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Mulayam Singh Birth Anniversary: नेताजी जितने मुलायम नहीं हैं अखिलेश! क्‍या सियासत के अखाड़े में बन पाएंगे पिता जैसे बड़े पहलवान?

Mulayam Singh Yadav: समाजवादी पार्टी संस्थापक मुलायम सिंह यादव 7 बार सांसद, 8 बार विधायक, 1 बार रक्षा मंत्री और 3 बार मुख्यमंत्री रहे थे. उनकी जयंती पर आइये जानते हैं पिता-पित्र की राजनीति में अंतर.

Mulayam Singh Yadav Birth Anniversary Special: समाजवादी पार्टी के दिवंगत संस्थापक और नेताजी (Netaji) के नाम से मशहूर हुए मुलायम सिंह यादव की आज जयंती है. 83 साल की उम्र में पूर्व केंद्रीय मंत्री और सांसद मुलायम सिंह यादव (Mulayam Singh Yadav) का पिछले महीने (10 अक्टूबर) ही निधन हुआ था. नेताजी के दुनिया को अलविदा कहने से खाली हुई मैनपुरी लोकसभा सीट (Mainpuri Lok Sabha Constituency) पर पांच दिसंबर को उपचुनाव (Mainpuri By-Election) होना है. 1996 से यह सीट समाजवादी पार्टी का गढ़ रही है. मुलायम यहां से पांच बार (1996, 2004, 2009, 2014 और 2019 लोकसभा चुनाव में) सांसद चुने गए थे. 

इस सीट पर बादशाहत कायम रखने के लिए समाजवादी पार्टी एड़ी-चोटी का जोर लगा रही है. सीट कहीं खिसके नहीं, इसके लिए सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने अपनी पत्नी डिंपल यादव को ही उम्मीदवार बनाया है. मुलायम सिंह की बहू के तौर पर डिंपल को मतदाताओं की सहानुभूति वोटों के रूप में मिल सकती है लेकिन यह महज उपचुनाव नहीं, नेताजी की तुलना में खुद साबित करने के लिए अखिलेश यादव की अग्निपरीक्षा भी है. मुलायम सिंह यादव की जयंती पर आइये जानते हैं कि अखिलेश अपने पिता के मुकाबले अभी कहां खड़े हैं.

गठबंधन की राजनीति में नेताजी के मुकाबले अखिलेश कहां?

जिंदगी में दोस्त और राजनीति में गठबंधन के एक ही मायने हैं. जितने ज्यादा सहयोगी, उतना बड़ा गठबंधन और सत्ता में टिके रहने की उतनी ज्यादा पावर. किसी पार्टी की राजनीति का स्वास्थ्य उसके गठबंधन की सेहत से मापा जा सकता है. मुलायम सिंह यादव ने गठबंधन की राजनीति से कभी परहेज नहीं किया और जरूरत पड़ी तो अपने विरोधियों से भी हाथ मिला लिया. इससे उन्हें ज्यादा समय तक पार्टी को पोषण देने और सत्ता में बने रहने का अवसर मिला.

BSP से गठबंधन

4 अक्टूबर 1992 को समाजवादी पार्टी की स्थापना करने बाद, 1993 का यूपी विधानसभा चुनाव मुलायम सिंह यादव ने बहुजन समाजवादी पार्टी के साथ लड़ा था. 1992 में बाबरी मस्जिद कांड के बाद 1993 में चुनाव हुए थे. 256 सीटों पर बसपा और 164 सीटों पर समाजवादी पार्टी चुनाव लड़ी थी. नतीजे आने के बाद बसपा ने सपा को बाहर से समर्थन दे दिया था और मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बन गए थे. मायावती के साथ गेस्ट हाउस में सपाई दबंगों की ओर से की गई कथित बदसलूकी के बाद मुलायम-कांशीराम में तल्खी आ गई थी और 2 जून 1995 में बसपा के समर्थन वापस लेने से सरकार गिर गई थी.  

कांशीराम की सलाह पर बनाई पार्टी

कहा जाता है कि समाजवादी पार्टी की स्थापना करने की बसपा संस्थापक कांशीराम ने सलाह दी थी. दरअसल, कांशीराम ने 1988 में बीबीसी को एक इंटरव्यू दिया था, जिसमें कहा था कि मुलायम अगर हाथ मिला लें तो फिर यूपी में कोई दल नहीं टिकेगा. कांशीराम का इंटरव्यू पढ़कर मुलायम उनसे मिलने गए थे. कांशीराम ने नए बनते जातीय समीकरण को समझाते हुए मुलायम को नई पार्टी बनाने की सलाह दी थी. 

