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BJP क्यों कर रही है पसमांदा मुसलमानों के हक की बात, क्या तैयार हो गया है लोकसभा चुनाव 2024 का 'ट्रंप कार्ड'

पसमांदा मुसलमानों को लेकर बीजेपी ने लखनऊ में बड़ा सम्मेलन किया है. सवाल ये है कि क्या बीजेपी लोकसभा चुनाव से पहले पसमांदा मुसलमानों के आरक्षण की मांग पूरी कर देगी.

पसमांदा मुस्लिमों को लेकर बीजेपी ने अब अपने प्लान पर खुलकर काम शुरू कर दिया है.  इस साल अगस्त के महीने में हैदराबाद में हुई बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अल्पसंख्यकों के दलित समुदाय से जुड़ने की बात कही थी. प्रधानमंत्री ने इसमें पसमांदा मुस्लिमों का जिक्र किया था.

पीएम मोदी के इस बयान के बाद बीजेपी ने रणनीति बनाई और काम शुरू कर दिया. बीजेपी ने यूपी में पहले गुपचुप तरीके से पसमांदा मुस्लिमों के बीच छोटे-छोटे सम्मेलन किए और संघ से प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं को इसमें लगाया गया. 

बीजेपी नेताओं का मानना है कि रामपुर में हुए लोकसभा उपचुनाव में पसमांदाओं के बीच उनकी पैठ काम आई है और मुसलमानों के बंजारा समुदाय का एकमुश्त बीजेपी के खाते में गया है जिसकी वजह से आजम खान के गढ़ में बीजेपी की जीत हुई.

17 अक्टूबर यानी बीते सोमवार को बीजेपी ने उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में एक पसमांदा मुसलमानों के लिए बड़ा सम्मेलन किया. जिसमें योगी सरकार में मंत्री ब्रजेश पाठक ने हिस्सा लिया. कार्यक्रम में भाषण के दौरान ब्रजेश पाठक ने कहा कि बीजेपी ही मुस्लिमों की सच्ची शुभचिंतक है. उन्होंने कहा कि 'धर्मनिरपेक्षता' का दावा करने वाले लोगों ने मुस्लिमों को सिर्फ वोटबैंक समझा और उनको अधिकार कभी नहीं दिए.

बता दें कि ये सम्मेलन मुस्लिमों की पिछड़ी जातियों को लेकर आयोजित किया गया था. पसमांदा शब्द फारसी भाषा से लिया गया है जिसका हिंदी में अर्थ पिछड़ा होता है. इसी सम्मेलन में अल्पसंख्यक कल्याण दानिश अंसारी ने कहा कि मुसलमानों के बारे में अगर कोई पार्टी गंभीरता से सोचती है तो वो बीजेपी है.

अंसारी ने  कहा, 'जिस तरह से बीजेपी मुसलमानों की शिक्षा, सुरक्षा और उन्नति के बारे में सोचती है कोई भी दूसरी पार्टी ऐसा नहीं करती है'. उन्होंने कहा कि आज मुसलमान इसीलिए पिछड़े हुए हैं क्योंकि किसी भी पार्टी ने उनकी अच्छी शिक्षा की चिंता नहीं की है. 

इसी कार्यक्रम में बीजेपी के राज्यसभा सांसद गुलाम अली ने कहा कि मुसलमानों के लिए जरूरी है कि वो सभी सरकारी योजनाओं का फायदा उठाते हुए आगे बढ़ें. गुलाम अली ने कहा कि किसी भी पार्टी ने मुसलमानों के लिए कुछ नहीं किया लेकिन अपने राजनीतिक हितों को साधने के लिए ये जरूर समझाया कि अल्पसंख्यकों को बीजेपी से डरकर रहना चाहिए.

क्या है पसमांदा मुसलमानों का गणित
इसमें कोई दो राय नहीं है कि यूपी या देश के दूसरे राज्यों में मुसलमानों को वोट बीजेपी को कभी नहीं मिला. ये जरूर रहा है कि जिस पार्टी में भी बीजेपी को हराने का दम दिखा मुसलमानों का एकमुश्त वोट मिला. लेकिन जहां भी ये वोटबैंक बिखरा बीजेपी को उससे फायदा हुआ है. लेकिन बीजेपी ने भी इसको लेकर रणनीति बनाई है. इसको लोकसभा चुनाव में यूपी की सभी 80 सीटें जीतने के प्लान के साथ भी जोड़कर देखा जा रहा है.


कौन हैं पसमांदा मुस्लिम
पसमांदा शब्द मुसलमानों की उन जातियों के लिए बोला जाता है जो सामाजिक रूप से पिछड़े हैं या फिर कई अधिकारों से उनको शुरू से ही वंचित रखा गया. इनमें बैकवर्ड, दलित और आदिवासी मुसलमान शामिल हैं. लेकिन मुसलमानों में जातियों का ये गणित हिंदुओं में जातियों के गणित की तरह ही काफी उलझा हुआ है. और यहां भी जाति के हिसाब से सामाजिक हैसियत तय की जाती है.

