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1914 में शुरू हुआ ताना भगत आंदोलन झारखंड में फिर क्यों लौटा, क्या है इसका इतिहास

लातेहार में आंदोलन के दौरान सोमवार को ताना भगत समुदाय के प्रदर्शनकारी अचानक उग्र हो गए. जिसके बाद इस समुदाय के लोगों ने पुलिसकर्मियों पर पथराव किया .

अहिंसा के पुजारी और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के अनुयायी कहे जाने वाले  ताना भगत समुदाय के लोग अपनी मांगों को लेकर लातेहार में आंदोलन कर रहे हैं. अखिल भारतीय ताना भगत संघ के प्रदर्शनकारियों और कार्यकर्ताओं का दावा है कि संविधान की पांचवीं अनुसूची के तहत लातेहार में अदालत का परिचालन और बाहरी लोगों के रोजगार एवं प्रवेश पर रोक है. समुदाय के लोगों का कहना है कि वह तब तक प्रदर्शन करते रहेंगे  जब तक सरकारी संस्थानों, पुलिस और न्यायपालिका को उन्हें सौंप नहीं दिया जाता.

इस विरोध प्रदर्शन के दौरान सोमवार को प्रदर्शनकारी अचानक उग्र हो गए. जिसके बाद इस समुदाय के लोगों ने पुलिसकर्मियों पर पथराव किया जिसमें 17 पुलिसकर्मी घायल हुए. इसके बाद पुलिस ने कई प्रदर्शनकारियों की गिरफ्तारी भी की.

हिंसक झड़प को अंजाम देने की घटना के बाद झारखंड की लातेहार सिविल कोर्ट ने बीते मंगलवार यानी 11 अक्टूबर को 30 ताना भगतों को जेल भेज दिया है. इस दौरान झारखंड पुलिस ने कुल 228 लोगों के खिलाफ FIR दर्ज की थी. उनपर आरोप है कि इन लोगों ने पुलिस पर पथराव किया.  इसके अलावा मुख्य न्यायाधीश की पांच घंटे तक घेराबंदी की गई और कोर्ट की एंट्री और निकास गेट को बाधित किया गया. अब उच्च न्यायालय मामले पर अगले सप्ताह सुनवाई करेगा. 

इस प्रदर्शन के साथ ही एक बार फिर 1914 में शुरू हुआ ताना भगत आंदोलन से झारखंड का जिक्र किया जाने लगा है. आखिर अहिंसा का प्रतीक माना जाने वाला यह पंथ उग्र होने पर क्यों मजबूर हो गया और इसका इतिहास क्या है.

पिछले सौ साल से झारखंड में ताना भगत पंथ के लोग तन पर सफेद वस्त्र, कांधे पर गमछा, माथे पर गांधी टोपी, महात्मा गांधी की पूजा और सात्विक जीवन जीने के लिए जाने जाते हैं. इस संघ के लोग झारखंड के सात-आठ जिलों में हैं और पूरे राज्य में इनकी आबादी लगभग तीस हजार है.

इस पंथ का इतिहास सौ साल पुराना है. आजादी के सत्याग्रही आंदोलन वाले दौर से लेकर इस आधुनिक दौर तक, ताना भगत का इतिहास त्याग, बलिदान, कठिन परिश्रम और सादगी का रहा है.


1914 में शुरू हुआ ताना भगत आंदोलन झारखंड में फिर क्यों लौटा, क्या है इसका इतिहास

1914 में हुई थी भगत पंथ की शुरुआत 

इस पंथ की शुरुआत साल 1914 में जतरा ताना भगत ने की थी. जतरा ताना भगत गुमला जिले चिंगारी नामक गांव के निवासी थे. जतरा ने ही पहली बार आदिवासी समाज में भूत-प्रेत के अंधविश्वास, शराब पीना, पशु पक्षी या मांस खाना, जीव हत्या के विरुद्ध मुहिम शुरू की थी. उन्होंने समाज के सामने सात्विक जीवन का सूत्र रखा था. 

उनका यह अभियान असरदार भी रहा और जिन लोगों ने उनकी इस मुहीम में जुड़कर नई जीवन शैली को स्वीकार किया, उन्हें ताना भगत कहा जाने लगा. धीरे धीरे इस इस मुहिम में काफी लोग जुड़ने लगे और सब मिलकर ताना भगत समुदाय बना. उस वक्त ब्रिटिश हुकूमत का शोषण और अत्याचार भी चरम पर था. टाना भगत के समुदाय से जुड़े हजारों आदिवासियों ने ब्रिटिश हुकूमत के अलावा सामंतों, साहूकारों, मिशनरियों के खिलाफ आंदोलन किया था.

