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Explained: क्यों बगावत की राह पर हैं कांग्रेस के 40 साल पुराने सिपाही भूपेंद्र सिंह हुड्डा

भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने देवीलाल जैसे दिग्गज नेता को हराकर राजनीति में कदम रखा था. हुड्डा इस वक्त राज्य में कांग्रेस के सबसे बड़े नेता हैं.

नई दिल्ली: 'मेरी पार्टी भटक गई है, ये वो पहले वाली कांग्रेस नहीं रही जो हुआ करती थी.' ये शब्द किसी और के नहीं बल्कि दो बार मुख्यमंत्री रह चुके और हरियाणा कांग्रेस के सबसे बड़े नेता भूपेंद्र सिंह हुड्डा के हैं. बागी तेवर दिखा रहे भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने रविवार को रैली में कांग्रेस लीडरशिप को साफ मैसेज देने की कोशिश कि अगर राज्य में पार्टी की कमान पूरी तरह से उनके हाथ में नहीं दी गई तो वह अलग रास्ता चुन सकते हैं. अपने सबसे मुश्किल दौर से गुजर रही कांग्रेस के लिए ये अच्छे संकेत नहीं हैं, क्योंकि दो महीने बाद ही राज्य में विधानसभा चुनाव होने हैं.

दो महीने बाद है हरियाणा में विधानसभा चुनाव

मौजूदा हरियाणा विधानसभा का कार्यकाल अक्टूबर में खत्म हो रहा है. कांग्रेस राज्य में मुख्य विपक्षी पार्टी जरूर है, लेकिन गुटों में बंटी हुई कांग्रेस, बीजेपी को मजबूत टक्कर देने की स्थिति में दिखाई नहीं दे रही है. 2014 में बीजेपी ने पहली बार अपने दम पर राज्य में सरकार बनाई थी. 2014 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की हालत इतनी खराब हुई कि वह मुख्य विपक्षी पार्टी का दर्जा भी हासिल नहीं कर पाई. 2005 से राज्य की सत्ता में रही कांग्रेस के 2014 में 90 में से सिर्फ 15 एमएलए चुनकर आए थे, जबकि इंडियन नेशनल लोकदल 19 विधायकों के साथ राज्य की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी थी. इस साल हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का वोट शेयर तो थोड़ा सा सुधरा, पर भूपेंद्र सिंह हुड्डा, दीपेंद्र हुड्डा, कुमारी शैलजा और अशोक तवंर जैसे दिग्गज नेताओं को हार का सामना करना पड़ा. राज्य की सभी 10 लोकसभा सीटें बीजेपी के खाते में चली गई. करारी हार के बावजूद कांग्रेस हुड्डा और मौजूदा राज्य कांग्रेस अध्यक्ष अशोक तवंर के खेमे में बंटी नज़र आ रही है.

अध्यक्ष पद ही विवाद की असली वजह

राहुल गांधी 2013 में कांग्रेस के उपाध्यक्ष बने थे. राहुल गांधी की नियुक्ति के 3 महीने बाद फरवरी 2014 में उनके करीबी अशोक तवंर को राज्य कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया. राज्य की राजनीति में अशोक तवंर और हुड्डा के संबंध कभी अच्छे नहीं रहे. 2009 में पहली बार सांसद बनने वाले अशोक तवंर 2014 का लोकसभा चुनाव हार गए. 2014 में तवंर की अगुवाई में कांग्रेस महज 1 लोकसभा सीट जीतने में कामयाब हुई. अशोक तवंर 2014 से कांग्रेस अध्यक्ष हैं और उनकी लीडरशिप में कांग्रेस एक भी चुनाव नहीं जीत पाई है. 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले जींद उपचुनाव में रणदीप सुरजेवाला जैसे दिग्गज कांग्रेसी नेता तीसरे नंबर पर रहे. लगातार मिल रही हार की वजह से अशोक तवंर हुड्डा कैंप के निशाने पर हैं और हुड्डा का खेमा चाहता है कि चुनाव पूरी तरह से पूर्व सीएम के नेतृत्व में लड़ा जाए.

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रैली में दिखे बगावती तेवर

रविवार को हुई रैली में हुड्डा बगावती तेवर के साथ नज़र आए. पहले तो हुड्डा ने साफ कर दिया कि वह कश्मीर मुद्दे पर कांग्रेस के स्टैंड के खिलाफ हैं. पार्टी लाइन से अलग हटते हुए हुड्डा ने कहा कि वह इस फैसले पर सरकार के साथ हैं. हुड्डा ने यह भी कहा कि सही फैसलों पर देशहित में सरकार का साथ दिया जाना चाहिए. हुड्डा यहीं नहीं रुके और उन्होंने कहा कि ''यह वो पहले वाली कांग्रेस नहीं रही है मेरी पार्टी अपने रास्ते से भटक चुकी है.'' उन्होंने कहा, ''हमारे परिवार की चार पढ़ियां देश के लिए सेवा करती रही हैं. मैं 40 साल से कांग्रेस का सिपाही हूं, पर अब मुझे सही बात का साथ देने पर ही पार्टी में विरोध का सामना करना पड़ रहा है. कश्मीर पर दी गई मेरी राय पर मेरे साथियों ने ही सवाल उठाएं, लेकिन मैं साफ कर देना चाहता हूं कि देशहित से आगे मेरे लिए कुछ नहीं है.'' बिना कांग्रेसी बैनर के बुलाई गई इस रैली में हु्ड्डा सीएम की दावेदारी का दम भरते दिखे और उन्होंने चुनाव के मद्देनज़र वादों की बौछार भी की. कांग्रेस के 17 में से 13 एमएलए हु्ड्डा के साथ मंच पर मौजूद रहे. इसके अलावा राज्य सरकार के पूर्व मंत्री और पूर्व सांसद भी हुड्डा के साथ खड़े दिखाई दिए. वहीं राज्य कांग्रेस अध्यक्ष अशोक तवंर ने इस रैली को अनुशासनहीनता बताया है और पार्टी हाईकमान से शिकायत की बात कही है.

