जोधपुर की हद: ऐसा क्या हुआ कि उसकी ज़िंदगी ही बदल गई?
भैंसों का दूध दूह कर घर पहुंचाता मजाल है एक क़तरा भी कभी पिया हो. यही कारण था कि ग़फ़ूरे का नाम ग़फ़ूरे भोंदू पड़ गया. अपने ममेरे भाई से तो ऐसे डरता जैसे वह यमदूत हो.

ज़िंदगी भर भोंदू कहलाने वाले ग़फ़ूरे, दूसरे के साथ भाग गई अपनी बीवी को सजा देने चला था. लेकिन ऐसा क्या हुआ कि उसकी ज़िंदगी ही बदल गई?
जोधपुर की हद
अली अकबर नातिक

“मर्दों पर तो ऊंच-नीच आती है, लेकिन ऐसा क़हर कभी नहीं पड़ा. इसलिए, जीने के क़ाबिल भी नहीं रहे.”
“अब्बा अब तो जो हो गया सो हो गया. दाग़ तो धुल नहीं सकता, चाहे लाख सफाई देते फिरें. अब तो कुछ ऐसा करो कि किसी तरह लोगों के मुंह बंद हो जाएं,” इलियासे ने मुंह ऊपर उठाए बिना जवाब दिया.
“बेग़ैरत, खुद मर गया और ये सौग़ात छोड़ गया हमारे लिए, ताकि सारी ज़िंदगी सिर उठाकर न चल सकें,” हाजी दोबारा बोला. फिर शरीफ़ की ओर मुंह करके जो अभी तक चुप बैठा था, “शरीफ़े, अब तू ही कोई हल बता, मेरी समझ में तो कुछ नहीं आता.”
कुछ देर ठहर कर शरीफ़ बोला, “हाजी मैंने बड़ा विचार किया है. मुझसे पूछो तो अब इसका एक ही हल है.” फिर मुंह आगे करके आहिस्ता से हाजी शरीफ़ ने लुतफ़ुल्ला और इलियासे को अपना प्रस्ताव पेश किया, जिसे सुनकर इलियासे फ़ौरन सहमत हो गया मगर उसकी बात सुन लुत्फ़ुल्ला सोच में पड़ गया. लेकिन अंत में उसने भी अपनी सहमति दे दी.
जब ग़फ़ूर की मां का तलाक़ हुआ था तो वह तीन साल का था, इसलिए जोधपुर गांव आते समय मां उसे अपने साथ ले आई. यहां ग़फ़ूरे का नाना उसके नख़रे उठाने लगा. जब भी मस्जिद में नमाज़ पढ़ने जाता, वापसी पर मिठाई या फल ज़रूर ले कर आता. खिलौनों और कपड़ों के ढेर लग गए. मां अलग प्यार देती. ग़रज़ बचपन लाड़ प्यार और सुख सुविधाओं में गुज़रने लगा. पांच बरस का हुआ तो गांव के स्कूल में दाख़िल करवा दिया गया. मगर भाग्य से ग़फ़ूरे को बुद्धि ऐसी मिली थी जो ज्ञान का बोझ उठाने के बिल्कुल क़ाबिल नहीं था.
एक साल स्कूल जाते हो गया मगर मजाल है कि एक शब्द भी दिमाग़ में घुसा हो. एक दिन शिक्षक ने ग़फ़ूरे के आगे हाथ जोड़ लिया कि बंधु हममें इतनी सकत नहीं कि आपके दिमाग़ का साथ दे सकें जो शिक्षा के लिए बना ही नहीं. लेकिन ग़फ़ूरे की मां उसे हर हालत में पढ़ाने पर अड़ी थी और शायद अड़ी रहती कि अचानक ग़फ़ूरे के नाना की मृत्यु हो गई. चालीसवां हुए अभी पांच ही दिन हुए थे कि लुत्फ़ुल्ला ने ग़फ़ूरे और उसकी मां के एक अलग जगह रहने के लिए तय कर दी. अब घर के छोटे-मोटे काम यही करने लगा.
सीधा काम मुश्किल से ही उससे हो पाता था. आज्ञा के पालन की आदत ऐसी थी कि घर का नौकर भी कोई काम कहता तो भागा फिरता. स्पष्ट है कि मंद बुद्धि थी इसलिए हर काम में कुछ न कुछ गड़बड़ ज़रूर हो जाती. अतः डांट-फटकार भी सुननी पड़ती. ग़फ़ूरे की मां अंदर ही अंदर कुढ़ती रहती मगर बेचारी कुछ कर नहीं सकती थी क्योंकि बाप के मरने के बाद भाई के दरवाज़े पर इसी प्रकार गुज़ारा होता है. दो-तीन महीने इस प्रकार बीत गए फिर स्कूल छोड़ दिया कि वह उसके बस का नहीं था.
अब हर कोई ग़फ़ूरे को ही काम कहने लगा. ग़फ़ूरे, भाग के जाओ, सब्ज़ी ला दो, ग़फ़ूरे दौड़ो, चक्की से आटा पिसा लाओ, कोई कहता ग़फ़ूरे भोंदू, ज़रा मेरे सिर से जूएं निकालना, और कोई उससे टांगें दबवाता. मां उसे सब कुछ करते देखती मगर बेबस रहती. कभी कभी उसने उसे काम करने से रोका भी, मगर वह शायद ऐसे काम करने में ख़ुश था कि स्कूल से जान बची हुई है. धीरे-धीरे बात छोटे-छोटे कामों से बढ़ कर बड़े-बड़े कामों तक पहुंच गई. लुत्फ़ुल्ला ने ज़मीनदारी की देख-भाल और मवेशियों का बोझ भी उसके सिर पर डाल दिया, जैसे मुफ़्त का नौकर लुत्फ़ुल्ला के हाथ आ गया. वैसे लुत्फ़ुल्ला का एक बेटा इलियासे भी था, मगर वह अपना काम भी ग़फ़ूरे से ही करवाता और रोब अलग से डालता. कभी कभी बड़ी बेदर्दी से मारता भी.
15 साल का हुआ कि मां चल बसी जिसकी वजह से पंद्रह-बीस दिन तो लोग स्नेह से पेश आए फिर उसके बाद खुलकर खेलने लगे. अब ग़फ़ूरे भोंदू के दो ही काम रह गए थे कि हर किसी के हुक्म का पालन करना और रोटी खाकर भैंसों के बाड़े में ही सो जाना. नौकर चाकर भी अपना काम उसी से लेने लगे. इस क़दर आज्ञाकारी होने की आदत ने उसे डरपोक भी बना दिया था. अपना विचार और सोच तो शुरू दिन से ही न थी, यहां तक कि रोटी भी तब खाता जब कोई उसे कहता. कई बार तो भूखे ही सो गया.
भैंसों का दूध दूह कर घर पहुंचाता मजाल है एक क़तरा भी कभी पिया हो. यही कारण था कि ग़फ़ूरे का नाम ग़फ़ूरे भोंदू पड़ गया. अपने ममेरे भाई से तो ऐसे डरता जैसे वह यमदूत हो. हालांकि दोनों एक ही उम्र के थे लेकिन वह उसका हर आदेश बिना चूं किए मानता था. ऐसी ही हालत में वह पच्चीस साल का हो गया.
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(अली अकबर नातिक की कहानी का यह अंश प्रकाशक जगरनॉट बुक्स की अनुमति से प्रकाशित)
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