साल 1998 में पहली बार 'पसमांदा मुस्लिम' का इस्तेमाल किया दया था. जब पूर्व राज्यसभा सांसद अली अनवर अंसारी ने पसमांदा मुस्लिम महाज का गठन किया था. उसी समय ये मांग उठी थी कि सभी दलित मुसलमानों की अलग से पहचान हो और उनको ओबीसी के अंर्तगत रखा जाए.

लेकिन इस्लाम में नहीं है जाति जिक्र?
सवाल इस बात का है कि जब इस्लाम में जातियों का जिक्र नहीं है और सभी मुसलमानों को एक नजर देखा जाता है तो फिर ये व्यवस्था कैसे दी जा सकती है. इस पर मांग का समर्थन करने वाले कहते हैं कि भारतीय महाद्वीप में जाति एक सच्चाई है और  भारत के मुसलमानों के बीच भी यह व्यवस्था है.

पसमांदा मुस्लिम के बीच काम कर रहे बीजेपी से जुड़े आतिफ रशीद भी एबीपी से बातचीत में कहते हैं कि पूरे मस्लिम समुदाय में 80 फीसदी पसमांदा हैं लेकिन नौकरियों और कॉलेज की सीटों पर सिर्फ ऊंची जाति वाले अशराफ समुदाय के मुसलमानों का कब्जा है. 

आतिफ रशीद कहते हैं कि इस्लाम में जातियों का कोई जिक्र नहीं है लेकिन जमीन में इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता है. उनका कहना है कि जब भी पसमांदा अपने अधिकारों की बात करते हैं उनके सामने मुसलमानों को बांटने का सवाल खड़ा कर दिया. 

मुसलमानों में किस तरह तय की गई है जाति
भारत में मुसलमानों को मुख्य रूप से अशरफ (ऊंची जाति) और अजलफ (पिछड़े) और अरजल (दलित) में बांटा गया है. अशरफ खुद को अरब, फारस और तुर्की से आए मुसलमानों का वंशज बताते हैं और खुद को बाकी मुसलमानों से ऊंचा मानते हैं. इनमें सैयद, शेख, मुगल और पठान शामिल हैं. लेकिन इन मुसलमानों में वो भी शामिल हैं जो पहले हिंदुओं में राजपूत, गौर और त्यागी थे और बाद में इस्लाम धर्म कबूल कर लिया. 

अजलफ मुसलमानों में वो लोग शामिल हैं जो जाति के आधार पर किसी न किसी काम जुड़े हैं जिनमें मोमिन जुलाहा, टेलर, राइन, कुंजरा आदि शामिल हैं. ये पिछड़े मुसलमान कहे जाते हैं.

अरजल मुसलमानों में दलित समुदाय आता है. जिनको आम तौर पर अछूत माना जाता है. इनमें हलालखोर, हेलास, भंगी, धोबी, नाई, कसाई और फकीर शामिल हैं. इनका जिक्र 1901 में हुई जनगणना में किया गया है. 

सच्चर समिति में क्या है जिक्र
भारतीय मुसलमानों के सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्तर को जानने के लिए राजेंद्र सच्चर की अगुवाई में साल 2005 में एक समिति गठित की गई थी. जिसके मुताबिक मुसलमानों को तीन भागों में बांटा गया है. 1- जिनका सामाजिक स्तर ऊंचा है यानी अशरफ. 2- जिनकी सामाजिक हैसियत हिंदुओं के ओबीसी के बराबर है यानी अजलफ. 3- जो हिंदुओं के शेड्यूल कास्ट के बराबर हैं यानी अरजल. इसी तरह साल 2007 में जस्टिस रंगनाथ समिति की रिपोर्ट भी आई जिसमें कहा जाति व्यवस्था भारत के सभी धर्मों में है जिसमें मुस्लिम धर्म भी शामिल है.  

भारत में कितने हैं पसमांदा मुसलमान
1901 की जनगणना के बाद से भारत में जाति आधारित गिनती नहीं की गई है. हालांकि आरजेडी, जेडीयू और समाजवादी पार्टी की लगातार जाति आधारित जनगणना की मांग कर रही हैं. इसलिए कितने पसमांदा मुसलमान हैं ये सही-सही बता पाना मुश्किल है.

लेकिन सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में दावा किया गया है कि कुल मुसलमानों की जनसंख्या में पसमांदा मुस्लिम 40 फीसदी हैं. लेकिन पसमांदाओं के बीच काम कर रहे लोगों का कहना है कि इनकी संख्या 80 फीसदी से ज्यादा है. इस बात का आधार 1871 में हुई जनगणना है जिसके मुताबिक 19 फीसदी मुस्लिम ही ऊंची जाति से थे.

लेकिन लोगों का मानना है कि बंटवारे के बाद वही मुस्लिम पाकिस्तान गए जो ऊंची जातियों से थे. इसलिए अगर 1871 की जनसंख्या का आधार बनाया जाए तो इस हिसाब से पसमांदा मुसलमानों की संख्या और ज्यादा हो सकती है.

