी दो पराजयों का जिक्र करते हुए कहते हैं कि जनता में पिछली दो बार के विपरीत कम नाराजगी दिख रही है और सरकार रिपीट करने का रिकार्ड बनाएंगे. राजस्थान की जनता हर पांच साल बाद सत्ता की रोटी पलटने में यकीन रखती है ताकि रोटी कड़क बने. यह काम वह 1993 से कर रही है. सचिन पायलट भी सुर में सुर मिला रहे हैं कि कांग्रेस एक होकर लड़ेगी तो फिर सत्ता में आएगी और आगे जो बात वह नहीं कहते हैं वह यह है कि सचिन मुख्यमंत्री बनेंगे.

सारा लफड़ा मुख्यमंत्री की कुर्सी को लेकर है. यहां तक कि कोरोना से जब जनता जूझ रही थी तब भी गहलोत और सचिन सत्ता सत्ता खेल रहे थे. कोई अपने विधायकों के साथ मानेसर जा बैठा था तो कोई दिल्ली हाई वे से लेकर जैसलमेर तक विधायकों को पोलिटिक्ल ट्यूरिज्म पर ले जाने को मजबूर हुआ था. आलाकमान दोनों हाथों में सत्ता के बताशे रखने  की कोशिश करता रहा और दोनों की सत्ता का मीठा खाने की चाहत बढ़ती चली गयी. इस बीच, बेरोजगार धरने पर बैठे, परीक्षाओं में धांधलियां हुईं, कई परीक्षाओं  के परिणाम हाई कोर्ट में जा अटके,  केन्द्र में मोदी सरकार पर सहयोग नहीं करने के आरोप लगाए गये (आज भी लगाए जा रहे हैं ).

कोरोना में वेंटिलेटर केन्द्र ने दिए जिन्हें गहलोत ने निजी अस्पतालों को दे दिया. ऐसे आरोप बीजेपी अब तब जब लगाती रही. मौत के आंकड़ें छुपाने के आरोप लगे तो मौत की ऑडिट का फैसला गहलोत सरकार ने किया. उसकी रिपोर्ट का क्या हुआ पता नहीं.
मुख्यमंत्री के पास गृह मंत्रालय भी है, लिहाजा जब- जब दलित अत्याचार की बात सामने आई तब-तब विपक्ष के साथ- साथ गाहे बगाहे सचिन पायलट ने भी सरकार को आड़े हाथ लिया. पिछले साल के नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो ने तो राजस्थान में महिलाओं पर बढ़ रहे अत्याचारों का पूरा सच ही सामने रख दिया. गहलोत महिलाओं, दलितों, मुस्लिमों, आदिवासियों के कल्याण के लिए जाने जाते रहे हैं लेकिन तीसरी बार का कार्यकाल इस हिसाब से कमजोर रहा.

अलबत्ता नगर निगम, परिषद और पंचायत चुनावों से लेकर विधानसभा के उपचुनावों में गहलोत भारी पड़े हैं. शायद यही बात उन्हें आलाकमान की नजर में कुशल नेता और प्रशासक साबित करती रही है. हाल में वल्लभनगर विधानसभा सीट के उपचुनाव में  बीजेपी का चौथे स्थान पर आना गहलोत खेमे की भारी जीत माना जा रहा है. एक अन्य आदिवासी सीट पर बीजेपी तीसरे नंबर पर रही. बीजेपी में पूर्व मुख्यमंत्री वसुधंरा राजे और प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया के बीच छत्तीस का आंकड़ा रहा है. वसुधंरा राजे अपने समर्थकों के दम पर आलाकमान को भी राजनीतिक रूप से धमकाती रही हैं. उन्हें भावी मुख्यमंत्री घोषित करने की मांग अभी से उठने लगी है.

वसुधंरा धार्मिक यात्राओं के बहाने  सियासी घेरेबंदी करने में कोई सानी नहीं रखती. यह सब इतने विस्तार से बताना इसलिए जरूरी है कि गहलोत को लगता है कि विरोधी खेमे की फूट का फायदा उन्हें मिलता रहा है और आगे भी मिलेगा. वसुधंरा पर गहलोत सरकार को बचाने के आरोप भी लगते रहे हैं. यहां तक कहा जाता है कि सचिन पायलट की बगावत इसलिए सफल नहीं हो सकी क्योंकि वसुधंरा राजे सहमत नहीं थी.

खैर, उधार की सियासी जिदंगी के सहारे सत्ता में रहना अशोक गहलोत के चरित्र से मेल नहीं खाता लेकिन इस बार ऐसा ही हुआ. करीब एक दर्जन निदर्लीय विधायकों का साथ और बीएसपी के छह विधायकों का साथ गहलोत को नहीं मिलता तो सरकार चलाना मुश्किल हो जाता.

वैसे पिछले दो कार्यकाल के बजाए इस बार के कार्यकाल से लोग कुछ ज्यादा ही निराश दिखते हैं. आमतौर पर लोगों का कहना है कि गहलोत के राज में वह भ्रष्टाचार रोक नहीं पाए हैं. मजेदार किस्सा है कि शिक्षकों के एक सम्मेलन में गहलोत ने शिक्षकों से पूछा कि क्या ट्रांसफर पोस्टिंग में पैसा खिलाना पड़ता है तो शिक्षकों ने समवेत स्वर में कहा कि जी हुजूर. गहलोत ने फिर पूछा तो फिर यही जवाब मिला. 

इस पर गहलोत ने कहा कि कमाल है. राजस्थान की जनता भी तीन साल के शासन काल पर कह रही है कि कमाल है. 36 महीनों में से पहले 18 महीने सचिन पायलट से लड़ने में गुजर गये और बाद के 18 महीने समझौते की सूरत निकालने में. अब भी मंत्रिमंडल विस्तार तो सिर्फ सीज फायर है, जंग जारी है . यह जंग दोनों को लेकर डूबती है या कोई चालाक तैराक साबित होता है देखना दिलचस्प होगा.  

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