जब बीजेपी के समर्थन से सीएम बने मुलायम

5 दिसंबर 1989 को मुलायम सिंह यादव पहली बार मुख्यमंत्री बने थे. तब वह जनता दल की सरकार में सीएम बने थे. उस समय मुलायम लोकदल के यूपी अध्यक्ष थे. लोकदल, जनतादल का हिस्सा बन गया था. चुनाव में जनता दल को 208 सीटें मिली थीं जबकि बीजेपी को 57 सीटें. बीजेपी ने बाहर से समर्थन दिया था और मुलायम सिंह यादव ने सीएम पद की शपथ खाई थी. हालांकि, उनके सीएम बनने के पीछे और राजनीतिक वजहें बताई जाती हैं. 

कल्याण सिंह से दोस्ती

लंबे समय तक बीजेपी नेता रहे दिवंगत पूर्व सीएम कल्याण सिंह से मुलायम की खासी दोस्ती रही. कल्याण सिंह ने बीजेपी से अलग होकर अपनी एक अलग राजनीतिक पार्टी 'राष्ट्रीय क्रांति दल' बनाई थी. 2009 के लोकसभा चुनाव से पहले मुलायम ने कल्याण की इस पार्टी से भी गठबंधन कर लिया था. हालांकि, इसका उन्हें फायदा नहीं मिला था.

कांग्रेस से मिलाया हाथ

18 जुलाई 2006 को तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी अमेरिका यात्रा के दौरान तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश के साथ इंडो-यूएस सिविल न्यूक्लियर एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर किए थे. यह न्यूक्लियर डील वाम दलों को रास नहीं आई और 2008 में सरकार से समर्थन वापसी की घोषणा कर दी. तब कांग्रेस के लिए धुर विरोधी माने जा रहे मुलायम सिंह ने उसे समर्थन देकर सरकार गिरने से बचा ली थी.

समाजवादी पार्टी बीजेपी की धुर विरोधी रही लेकिन मुलायम ने राजनीतिक सुचिता बनाए रखी और यदा कदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ करते हुए उन्हें देखा गया. विरोधी पार्टियों के नेताओं के साथ मेल-मुलाकात मुलायम के लिए आम बात रही. उनकी ये खूबियां, उन्हें दिग्गज बनाती थीं. 

गठबंधन में कमजोर पड़े अखिलेश!

पिता के नक्शेकदम पर अखिलेश यादव ने 2017 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से गठबंधन कर लिया. राहुल से अखिलेश के हाथ मिलाने पर मुलायम सिंह की सहमति नहीं थी. मुलायम सिंह का कहना था कि जब पार्टी अकेले दम पर सक्षम थी तो हाथ नहीं मिलाना चाहिए था. कहा गया कि मुलायम गठबंधन के खिलाफ नहीं थे बल्कि जरूरत पर ऐसा किए जाने के समर्थक थे. समय पर सही कदम उठाना ही अनुभवी राजनेता की निशानी होती है. मुलायम की आशंका के मुताबिक, राहुल-अखिलेश दोस्ती ज्यादा दिन नहीं चली. 2017 के चुनाव नतीजों से सपा-कांग्रेस गठबंधन दरक गया. 

मोदी लहर के खिलाफ अखिलेश-मायावती का गठबंधन

2019 लोकसभा चुनाव में अखिलेश ने मोदी लहर को भेदने के लिए बसपा सुप्रीमो मायावती के साथ मैदान में उतरने से परहेज नहीं किया लेकिन इस गठबंधन का भी उन्हें फायदा नहीं मिला. नतीजों के बाद गठबंधन टूट गया. मुलायम सिंह की ओर से किए गए गठबंधन से सपा को फायदा मिलता रहा लेकिन अखिलेश के ऐसे कदमों से उनकी पार्टी को नुकसान उठाना पड़ा.

