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2024 में बीजेपी को 100 सीटों पर कैसे समेटेंगे नीतीश कुमार? यूपीए के जॉर्ज की रणनीति जानिए

नीतीश की सबसे बड़ी रणनीति 450 सीटों पर बीजेपी और अन्य पार्टियों के बीच सीधा मुकाबला कराने की है. जिन 13 पार्टियों को नीतीश एक मंच पर लाने की कोशिश कर रहे हैं, 2019 में उनका वोट परसेंट करीब 45% था.

मई और जून की तपिश से पहले कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे और नीतीश कुमार के बीच मुलाकात ने अप्रैल में ही दिल्ली और पूरे देश का सियासी तापमान बढ़ा दिया है. 12 मार्च को कांग्रेस अध्यक्ष के सरकारी आवास 10 राजाजी मार्ग पर मल्लिकार्जुन खरगे, राहुल गांधी, तेजस्वी यादव और नीतीश कुमार के बीच करीब 2 घंटे तक विपक्षी एका को लेकर चर्चा हुई.

पत्रकारों से बात करते हुए नीतीश कुमार और मल्लिकार्जुन खरगे ने मीटिंग को ऐतिहासिक बताया. खरगे से मुलाकात करने के बाद नीतीश कुमार आप संयोजक अरविंद केजरीवाल से भी मिलने पहुंचे. 3 दिवसीय दिल्ली दौरे के बाद नीतीश कुमार ने 2003 की तरह बीजेपी के खिलाफ एक नया और प्रभावी मोर्चा के गठन का संकेत दिया है.

सूत्रों के मुताबिक सबकुछ ठीक रहा तो इस महीने के अंत में दिल्ली में कांग्रेस समेत कुछ विपक्षी पार्टियों की एक मीटिंग होगी, जिसमें नीतीश कुमार को गठबंधन का संयोजक बनाया जा सकता है. नीतीश सामान्य विचारधारा वाले दलों को एक मंच पर लाएंगे, जिससे 2024 के चुनाव में बीजेपी को 100 से कम सीटों पर समेटा जा सके.

फरवरी 2023 में नीतीश कुमार ने एक सभा में कहा था कि अगर कांग्रेस विपक्षी एकता की पहल कर दें तो बीजेपी लोकसभा चुनाव 2024 में 100 सीटों पर सिमट जाएगी. 25 साल से गठबंधन के सहारे केंद्र और बिहार की सत्ता में रहे नीतीश के इस दावे पर सवाल भी उठ रहे हैं, लेकिन नीतीश और उनके नेता बार-बार इस दावे को दोहरा रहे हैं. 

आइए जानते हैं कि आखिर नीतीश कुमार के पास ऐसी क्या रणनीति है, जिसके सहारे लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 100 सीटों पर समेट देने का दावा कर रहे हैं?

ममता, केसीआर और जगनमोहन समेत 11 नेताओं को साथ लाने की तैयारी
नीतीश कुमार की पहली कोशिश उन नेताओं को साथ लाने की है, जो या तो कभी कांग्रेस में रह चुके हैं या यूपीए गठबंधन में. ममता बनर्जी, केसीआर और जगनमोहन रेड्डी कांग्रेस से निकलकर खुद की पार्टी बना चुके हैं. यानी इन नेताओं का बैकग्राउंड कांग्रेस ही रहा है.

वर्तमान में ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल, केसीआर तेलंगाना और जगनमोहन रेड्डी आंध्र के मुख्यमंत्री हैं. तीनों नेता कांग्रेस में आने को तैयार नहीं है. नीतीश इन नेताओं को साध कर एक मंच पर लाने की तैयारी में है. 

इसके अलावा कर्नाटक के एचडी कुमारस्वामी, महाराष्ट्र के शरद पवार और उद्धव ठाकरे, ओडिशा के नवीन पटनायक, हरियाणा के ओम प्रकाश चौटाला और राष्ट्रीय पार्टी सीपीएम और आप को भी गठबंधन में शामिल कराने की रणनीति है.

कुमारस्वामी, नवीन पटनायक, अरविंद केजरीवाल और ओम प्रकाश चौटाला से नीतीश कुमार का व्यक्तिगत संबंध हैं. नीतीश लिस्ट के 11 में से अधिकांश नेताओं से मुलाकात कर चुके हैं. 

