'पुलिस की ज्यादतियों का सामना करने का ये सही समय', हत्या के आरोपी पुलिसकर्मियों के लिए बोले SC के एक जज तो दूसरे जज ने क्यों कर दिया बरी?
जस्टिस संजय कुमार ने आरोपी पुलिसकर्मियों को लेकर तीखी टिप्पणी करते हुए कहा कि सवाल यह उठता है कि क्या अदालतें पुलिस पर पुलिस को तैनात कर सकती हैं
सुप्रीम कोर्ट ने 29 साल पुराने एक मामले में खंडित फैसला सुनाया है. दो जजों की बेंच बुधवार (25 सितंबर, 2024) को 1995 के मर्डर केस पर सुनवाई कर रहा था, जिसमें एक जज ने आरोपियों के मर्डर केस से बरी का फैसला सुनाया, जबकि दूसरे ने इससे इनकार कर दिया. इस मामले में कोर्ट गैर इरादतन हत्या के आरोपी पुलिसकर्मियों की याचिका पर सुनवाई कर रहा था.
न्यूज एजेंसी पीटीआई की रिपोर्ट के अनुसार जस्टिस संजय कुमार और जस्टिस सी. टी. रविकुमार की बेंच सुनवाई कर रही थी. जस्टिस सी. टी. रविकुमार ने आरोपी पुलिसकर्मियों को गैर इरादतन हत्या के आरोप से बरी कर दिया, जबकि जस्टिस संजय कुमार ने इस पर असहमति जताई और आरोपियों के लिए तीखी टिप्पणी भी की. पुलिसकर्मियों पर सेंधमारी के आरोपी को पुलिस हिरासत में प्रताड़ित करने और रिकॉर्ड के साथ छेड़छाड़ करने के आरोप हैं. उन पर आरोप है कि इस वजह से शख्स की मृत्यु हो गई.
जस्टिस संजय कुमार ने कहा, 'यह सही समय है कि हमारी न्याय व्यवस्था पुलिस की ज्यादतियों के खतरे का सामना करे और इस तरह की अमानवीय प्रथाओं को रोकने के लिए एक प्रभावी तंत्र स्थापित करके इससे निपटे.' उन्होंने अपने असहमतिपूर्ण फैसले में लिखा, 'तथ्य यह है कि जब पुलिस द्वारा हिरासत में यातना देने के लिए पर्याप्त साक्ष्य प्रस्तुत किए जाते हैं, तो पुलिस को स्वयं अपनी बेगुनाही साबित करनी होती है, चाहे वह पुलिस हिरासत में मौत का मामला हो या फिर पीड़ित के लापता होने या गायब होने का मामला हो.'
उन्होंने कहा कि सिर्फ इसलिए आरोपी पुलिसकर्मियों को बरी नहीं किया जा सकता कि वे इतने चतुर थे कि उन्होंने शमा उर्फ कालिया (मृतक) के उनकी हिरासत से भागने की कहानी बना ली. एक विशेषज्ञ का हवाला देते हुए जस्टिस संजय कुमार ने कहा, 'पुलिस हिरासत में किसी व्यक्ति को प्रताड़ित करना या उसकी हत्या करना, हल्के शब्दों में कहें तो, ये अवैध है, लेकिन असली सवाल यह है कि जब सोने में जंग लग जाए तो लोहा क्या कर सकता है? सवाल यह उठता है कि क्या अदालतें पुलिस पर पुलिस को तैनात कर सकती हैं?'
जस्टिस संजय कुमार ने कहा, 'इसके विपरीत, मैं हाईकोर्ट की ओर से पुष्टि किए गए अपीलकर्ताओं की दोषसिद्धि और सजा को बरकरार रखूंगा और सभी अपीलों को खारिज करूंगा.' दूसरी ओर, जस्टिस सी. टी. रविकुमार ने आरोपी पुलिसकर्मियों को बंदी की हत्या के आरोप से बरी कर दिया. अभियोजन पक्ष के अनुसार, कथित हिस्ट्रीशीटर शमा उर्फ कालिया को महाराष्ट्र के गोंदिया में विजय अग्रवाल के आवास पर सेंधमारी की घटना के संबंध में पूछताछ के लिए पुलिस हिरासत में लिया गया था. इसके अनुसार उस पर सात दिसंबर 1995 को एक लाख रुपये से अधिक मूल्य की वस्तुएं चोरी करने का आरोप लगाया गया और उसे हिरासत में यातनाएं दी गईं, जिसके परिणामस्वरूप 22 दिसंबर को उसकी मौत हो गई.
पुलिस ने उसे हिरासत में रखते हुए उसकी गिरफ्तारी दर्ज नहीं की. बाद में, मध्य प्रदेश के बालाघाट जिले के तिरोड़ी पुलिस थाने के अंतर्गत एक जंगल में एक अज्ञात शव मिला, जिसे जला दिया गया था. यह भी आरोप लगाया गया कि जघन्य अपराध करने के बाद, आरोपी पुलिसकर्मियों ने हिरासत में मौत के अभियोजन से बचने के लिए एक मामला गढ़ा और झूठे साक्ष्य गढ़े. अभियोजन पक्ष के अनुसार, बाद में उन्होंने दीपक लोखंडे को शमा के रूप में इस्तेमाल करके यह दावा किया कि आरोपी उनकी हिरासत से भाग गया और पुलिसकर्मियों ने कथित तौर पर इसे साबित करने के लिए रिकॉर्ड में हेराफेरी की. अभियोजन पक्ष ने कहा कि पुलिसकर्मियों ने लोखंडे को अपनी जीप से भगा दिया ताकि ऐसा लगे कि शमा हिरासत से भाग गया है.