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कॉमन सिविल कोड: मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का इतिहास, हिंदू कोड बिल पर नेहरू-पटेल में मतभेद, जानिए अब तक क्या-क्या हुआ?

बीजेपी यूसीसी को लेकर बहुत उत्सुक है. पार्टी की ये कोशिश है कि 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले इसे लागू किया जाना चाहिए जबकि एक बड़ा तबका विरोध कर रहा है.

27 जून को भोपाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने समान नागरिक संहिता (यूसीसी) लागू करने की वकालत की. यूसीसी या यूनिफॉर्म सिविल कोड बीजेपी के तीन मुख्य वैचारिक एजेंडों में से एक है. इन तीन एजेंडे में संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त करना और अयोध्या में राम मंदिर बनवाना भी शामिल था. अब बीजेपी यूसीसी को लोकसभा चुनाव से पहले अंतिम रूप देने की कोशिश हो रही है.  

लेकिन सवाल ये है कि भाजपा समान नागरिक संहिता के लिए इतनी उत्सुक क्यों है ? जबकि एक तबका इसे बहिष्कृत कर रहा है. लेकिन हिंदूवादी संगठन समान नागरिक संहिता को लेकर बहुत उत्साही नजर आ रहे हैं. पीएम मोदी यूसीसी को लेकर कह रहे हैं कि एक परिवार यानी एक राष्ट्र में दो तरह के कानून कैसे काम कर सकते हैं. 

हालांकि संविधान समान नागरिक संहिता की सिफारिश करता है, लेकिन तथ्य यह है कि यूसीसी को लंबे समय से सांप्रदायिक एजेंडे के रूप में देखा जाता रहा है. यहां तक कि जाने-माने धर्मनिरपेक्ष सार्वजनिक बुद्धिजीवियों ने भी इसके पक्ष में साफ रुख अपनाने से परहेज किया है. 

यूसीसी से जुड़ा एक प्रमुख मुद्दा मुस्लिम पर्सनल लॉ है. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) 1973 में अस्तित्व में आया. लेकिन पर्सनल लॉ के इतिहास का पता 1772 की शुरुआत में लगाया जा सकता है, जब व्यक्तिगत कानूनों को तैयार करने के लिए धार्मिक सिद्धांतों का इस्तेमाल किया गया था.

मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट 1937 और मुस्लिम विवाह अधिनियम के बाद मुस्लिम पर्सनल लॉ की नींव मजबूत हुई थी. तीन तलाक बिल को 2019 में पास किया गया था. इस बिल के आने के बाद मुस्लिम पर्सनल लॉ में बड़ा बदलाव हुआ. तीन तलाक के मामले में कई जानकारों का मानना था कि ये कानून समुदाय के भीतर आंतरिक सुधार लाएगा. 

द हिंदू में छपी एक खबर के मुताबिक नेहरू के समय में कई मुस्लिम देश ,जॉर्डन, सीरिया, ट्यूनीशिया और पाकिस्तान जैसे देशों ने सुधार किए और पर्सनल लॉ में सुधार किए. इसी समय भारत में मौलाना आजाद और हुमायूं कबीर बड़े मुस्लिम नेता था, इन्होंने भारत में उस समय आंतरिक सुधारों के लिए कोई कोशिश नहीं की.

आजाद भारत में मुस्लिम समुदाय का नेतृत्व करने वाले बड़े नेता धर्मनिरपेक्ष दलों से जुड़े हुए रहे हैं. मुस्लिम समुदाय के पास शायद ही कोई स्वतंत्र नेतृत्व है. यहां तक कि देवबंद नेतृत्व लंबे समय तक कांग्रेस के साथ गठबंधन में रहा. इससे पर्सनल लॉ बोर्ड होते हुए भी अंदरूनी सुधार नहीं हुआ है. कई नारीवादी और मुस्लिम महिला संगठन जो लिंग भेद के खिलाफ लड़ाई लड़ रही हैं, उनका कहना है कि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) ने शाह बानो केस में पुरुष वर्चस्व को आधार बना कर दलीलें पेश की हैं. 