पसमांदा मुसलमानों की मुख्य मांग क्या है?
पसमांदा के बीच काम कर रहे लोगों का कहना है कि इतनी बड़ी संख्या होने के बावजूद भी पिछड़े मुसलमानों को नौकरियों, विधायी कामों और सरकारी मदद से चल रहे संस्थानों तक में हिस्सेदारी नहीं दी गई है. इतना ही नहीं मुसलमानों की ओर से चलाई जा रही संस्थाओं में से भी दूर रखा गया है.

सबसे बड़ी मांग है कि जाति के आधार पहले जनगणना करके उसके आधार पर आरक्षण की व्यवस्था तय की जाए. इसके साथ ही कारीगर, शिल्पी और मजदूरों को सरकारी मदद दी जाए.

साल 2014 के लोकसभा चुनाव में उठी थी मांग
लोकसभा चुनाव 2014 में पसमांदा  संगठनों  की ओर से मांग की गई थी कि दलित मुसलमानों को एससी लिस्ट में शामिल किया जाए और पिछड़ो के लिए ओबीसी कोटा को फिर से निर्धारित करके ईसीबी में शामिल किया जाए.

क्या पसमांदा मुसलमानों की मांग का इतिहास?
पसमांदा मुसलमानों के संगठनों का मानना है कि आज तक सभी सरकारी योजनाओं का लाभ धर्म के नाम सिर्फ अशरफ यानी ऊंची जातियों के मुसलमानों को मिलता रहा है. बीजेपी नेता आतिफ रशीद का दावा है कि मुसलमानों में कई ऐसी जातियां हैं जहां से आज तक कोई पार्षद तक नहीं बना है. इस बात पर उन्होंने मुसलमानों की कसघर जाति का जिक्र किया. उन्होंने कहा कि हिंदुओं में इनको कुम्हार कहा जाता है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इनकी अच्छी-खासी संख्या है लेकिन इनका अपना कोई नेता ही नहीं है. 

पसमांदा नेताओं का मानना है कि धर्म के नाम पर मुसलमानों को अगर आरक्षण मिलता है तो इसका फायदा पिछड़े मुसलमानों को कभी नहीं मिल पाएगा. पसमांदा मुसलमानों की हक की बात आरक्षण व्यवस्था लागू होने की बाद शुरू हुई लेकिन इतिहास में इसकी जड़ें आजादी के पहले तक जाती हैं.

जुलाहा समुदाय से आने वाले दो मुस्लिम नेता अब्दुल कयूम अंसारी और मौलाना अली हुसैन असीम बिहारी ने मुस्लिम लीग के उस दावे पर सवाल उठाए थे तो जिसमें उसका कहना था कि वो सभी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व कर रही है.

इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में अली अनवर अंसारी कहते हैं, 'ये दोनों नेता आजादी की लड़ाई में मुख्य स्तंभ थे. उनके साथ ही मंसूरी समुदाय आने वाले मौलाना अतीकुर रहमान नकवी, रवीन समुदाय से आने मियां अब्दुल मलिक तानपुरी भी आजादी की लड़ाई में हिस्सा ले रहे थे.  

इतिहास में नजर डालें तो ये सभी अशरफ और इंडियन मुस्लिम लीग के खिलाफ भी एक तरह से लड़ाई छेड़ रखी थी. आजादी के बाद साल 1980 में महाराष्ट्र में अखिल भारतीय मुस्लिम ओबीसी संघ ने पसमांदा मुसलमानों के अधिकारों की बात की थी. जिसमें पठान समुदाय से आने एक्टर दिलीप कुमार ने भी समर्थन किया था. 1990 तक आते-आते पसमांदाओं के हक की बात करने वाले कई छोटे-छोटे संगठन अलग-अलग राज्यों में खड़े हो चुके थे. 

बीजेपी क्यों कर रही पसमांदओं की हक की बात?
लोकसभा चुनाव 2024 को लेकर बीजेपी अपना वोटबैंक बढ़ाने की कोशिश कर रही है और साल 2014 से ही बीजेपी पसमांदा मुसलमानों के बीच सक्रिय है. इस बीच हमने ये भी देखा है कि आरएसएस की ओर से भी मुस्लिम धर्मगुरुओं से बातचीत का सिलसिला शुरू किया गया है. संघ प्रमुख मोहन भागवत की ओर से भी मुसलमानों को लेकर कई सकारात्मक बयान आए हैं.  

बीजेपी सोशल की इंजीनियरिंग में अभी तक गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलित शामिल थे. जिसका फायदा उसे चुनाव दर चुनाव मिलता रहा है. अब बीजेपी ने गैर अशरफ मुसलमानों को जोड़ने की कवायद तेज कर दी है. बीजेपी ने इसके लिए पसमांदा मुसलमानों से ही नेता बनाना शुरू कर दिया है. योगी सरकार के मुस्लिम चेहरा दानिश अंसारी भी पसमांदा समुदाय से हिस्सा रखते हैं. सवाल इस बात का है कि पसमांदाओं की मुख्य मांग आरक्षण पर क्या बीजेपी चुनाव से पहले कोई कदम उठाएगी?

 

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