सामने आ रही थीं अलग पार्टी बनाने की खबरें

रैली से पहले कयास लगाया जा रहा था कि हुड्डा अलग पार्टी बना सकते हैं. लेकिन रिपोर्ट्स में दावा किया जा रहा है कि कांग्रेस हाईकमान से बात होने के बाद उनका रुख नरम हुआ है और इसलिए अभी उन्होंने अलग रास्ता नहीं चुना. वैसे रैली में हुड्डा ने 13 विधायकों समेत 25 सदस्यों की कमेटी बनाने का फैसला किया है. हुड्डा का कहना है कि यह कमेटी जो भी फैसला लेगी उन्हें वह मंजूर होगा. हुड्डा ने तो यह भी कह दिया है कि अगर कमेटी उन्हें राजनीति छोड़ने के लिए कहेगी तो वह राजनीति भी छोड़ देंगे.

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राजनीति में ऐसे बनाई जगह

हुड्डा के पिता रणबीर सिंह हुड्डा स्वतंत्रता सेनानी और पुराने कांग्रेसी रहे हैं. हुड्डा ने भी अपने राजनीति करियर की शुरुआत कांग्रेस से ही की. 1991 के लोकसभा चुनाव में हुड्डा को रोहतक से टिकट मिला और उन्होंने पूर्व उप प्रधानमंत्री देवीलाल को करीब 30 हजार वोट से मात दी. इसके बाद 1996 और 1998 के चुनाव में वो देवीलाल को हराने में कामयाब रहे. 1998 में हुड्डा को राज्य कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया और 2002 में हुड्डा विधानसभा में नेता विपक्ष चुने गए. 2004 में हुड्डा दोबारा से रोहतक से एमपी चुने गए. 2005 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 67 सीटों के साथ जीत दर्ज की. माना जा रहा था कि भजनलाल सीएम बनेंगे, लेकिन आखिरी वक्त में हुड्डा ने बाजी मार ली और पहली बार सीएम बने. 2009 में हुड्डा सत्ता में फिर से वापसी करने में कामयाब रहे.

जाट नेता के तौर पर बना चुके हैं पहचान

हरियाणा में जाटों की करीब 30 प्रतिशत आबादी है. पहले माना जाता था कि राज्य में देवीलाल के बेटे ओमप्रकाश चौटाला की इंडियन नेशनल लोकदल जाटों का प्रतिनिधित्व करती है. लेकिन हुड्डा के सीएम बनने के बाद जाटों का रुझान कांग्रेस की तरफ होने लगा. जाट बाहुल जिलों रोहतक, सोनीपत और झज्जर में हुड्डा ने विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को बड़ी कामयाबी दिलाई. 2013 में ओमप्रकाश चौटाला और अजय चौटाला के जेबीटी घोटाले में जेल में जाने के बाद हुड्डा का कद और बढ़ गया और वह राज्य में जाटों के सबसे बड़े नेता बन गए. 2014 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के 15 विधायक चुने गए जिनमें से 13 हुड्डा के नजदीकी हैं और उन्हीं के इलाके से आते हैं.

खेमेबाजी की शिकार कांग्रेस

हुड्डा के अलावा भी कांग्रेस में कुछ और बड़े नेताओं के खेमे बने हुए हैं. भजनलाल के बेटे कुलदीप बिश्नोई ने 2016 में हरियाणा जनहित कांग्रेस का कांग्रेस में विलय कर लिया था. कुलदीप बिश्नोई खुद को अपने पिता की तरह गैर जाट नेता के तौर पर पेश करते हैं. वहीं पूर्व सीएम बंसीलाल के परिवार भी अलग राह पर ही दिखाई देता है. अशोक तवंर, कुमारी शैलजा और सुरजेवाला जैसे दिग्गज नेता भी अहम मौकों पर खेमेबाजी करते हुए ही नज़र आते हैं. ये सभी नेता खुलेआम एक-दूसरे पर निशाना साधते रहते हैं. इन सभी नेताओं को एक साथ लेकर आना कांग्रेस हाईकमान के लिए किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है.

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राज्य में पहले भी टूट चुकी है कांग्रेस

हुड्डा जो कर रहे हैं वो राज्य कांग्रेस के लिए नया अनुभव नहीं है. 1971 में देवीलाल ने कांग्रेस के अलग होते हुए नई पार्टी बना ली थी. इसके बाद 1991 में दो बार कांग्रेस से सीएम रहे बंसीलाल ने भी कांग्रेस से अलग होने का रास्ता चुना. 2005 में सीएम पद नहीं मिलने के बाद 2007 में भजनलाल ने भी राज्य में अलग पार्टी बना ली थी. हालांकि बंसीलाल और भजनलाल दोनों की पार्टी का बाद में कांग्रेस में विलय हो गया.

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