इन 11 नेताओं का 12 राज्यों की करीब 270 सीटों पर मजबूत पकड़ है. इनमें महाराष्ट्र की 48, पश्चिम बंगाल की 42, आंध्र प्रदेश की 25, ओडिशा की 21, केरल की 20, तेलंगाना की 17 और पंजाब की 14 सीटें शामिल हैं. महाराष्ट्र, कर्नाटक और बंगाल को छोड़कर बाकी राज्यों में बीजेपी ज्यादा मजबूत स्थिति में नहीं है.

लोकसभा की 450 सीटों पर बीजेपी वर्सेस ऑल की रणनीति
नीतीश कुमार की दूसरी और सबसे बड़ी रणनीति लोकसभा की 450 सीटों पर बीजेपी और अन्य पार्टियों के बीच सीधा मुकाबला करने की है. इनमें महाराष्ट्र की 48, पश्चिम बंगाल 42, बिहार की 40, तमिलनाडु की 39, कर्नाटक की 28, राजस्थान की 25, गुजरात की 26 सीट भी शामिल हैं. 

जिन 13 पार्टियों को नीतीश कुमार एक मंच पर लाने की कोशिश कर रहे हैं, 2019 में उनका वोट परसेंट करीब 45 फीसदी था. 2019 के चुनाव में 303 सीटें जीतने वाली बीजेपी का वोट परसेंट 37 फीसदी था. नीतीश कुमार का मानना है कि अगर 400 सीटों पर बीजेपी वर्सेज ऑल होता है, तो वोट नहीं बंटेगा और इसका नुकसान बीजेपी को हो सकता है.

इसे उदाहरण से समझिए- 2019 में बिहार की 40 सीटों पर हुए चुनाव में बीजेपी को 17 सीट, जेडीयू को 16 सीट, लोजपा को 6 सीट और कांग्रेस को एक सीट पर जीत मिली. वोट परसेंट देखा जाए तो बीजेपी को 23.58, जेडीयू को 21.81, राजद को 15, कांग्रेस को 7 और लोजपा को 7 फीसदी वोट मिला.

अभी जेडीयू, राजद, कांग्रेस और वाम पार्टियां बीजेपी के विरोध में है. इन पार्टियों का वोट फीसदी 50 से भी ऊपर है. अगर चुनाव में इन पार्टियों का वोट एकमुश्त पड़ा तो बीजेपी के लिए मुश्किल हो सकता है.

जातीय जनगणना और सेंट्रल एजेंसी की कार्रवाई बनेगा मुख्य मुद्दा
बीजेपी के खिलाफ बनने वाले गठबंधन का कॉमन मिनिमम प्रोग्राम भी तैयार करने की रणनीति है. संभवत: कांग्रेस के नेतृत्व में बनी पूर्व के संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का नाम भी बदला जा सकता है. बिहार में 2015 में नीतीश कुमार और लालू यादव ने यूपीए के बदले महागठबंधन नाम दिया था. 

सभी दल 2 बड़े मुद्दे पर आगे बढ़ेंगे. इनमें पहला मुद्दा- देशभर में जातीय जनगणना कराने की है. दूसरा मुद्दा- विपक्षी नेताओं पर हो रहे सेंट्रल एजेंसी की कार्रवाई है. सेंट्रल एजेंसी की कार्रवाई से कांग्रेस, तृणमूल, आरजेडी, बीआरएस, आप और सीपीएम परेशान हैं.

विपक्षी पार्टियों का कहना है कि मोदी सरकार के शासन में आने के बाद प्रवर्तन निदेशालय की 95 फीसदी कार्रवाई हमारे खिलाफ हुई है. सुप्रीम कोर्ट में इसको लेकर याचिका भी दाखिल की गई थी.

जातीय जनगणना का मुद्दा देश के ओबीसी समुदाय को सीधे हिट कर रही है. लोकसभा की सभी सीटों पर ओबीसी समुदाय 30-40 फीसदी के करीब हैं, जो गेम चेंजर माने जाते हैं. जातीय जनगणना को अगर 2024 में विपक्ष मुद्दा बनाने में सफल रहती है तो बीजेपी को काफी नुकसान हो सकता है.