महान दल से टूटा नाता

इसी साल 2022 में आठ जून को महान दल के अध्यक्ष केशव देव मौर्य ने समाजवादी पार्टी से गठबंधन तोड़ लिया. मौर्य ने उनकी उपेक्षा का आरोप लगाया था. महान दल ने 2022 के यूपी विधासभा चुनाव के समय ही सपा से गठबंधन किया था. गठबंधन टूटने पर सपा ने महान दल अध्यक्ष केशव देव मौर्य को गिफ्ट की गई फॉर्च्यूनर कार भी वापस मांग ली थी. जून में केशव देव मौर्य ने कार की मरम्मत कराने के बाद उसे सपा को लौटा दिया था. 

सुभासपा ने झाड़ा पल्ला

सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी ने भी सपा से तब गठबंधन तोड़ लिया जब इसी साल हुए राज्यसभा चुनाव में आरएलडी प्रमुख जयंत चौधरी को अखिलेश ने उम्मीदवार बनाया. सुभासपा प्रमुख ओम प्रकाश राजभर ने भी समाजवादी पार्टी पर उपेक्षा करने का आरोप लगाया था. दरअसल, इसी साल हुए विधानसभा चुनाव में आरएलडी ने 38 और सुभासपा ने 16 सीटों पर चुनाव लड़ा था. आरएलडी आठ सीटें जीती थी और सुभासपा के खाते में छह सीटें आई थीं. 

अखिलेश नहीं साध पा रहे MY समीकरण?

मुस्लिम मतदाताओं पर मुलायम सिंह की पकड़ के चलते एक नया टर्म उभरा, जिसे 'MY' समीकरण कहा गया. M यानी मुस्लिम और Y यानी यादव. हालांकि, इस समीकरण के कारण मुलायम पर मुस्लिम ध्रुवीकरण का आरोप लगता रहा. समाजवादी पार्टी कहती आई है कि उत्तर प्रदेश में 19 फीसदी मुस्लिम और 11 फीसदी यादव उसके कोर वोटर हैं. असदुद्दीन ओवैसी के मैदान में कूदने के बाद भी मुलायम सिंह की ओर से बनाए गए इस समीकरण का सपा को 2022 के चुनाव में भी लाभ मिला. सपा ने 47 सीटों से आगे निकलकर 111 सीटें जीतीं तो इस उछाल में मुस्लिम मतदाताओं का भी अहम योगदान माना गया. 

MY समीकरण को साधने की अखिलेश की कोशिश

मुलायम के रहते तो यह समीकरण मजबूत होता रहा लेकिन अब अखिलेश इसे बचाने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं. दरअसल, पश्चिमी यूपी में इमरान मसूद साइकिल से उतरकर हाथी पर सवार हो गए हैं. वहीं, हाल में माफिया अतीक अहमद की पत्नी शाइस्ता परवीन ने मैनपुरी उपचुनाव में डिंपल को उतारने पर सवाल खड़े किए थे. मैनपुरी उपचुनाव के चलते और 2024 के आम चुनाव को लेकर अखिलेश को इस समीकरण के लिए फिक्रमंद माना जा रहा है.

आजम भी वजह

दरअसल, पूर्वांचल के मतदाताओं को साधने के कथित प्रयास में 22 अगस्त 2022 को अखिलेश यादव आजमगढ़ के इटौरा जेल में बाहुबली विधायक रमाकांत यादव से मिलने पहुंचे तो यह सवाल उठा कि वह जेल में बंद आजम खान से मिलने क्यों नहीं गए? यादव बंधू से मुलाकात करने और आजम को नजरअंदाज करने पर अखिलेश पर मुस्लिमों को केवल वोट बैंक के लिए इस्तेमाल करने का आरोप भी लगा. बताया जाता है कि आजम से अखिलेश की बेरुखी ने कई मुस्लिम नेताओं-कार्यकर्ताओं को नाराज कर दिया और कई पार्टी छोड़कर चले गए.

क्या अखिलेश को मुस्लिमों के छिटकने का डर?

चूंकि MY समीकरण से सपा को हमेशा फायदा ही हुआ है क्या अखिलेश इसे आगे साधे रखेंगे. इस पर सवाल उठ रहे हैं. इसकी एक वजह यह भी है कि 2019-20 में सपा ने 57 ब्राह्मण सम्मेलनों का आयोजन किया. रिपोर्ट्स के मुताबिक, 22 जिलों में सपा ने परशुराम की मूर्तियां लगवाईं. पार्टी के इस कदम से अंदाजा लगाया गया कि मुस्लिम वोटरों के छिटकने के डर से सपा ब्राह्मण वोट बैंक सुरक्षित कर रही है.