ताना भगत आंदोलन

ताना भगत आंदोलन की शुरुआत साल 1914 में बिहार में हुई थी. यह आंदोलन लगान की ऊंची दर तथा चौकीदारी कर के विरुद्ध किया गया था. इस आंदोलन के प्रवर्तक 'जतरा भगत' थे, जिसे कभी बिरसा मुण्डा, तो कभी केसर बाबा के समतुल्य होने की बात कही गयी है. इसके अतिरिक्त इस आंदोलन के अन्य नेताओं में बलराम भगत, गुरुरक्षितणी भगत आदि के नाम प्रमुख थे. 

जतरा टाना भगत ने ब्रिटिश हुकूमत के द्वारा किए गए अत्याचार के खिलाफ  'मालगुजारी नहीं देंगे, बेगारी नहीं करेंगे और टैक्स नहीं देंगे' आंदोलन का ऐलान किया था.  इस आंदोलन में उनके साथ लाखों लोग जुड़ने लगे जिसके बाद साल 1914 में ब्रिटिश सरकार ने घबरा कर जतरा उरांव को गिरफ्तार कर लिया. 

जतरा को डेढ़ साल की सजा दी गयी. वहीं जेल से छूटने के बाद अचानक उनका देहांत हो गया.  ताना भगत आंदोलन अपनी अहिंसक नीति के कारण महात्मा गांधी के स्वदेशी आंदोलन से जुड़ गया. इस समुदाय के लोगों ने गांधी जी को आदर्श बनाकर चरखा वाले तिरंगे को अपना प्रतीक ध्वज बना लिया और गांधी को देवपुरुष की तरह मानने लगे. इनकी परंपरागत प्रार्थनाओं में गांधी का नाम आज तक शामिल है.  


1914 में शुरू हुआ ताना भगत आंदोलन झारखंड में फिर क्यों लौटा, क्या है इसका इतिहास

इतिहास के पन्नों पर दर्ज है इनकी भागीदारी 

दस्तावेजों के अनुसार साल 1914 में ताना भगत पंथ के लगभग 26 हजार अनुयायी थे. इन अनुयायियों की तादाद आद भी इसी के आसपास है. इस पंथ के लोग झारखंड के कई इलाके खासकर लोहरदगा, गुमला, खूंटी, रांची, चतरा, लातेहार, सिमडेगा जिले के अलग-अलग गांवों में बसे हैं. 

इस पंथ के जुड़े लोगों ने आजादी के आंदोलन में भी योगदान दिया है. टाना भगतों की भागीदारी इतिहास के पन्नों पर दर्ज है. ताना भगतों के लोग साल 1922 में कांग्रेस के गया सम्मेलन और साल 1923 के हुई नागपुर सत्याग्रह में बड़ी संख्या में शामिल हुए थे. वहीं ताना भगत आंदोलन की शुरुआत हुई थी तब ब्रिटिश हुकूमत ने इनकी जमीन नीलाम कर दी थी. इस जमीन को स्वतंत्र भारत की सरकार भी वापस नहीं दिला पाई. इस समुदाय के लोग आज भी उन मांगों को लेकर अहिंसक आंदोलन करते रहते हैं.  

देश आजाद होने के बाद साल 1948 में  सरकार ने 'टाना भगत रैयत एग्रीकल्चरल लैंड रेस्टोरेशन एक्ट' पारित किया. इस अधिनियम के तहत 1913 से 1942 तक के बीच अंग्रेज सरकार ने जिन टाना भगतों की जमीन नीलाम की थी, उन्हें वापस दिलाया जाएगा. वहीं इतने सालों बाद ताना भगतों यब पंथ अब एक बार फिर सक्रिय हो गया है. 

खादी वस्त्र खरीदने के लिए विशेष भत्ता देने का एलान

हालांकि इस मांग से पहले सरकार ने इनकी कई मांगों पर कदम भी उठाए. मसलन पूर्ववर्ती रघुवर दास की सरकार ने साल 1956 के बाद से इनकी जमीन का लगान पूरी तरह माफ कर दिया. हेमंत सोरेन सरकार ने भी पिछले साल टाना भगतों को खादी वस्त्र खरीदने के लिए प्रतिवर्ष 2000 रुपये का विशेष भत्ता देने का ऐलान किया था. 

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