यूसीसी को लेकर विवाद

जानकारों का मानना है किसी भी राजनीतिक पार्टी के लिए यूसीसी का मुद्दा 'कानून की समानता के वादे' पर जोर देना है. राजनीतिक पार्टियों यूसीसी के मुद्दे को अपने फायदे से जोड़ कर भी देख रही हैं. वहीं एआईएमपीएलबी और कई राज्यों के मुस्लिम समूहों में भी यूसीसी को लेकर विवाद पैदा हो गया है. जानकारों का कहना है कि एआईएमपीएलबी जैसे समूह ने शाहबानो मामले में राजीव गांधी सरकार को पूरी तरह से आश्वस्त कर दिया था, लेकिन अब वो यूसीसी के मामले में पीएम मोदी के साथ ऐसा नहीं कर पाएंगे. 

यूसीसी का मतलब क्या है 

कानूनी मामलों के जानकार फैजान मुस्तफा ने मीडिया को दिए एक इंटरव्यू में बताया कि यूनिफॉर्म का मतलब सबके लिए एक बराबर नहीं होता है. अगर ये यूनिफॉर्म की जगह कॉमन होता तो सबके लिए बराबर माना जा सकता था. यूनिफॉर्म का मतलब ये समझा जा सकता है कि क्लासिफिकेशन की गुंजाइश है. 

फैजान मुस्तफा ने ये भी कहा कि भले ही लोग इसके खिलाफ है लेकिन इस कानून का लाया जाना जरूरी है, लेकिन धीरे-धीरे इसके लक्ष्य को हासिल करना समझदारी होगी. वो कहते हैं कि किसी भी धर्म में लैंगिक भेदभाव को खत्म करना इस कानून का पहला कदम होगा. महिलाओं के खिलाफ सभी धर्मों में जो असमानता है वो इसी कानून से खत्म की जा सकती है. 

फैजान मुस्तफा ने बताया कि हिंदू लॉ में रिफॉर्म के बाद हिंदू महिलाओं को कई अधिकार मिले हैं. लेकिन अभी भी सुधार की गुंजाइश है. रिफॉर्म की पहली कोशिश यही थी कि हिंदू मर्द और हिंदू औरत दोनों को बराबरी का दर्जा दिया जाए. अब यूसीसी का मकसद सभी धर्मों के पुरुष और महिलाओं में इसी तरह की समानता लाना है. 

क्या है हिंदू कोड बिल और इसको लेकर राजनीति 

बता दें कि हिंदू कोड बिल समिति का गठन 1941 में किया गया था, लेकिन कानून को पारित करने में 14 साल लग गए. ये कानून एक समान अधिनियम के रूप में पारित नहीं हो सका. ये तीन अलग- अलग अधिनियमों के रूप में पारित किया गया था,  ये अधिनियम हिंदू विवाह अधिनियम, 1955; हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956; और हिन्दू अडॉप्शन एंड मेंटेनेंस एक्ट, 1956 थे. 

फैजान मुस्तफा ने द इंडियन एक्सप्रेस में एक आर्टिकल में लिखा कि दक्षिणपंथियों के विरोध के कारण सभी सुधारों को शामिल नहीं किया जा सका. यहां तक कि सरदार वल्लभभाई पटेल, पट्टाभि सीतारमैया, एमए अयंगर, मदन मोहन मालवीय और कैलाश नाथ काटजू जैसे कांग्रेस नेताओं ने भी ऐसे सुधारों का विरोध किया. 1949 में हिंदू कोड बिल पर बहस में 28 में से 23 वक्ताओं ने इसका विरोध किया था. 

इस आर्टिकल में आगे लिखा है कि 1949 में हिंदू दक्षिणपंथियों ने स्वामी करपात्रीजी महाराज के नेतृत्व में एक अखिल भारतीय हिंदू विरोधी कोड बिल समिति का गठन किया. जिन्होंने हिंदू बहुविवाह को सही ठहराया. गीता प्रेस की कल्याण पत्रिका ने कई लेख प्रकाशित किए जो बहुविवाह का समर्थन करते थे, बेटी के विरासत के अधिकार का विरोध करते थे और धार्मिक मामलों पर कानून बनाने के संविधान सभा के अधिकार पर सवाल उठाते थे. 

