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उम्मीदवारों के आपराधिक रिकॉर्ड की जानकारी न देने वाली पार्टियों पर होगी कार्रवाई? SC ने फैसला सुरक्षित रखा

सुप्रीम कोर्ट ने साल 2018 में ये आदेश दिया था कि चुनाव लड़ रहे कैंडिडेट्स के क्रिमिनल रिकॉर्ड की जानकारी टीवी चैनल और अखबार में प्रकाशित की जाए.

नई दिल्ली: चुनाव के दौरान प्रत्याशियों के आपराधिक रिकॉर्ड का ब्यौरा मीडिया में प्रकाशित करवाने में चुनाव आयोग की विफलता के खिलाफ दायर याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने आज आदेश सुरक्षित रख लिया. कोर्ट ने 2018 में आदेश दिया था कि चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों के आपराधिक रिकॉर्ड की जानकारी अखबार और टीवी चैनल में प्रसारित की जाए. याचिकाकर्ताओं का कहना था कि पिछले साल हुए बिहार विधानसभा चुनाव में इस आदेश का पालन नहीं हुआ था. ऐसे में चुनाव आयोग के अधिकारियों और राजनीतिक पार्टियों के नेताओं पर कोर्ट की अवमानना के लिए कार्रवाई होनी चाहिए.

2018 में दिए फैसले का पालन न होने की जानकारी मिलने पर सुप्रीम कोर्ट ने 13 फरवरी 2020 को भी आदेश दिया था कि :-

  • राजनीतिक दल किसी उम्मीदवार को टिकट देने के 48 घंटे के भीतर एक क्षेत्रीय अखबार और एक राष्ट्रीय अखबार में उसके ऊपर दर्ज और चल रहे मुकदमों की जानकारी प्रकाशित करें.
  • पार्टियां टीवी चैनल पर भी यह जानकारी प्रसारित करें.
  • राजनीतिक दल अपने आधिकारिक वेबसाइट और फेसबुक और ट्विटर अकाउंट पर भी इस जानकारी को डालें.
  • उम्मीदवार को टिकट देने के 72 घंटे के भीतर पूरी जानकारी चुनाव आयोग को दें.
  • राजनीतिक दल को यह भी बताना पड़ेगा कि जिस उम्मीदवार पर अपराधिक मुकदमे लंबित हैं, उसने उसी को टिकट क्यों दिया? क्या वहां पर कोई बेदाग उम्मीदवार नहीं था?

चुनाव आयोग के लिए पेश हुए वरिष्ठ वकील विकास सिंह ने आज कोर्ट को बताया कि 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल ने 103, बीजेपी ने 77, जेडीयू ने 56, एनसीपी ने 26 और सीपीआई (एम) ने 4 आपराधिक रिकॉर्ड वाले लोगों को टिकट दिया. पार्टियों को कोर्ट के फैसले के बारे में जानकारी दी गई थी. लेकिन ज़्यादातर मामलों में उसका पालन नहीं हुआ. संविधान के अनुच्छेद 324 में चुनाव के आयोजन का अधिकार आयोग के पास है, लेकिन अपने निर्देशों का पालन न करने वाली पार्टियों पर कार्रवाई की बहुत ज़्यादा शक्ति नहीं है.

चुनाव आयोग की तरफ से ही पेश वरिष्ठ वकील हरीश साल्वे ने कहा कि कोर्ट के आदेश का पालन न करने वाले राजनीतिक दलों पर अवमानना की कार्रवाई होनी चाहिए. साल्वे ने वकील प्रशांत भूषण को एक मामले में मिली सज़ा का हवाला देते हुए कहा, "पार्टियों के नेताओं पर 1 रुपए का दंड जैसी कार्रवाई नहीं होनी चाहिए. इससे नेता मुस्कुराते हुए तस्वीर खिंचवाकर पैसा जमा करने आएंगे." मामले में एमिकस क्यूरी बनाए गए वरिष्ठ वकील के वी विश्वनाथन ने कहा कि चुनाव आयोग पार्टियों के खिलाफ कार्रवाई के लिए शक्तिहीन नहीं है. इलेक्शन सिंबल आर्डर 1968 की धारा 16A के तहत चुनाव आयोग को अधिकार है कि वह किसी पार्टी का चुनाव चिन्ह निलंबित कर दे.

एनसीपी, सीपीआई (एम) और बीएसपी की तरफ से कोर्ट में बिना शर्त माफी मांगी गई. एनसीपी के लिए पेश वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने कहा कि पार्टी ने अपनी बिहार इकाई के ज़िम्मेदार पदाधिकारियों के ऊपर इस मामले में कार्रवाई भी की है. कोर्ट की तरफ से पार्टी को अवमानना के लिए दंडित करना ज़्यादा कठोर कदम हो जाएगा. बीएसपी के वकील दिनेश द्विवेदी ने कहा कि चुनाव के लिए टिकट देते समय किसी प्रत्याशी के जीतने की संभावना पर ध्यान देना पड़ता है. किसी के ऊपर आपराधिक मामला दर्ज होने का मतलब यह नहीं होता कि वह समाज सेवा न करता हो.

सुनवाई के दौरान इस बात पर भी चर्चा हुई कि राजनीतिक दल कई बार नामांकन के अखिरी दिन उम्मीदवार तय करते हैं. ऐसे में उम्मीदवार के चयन को लेकर चुनाव आयोग को दिए गए स्पष्टीकरण का बहुत अर्थ नहीं रह जाता. कोर्ट में यह बात भी उठी कि एक राष्ट्रीय दल का कोई उम्मीदवार या राज्य इकाई अगर गलती करे तो पूरे देश में उसका चुनाव चिन्ह निलंबित कर देना कहाँ तक उचित होगा. जस्टिस रोहिंटन नरीमन की अध्यक्षता वाली बेंच ने आज इस मसले पर फैसला सुरक्षित रखते हुए सभी पक्षों को लिखित सुझाव देने को कहा.

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