माफियाछाप ब्रांड से मुक्ति की कोशिश!

मुलायम सिंह यादव पर दागियों के साथ काम करने का आरोप लगता रहा लेकिन अखिलेश यादव ने 2017 के विधानसभा चुनाव के वक्त जाहिर कर दिया था कि उनकी राजनीति में दागियों और बाहुबलियों को जगह नहीं मिलेगी. अतीक अहमद, मुख्तार अंसारी और रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया को अखिलेश की सहानुभूति नहीं मिली.

2022 विधानसभा चुनाव में मुख्तार से किनारा

2022 यूपी विधानसभा चुनाव में बाहुबली मुख्तार अंसारी को मऊ से टिकट ने देकर उनके बेटे अब्बास अंसारी को टिकट दिया गया. अब्बास को सुभासपा ने उम्मीदवार बनाया था. सुभासपा तब सपा के साथ गठबंधन में थी. माना गया कि अखिलेश के इशारे पर ऐसा किया गया क्योंकि वह पार्टी को हर हाल में कथित माफियाछाप ब्रांड से निकालना चाहते हैं.

अतीक अहमद को धकेलने का मामला

यूपी का सीएम रहते हुए अखिलेश यादव ने 28 मई 2016 को कौशांबी में आयोजित योजनाओं के शिलांन्यास के एक कार्यक्रम में अतीक अहमद धकेल दिया था. उनका एक वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें वह अतीक को धकेलते नजर आए थे. इस घटना को इस रूप में भी देखा गया कि अखिलेश राज में बाहुबलियों की जगह नहीं है.

राजा भैया से तल्खी

2022 विधानसभा चुनाव में सपा ने 20 साल बाद कुंडा विधानसभा में राजा भैया के सामने उम्मीदवार उतार दिया. अखिलेश ने गुलशन यादव को उम्मीदवार बनाया था. बताया जाता है कि एक बार मुलायम के जन्मदिन पर राजा भैया की अखिलेश से मुलाकात हुई थी लेकिन अखिलेश ने उन्हें पहचानने से इनकार कर दिया था. पत्रकारों के सवाल पर भी अखिलेश बोल उठे थे- कौन हैं राजा भैया? 2019 में बसपा से सपा का गठबंधन और राज्यसभा चुनाव में राजा भैया का बसपा उम्मीदवार को वोट न देना कुंडा विधायक और अखिलेश के बीच तल्खी का कारण बताया जाता है.

'धरती पुत्र' बनाम सोशल मीडिया सेलेब्रिटी

मुलायम सिंह की छवि एक जमीनी नेता के तौर पर रही और उन्हें 'धरती पुत्र' के नाम से भी पुकारा गया लेकिन अखिलेश यादव सूचनाओं के इस युग में वर्चुअल दुनिया के ज्यादा करीब नजर आते हैं. उनके पिता जहां जमीन पर एक-एक कार्यकर्ता पर पकड़ बनाए रखने का प्रयास करते थे वहीं, अखिलेश का तरीका अलग है, वह भी यही करना चाहते हैं, इसलिए आधुनिक जमाने के बेहद ताकतवर टूल सोशल मीडिया पर खासा फोकस रखते हैं. वह मुखर होकर मुद्दों पर ट्वीट करते हैं और लोगों की पोस्ट शेयर करते हैं. ट्विटर पर अखिलेश के 17.7 मिलियन (एक करोड़ 77 लाख) फॉलोअर्स, फेसबुक पर 7.8 मिलियन (78 लाख) फॉलोअर्स और इंस्टाग्राम पर 908K (नौ लाख आठ हजार) फॉलोअर्स हैं. उनके फॉलोअर्स की संख्या देखकर उन्हें सोशल मीडिया सेलेब्रिटी कहा जा सकता है.

यह भी पढ़ें- Gujarat Election 2022: आदिवासियों पर PM मोदी और राहुल गांधी के अपने-अपने दावे, भारत जोड़ो यात्रा और औकात वाले बयान का भी जिक्र | बड़ी बातें 

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