विपक्षी एका के लिए नीतीश सबसे मुफीद क्यों?

1. गठबंधन का तिकड़म जानते हैं- नीतीश कुमार पिछले 25 सालों में 9 दलों के साथ गठबंधन कर सरकार चला चुके हैं. इनमें बीजेपी, कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी और आरजेडी, एलजेपी जैसे क्षेत्रीय पार्टी भी शामिल है. 

नीतीश कुमार सीट बंटवारे से लेकर गठबंधन में सहयोगियों को एडजस्टमेंट का काम बखूबी जानते हैं. साथ ही गठबंधन में वोट ट्रांसफर का भी तिकड़म नीतीश को पता है, इसलिए कांग्रेस और अन्य विपक्षी नेताओं के लिए नीतीश सबसे मुफीद हैं.

2. बेदाग चेहरा, करप्शन का कोई आरोप नहीं- नीतीश कुमार करीब 16 साल से बिहार के मुख्यमंत्री हैं. वे केंद्र की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में भी मंत्री रह चुके हैं पर नीतीश पर अब तक कोई करप्शन का कोई आरोप नहीं लगा है.

नीतीश कुमार की ईमानदारी की तारीफ बीजेपी के दिग्गज नेता भी कर चुके हैं. ऐसे में विपक्षी एका के इस प्रयास पर बीजेपी करप्शन का आरोप ज्यादा नहीं लगा पाएगी. नीतीश के खिलाफ सेंट्रल एजेंसी के पास कोई केस भी नहीं है.

3. सेक्युलर छवि, अधिकांश नेताओं से रिश्ते- बिहार में बीजेपी के साथ रहने के बावजूद नीतीश कुमार की छवि सेक्युलर रही है. नीतीश अपने 3 सी (करप्शन, क्राइम और कम्युनलिज्म) से समझौता नहीं करने के संकल्प को बार-बार दोहराते रहे हैं.

नवीन पटनायक, ममता बनर्जी, ओम प्रकाश चौटाला, सुखबीर सिंह बादल, सीताराम येचुरी समेत कई विपक्षी नेताओं से नीतीश के व्यवहारिक रिश्ते हैं, जो गठबंधन को मजबूत करने में काम आ सकता है.

4. शरद पवार का हिटविकेट होना- नीतीश कुमार से पहले विपक्षी एकता को मजबूत करने की जिम्मेदारी शरद पवार को मिलने की अटकलें थी, लेकिन गौतम अडानी और नरेंद्र मोदी के डिग्री विवाद में जिस तरह से उनकी पार्टी और उनका बयान आया, उससे कई दल असहज है. 

तृणमूल ने तो शरद पवार को अडानी का दोस्त बता दिया था. शरद पवार के हिटविकेट होने के बाद कांग्रेस के पास नीतीश से बेहतर विकल्प नहीं है.

अब किस्सा जॉर्ज फर्नांडिस की, जिन्होंने 24 पार्टियों को जोड़ा
1998 में कांग्रेस के खिलाफ बीजेपी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का ऐलान किया गया. एनडीए में राजनीतिक दलों को जोड़ने की जिम्मेदारी नीतीश कुमार के राजनीतिक गुरू जॉर्ज फर्नांडिस को दी गई.

जॉर्ज ने एआईएडीएमके, तृणमूल कांग्रेस, हरियाणा विकास पार्टी जैसे करीब 16 पार्टियों को साथ लाया. शिवसेना, अकाली दल, जनता दल और बीजेपी मिलाकर 1998 में 20 दलों का यह गठबंधन बना. 

गठबंधन को लोकसभा चुनाव में बहुमत मिला, जिसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने. 13 महीने बाद एआईएडीमके के समर्थन वापस लेने के बाद सरकार गिर गई. 1999 में चुनाव का बिगुल फिर बजा.

जॉर्ज ने इस बार 24 पार्टियों को साथ जोड़ लिया. भारत में यह सबसे अधिक पार्टियों का गठबंधन था. लोकसभा चुनाव में 5 पार्टियों ने डबल अंक में और एक पार्टी ने ट्रिपल अंक में सीटें जीती. एनडीए की यह सरकार 5 सालों तक चली.

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