बाद में भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने संसद में कहा कि हिंदू कोड बिल के बजाय सरकार को समान नागरिक संहिता लानी चाहिए. हालांकि इस तर्क में दम था, बहुसंख्यक समुदाय के कानूनों में सुधार अल्पसंख्यकों के कानूनों में सुधार करने की तुलना में आसान है. पाकिस्तान सहित कई मुस्लिम देश मुस्लिम कानूनों में सुधार करने में सक्षम रहे हैं, लेकिन अपने अल्पसंख्यक समुदायों के कानूनों में वो अभी भी सुधार नहीं कर पाए हैं. इसको लेकर विवाद ही होता रहा. 

इसी तरह 1951 में जब यूसीसी को लेकर मुद्दा संसद में उठा तो डॉ. बीआर अंबेडकर को कानून मंत्री के पद से इस्तीफा देना पड़ा था. 15 सितंबर, 1951 को राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने विधेयक को वापस करने या इसे वीटो करने की धमकी दी. प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी हार मान ली, विधेयक पारित नहीं किया गया. कई वर्षों के बाद ये कानून पारित हो गया, तो इस कानून के जरिए बेटियों को हिंदू संयुक्त परिवार की संपत्ति में हिस्सा नहीं दिया गया. यह संशोधन 2005 में यूपीए शासन के दौरान आया था. 

पर्सनल लॉ में विविधता

जानकारों का कहना है कि यह मानना गलत है कि धार्मिक विविधता के कारण भारत में अलग-अलग पर्सनल लॉ हैं. वास्तव में कानून अलग-अलग राज्यों में भिन्न होता है. संविधान के तहत पर्सनल लॉ के संबंध में कानून बनाने की शक्ति संसद और राज्य विधानसभाओं दोनों के पास है. 

फैजान मुस्तफा ने एक लेख में लिखा है कि सभी धर्मों के कानूनों में समरूपता लाना संविधान के अधिकार क्षेत्र में है. लेकिन राजनीतिक कारणों से कानूनों की एकरूपता को  प्राथमिकता नहीं दी गई है.

वहीं हिंदू विवाह अधिनियम जैसे कानून के साथ केंद्रीय पर्सनल लॉ में संशोधन लाना प्रविष्टि संख्या 5 के तहत संभव है, जो यूनिफॉर्मिटी की बात करता है. लेकिन इस शक्ति को पूरे भारत के लिए एक समान नागरिक संहिता के अधिनियम को शामिल करने के लिए बढ़ाया नहीं जा सकता ह. क्योंकि एक बार जब एक विधायी क्षेत्र संसदीय कानून द्वारा कब्जा कर लिया जाता है, तो राज्यों को कानून बनाने की ज्यादा आजादी नहीं होती है. ऐसे कानूनों को अनुच्छेद 254 के तहत राष्ट्रपति की सहमति की जरूरत पड़ती है.

यह भी एक मिथक है कि हिंदू एक समान कानून द्वारा शासित होते हैं. करीबी रिश्तेदारों के बीच विवाह उत्तर भारत में नहीं कराया जाता है लेकिन दक्षिण में ये शुभ माना जाता है. पर्सनल लॉ में एकरूपता का अभाव मुसलमानों और ईसाइयों के मामले में भी सच है. 

उदाहरण के तौर पर गोवा को  एक ऐसे राज्य के रूप में माना जाता है जहां पहले से ही समान नागरिक संहिता है. लेकिन गोवा के हिंदू अभी भी पुर्तगाली परिवार और उत्तराधिकार कानूनों द्वारा शासित हैं. 1955-56 का संशोधित हिंदू कानून उन पर लागू नहीं होता है, और विवाह, तलाक, गोद लेने और संयुक्त परिवार पर हिंदू कानून ही वैध रहता है. 1937 के शरीयत अधिनियम को अभी तक गोवा तक विस्तारित नहीं किया गया है, और राज्य के मुसलमानों को पुर्तगाली कानून के साथ-साथ शास्त्री हिंदू कानून से शासित किया जाता है.

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