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Ram Mandir: 'अपने हाथों से बनाया था रामलला का अस्थाई मंदिर,' कारसेवकों से जानें अयोध्या से लौटने के बाद क्या-क्या हुआ

Ram Mandir Pran Pratishtha: कारसेवक किशन प्रजापति बताते हैं कि हम सभी मित्र स्कूल से ही अयोध्या चले गए. मन में जोश था. भगवान राम के प्रति आस्था थी और माहौल पूरा भगवामय और राममय था.

Ram Mandir Opening: देश भर में इस समय राम मंदिर (Ram Mandir) के उद्घाटन और रामलला की प्राण प्रतिष्ठा (Ramlala Pran Pratishtha) कार्यक्रम को लेकर उत्साह का महौल है. कोटा (Kota) में भी ऐसे कारसेवक हैं, जिन्होंने अपने जीवन के महत्वपूर्ण पलों को अयोध्या में जिया है. ये वो कारसेवक हैं जो राम जन्मभूमि आदोंलन के समय अयोध्या में उपस्थित थे. ऐसे ही तीन कारसेवक हैं किशन प्रजापति, उनके मित्र दिनेश और अर्जुन. ये तीनों जब अयोध्या (Ayodhya) गए उस समय किशन प्रजापति 18, दिनेश 14 और अर्जुन 20 साल के थे. 

कारसेवक किशन प्रजापति बताते हैं कि हम सभी मित्र स्कूल से ही अयोध्या चले गए. मन में जोश था. भगवान राम के प्रति आस्था थी और माहौल पूरा भगवामय और राममय था. घर में माता-पिता को बिना बताए हम तीनों ही अवध एक्सप्रेस ट्रेन में बैठ गए और रवाना हो गए. ट्रेन में बड़े लोगों के पूछने पर हमने कहा कि हम कहीं और जा रहे हैं, लेकिन उन्हें पता चल गया कि हम भी अयोध्या जा रहे हैं. हमारे मन में डर था कि कहीं कोई हमें ट्रेन से उतार न दे, इसलिए हम पूरी ट्रेन में घूमते रहे.

कारसेवक ने सुनाई राम जन्मभूमि आदोंलन की कहानी
कारसेवक किशन प्रजापति ने आगे बताया कि जैसे ही आगरा स्टेशन आया, वहां पर अनाउंसमेंट की गई कि किशन और दिनेश के माता-पिता की तबीयत खराब है. तुरंत ही आगरा स्टेशन पर उतर कर वो वापस कोटा आ जाएं, लेकिन हम नहीं माने. हमारे मन में था कि सब गलत बोल रहे हैं. मन में अयोध्या जाने की ललक थी. न जान की परवाह थी. न ही घरवालों की चिंता. इसके बाद ट्रेन आगरा से भी रवाना हो गई. उसके बाद कानपुर आया. वहां भी यही अनाउंसमेंट हुई, लेकिन हम वहां भी नहीं रुके और अयोध्या पहुंच गए.

कारसेवक ने बताया कि पांच दिसंबर 1992 का दिन था. रात को कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी. हम एक कोने में घास में जमीन पर ही सो गए. रात को जैसे ही 12 बजे, आवाजें आने लगी कि कारसेवा करनी है चलो. फिर क्या था बलशाली शरीर था हम तीनों दोस्त उठ गए और कार सेवा के लिए निकल पड़े. जैसे तैसे रात बीती, सुबह हुई तो हम विवादित ढांचे पर चढ़ गए. मन में आक्रोश था. भगवान का मंदिर बनाना था. ऐसे में पत्थर, सब्बल, गैती, फावड़ा जो भी हाथ आया उससे ढांचे को तोड़ना शुरू कर दिया. देखते ही देखते एक के बाद एक गुंबद टूटते चले गए.

अपने हाथों से बनाया रामलाला का मंदिर
कारसेवक किशन प्रजापति ने आगे बताया कि हमारा एक साथी अर्जुन गुंबद गिरने से उसमें दब गया. इसके बाद हाहाकार मच गया. फिर जैसे तैसे उसे निकाला और उठाकर इलाज के लिए ले गए. वो आज भी दोनों पैरों से ठीक से खड़ा नहीं हो सकता. अभी वह मथुरा में रहता है. दोनों पैर खराब होने से उसकी अभी तक भी शादी नहीं हो सकी. उसके बाद शाम को अस्थाई छोटा सा मंदिर बनाया गया. कहा जा रहा था कि इसमें रामलाला को विराजमान किया जाएगा. वह मंदिर हमने अपने हाथों से बनाया, इसका हमें आज भी गर्व है.

कारसेवा की यादें आज भी ताजा
किशन प्रजापति ने बताया कि बड़ी बात यह है कि जब हम कार सेवा के लिए गए तो हमसे छोटा कोई कारसेवक हमें नहीं दिखा. सब बड़े लोग थे, लेकिन हमारे मन में उनसे भी ज्यादा जोश था. भगवान राम अपने घर में विराजे, इसलिए हमने अपना घर छोड़ दिया था, लेकिन चार दिन बाद कोटा पहुंचे तो ऐसा स्वागत हुआ, जैसे कोई युद्ध जीतकर आए हों. लोगों ने पैर भी छुए. वो कहानी जीवन में कभी भूली नहीं जा सकती. आज भी उसकी यादें उतनी ही तरो ताजा हैं, जितनी उस समय थी.

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