कलाम से पहले वाजपेयी को मिला था राष्ट्रपति बनने का ऑफर, क्यों अटल ने किया खारिज और आडवाणी को नहीं दी पीएम की कुर्सी?
महाराष्ट्र के तत्कालीन राज्यपाल अलेक्जेंडर वाजपेयी को समझाने की कोशिश कर रहे थे कि उन्हें, जो कि एक ईसाई हैं, को राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाना चाहिए ताकि सोनिया गांधी के पीएम बनने की संभावना नहीं रहे.

भारत के ग्यारहवें राष्ट्रपति उम्मीदवार के लिए एपीजे अब्दुल कलाम के नाम पर विचार करने से पहले भारतीय जनता पार्टी (BJP) के भीतर से यह सुझाव आया था कि अटल बिहारी वाजपेयी राष्ट्रपति पद ग्रहण कर लें और प्रधानमंत्री पद लालकृष्ण आडवाणी को सौंप दें, लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री ने इससे इनकार करते हुए कहा था कि बहुमत के बल पर उनका राष्ट्रपति बनना एक गलत परंपरा की शुरुआत होगी.
प्रधानमंत्री वाजपेयी के मीडिया सलाहकार रहे अशोक टंडन ने ‘प्रभात प्रकाशन' की ओर से प्रकाशित पुस्तक ‘अटल संस्मरण’ में इस प्रकरण का उल्लेख किया है. अब्दुल कलाम 2002 में केंद्र के तत्कालीन सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) और विपक्ष दोनों के समर्थन से 11वें राष्ट्रपति निर्वाचित हुए थे. वह 2007 तक इस पद पर रहे.
अशोक टंडन ने अपनी पुस्तक में खुलासा किया है कि अब्दुल कलाम के नाम पर विचार से पहले कैसे बीजेपी के अंदर से ही यह सुझाव आया था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी को राष्ट्रपति भवन भेजा जाए. वह लिखते हैं, 'डॉ. पी.सी. अलेक्जेंडर महाराष्ट्र के राज्यपाल थे और पीएमओ में एक प्रभावशाली साथी व्यक्तिगत तौर पर अलेक्जेंडर के संपर्क में थे और उन्हें ऐसा संकेत दे रहे थे जैसे वह वाजपेयी के दूत हों. वह सज्जन वाजपेयी को लगातार यह समझाने की कोशिश कर रहे थे कि डॉ. अलेक्जेंडर, जो कि एक ईसाई हैं, को राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाना चाहिए. ऐसा करने से कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी असहज होंगी और भविष्य में उनके प्रधानमंत्री बनने की संभावना नहीं रहेगी, क्योंकि देश में एक ईसाई राष्ट्रपति के रहते एक और ईसाई प्रधानमंत्री नहीं हो सकेगा.'
उनका कहना है कि दूसरी ओर, तत्कालीन उपराष्ट्रपति कृष्णकांत एनडीए के संयोजक और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू और अन्य नेताओं पर अपनी उम्मीदवारी के लिए निर्भर थे. अशोक टंडन ने लिखा है, इसी दौरान बीजेपी के अंदर से स्वर उठने लगे कि क्यों न अपने ही दल से किसी वरिष्ठ नेता को इस पद के लिए चुना जाए. राकेश टंडन के अनुसार, इस बीच पूरा विपक्ष सेवानिवृत्त हो रहे राष्ट्रपति के. आर. नारायणन को एनडीए के उम्मीदवार के खिलाफ खड़ा करने की कोशिश कर रहा था, जिसे उन्होंने ठुकरा दिया. नारायणन की शर्त थी कि वह तब ही चुनाव लड़ने को तैयार होंगे, जब निर्विरोध चुने जा सकेंगे.'
साल 1998 से 2004 तक अटल बिहारी वाजपेयी के मीडिया सलाहकार रहे अशोक टंडन ने लिखा है, कि वाजपेयी ने अपने दल के भीतर से आ रहे उन सुझावों को सिरे से खारिज कर दिया कि वह स्वयं राष्ट्रपति भवन चले जाएं और प्रधानमंत्री पद अपने नंबर दो नेता लालकृष्ण आडवाणी को सौंप दें. अशोक टंडन के अनुसार, 'वाजपेयी इसके लिए तैयार नहीं थे. उनका मत था कि किसी लोकप्रिय प्रधानमंत्री का बहुमत के बल पर राष्ट्रपति बनना भारतीय संसदीय लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं होगा. यह एक बहुत गलत परंपरा की शुरुआत होगी और वे ऐसे किसी कदम का समर्थन करने वाले अंतिम व्यक्ति होंगे.'
अशोक टंडन के मुताबिक, अटल बिहारी वाजपेयी ने मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के नेताओं को आमंत्रित किया, ताकि राष्ट्रपति पद के लिए आम सहमति बनाई जा सके. उन्होंने कहा, 'मुझे याद है कि सोनिया गांधी, प्रणब मुखर्जी और डॉ. मनमोहन सिंह उनसे मिलने आए थे. अटल बिहारी वाजपेयी ने पहली बार आधिकारिक रूप से खुलासा किया कि एनडीए ने राष्ट्रपति चुनाव के लिए डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम को उम्मीदवार बनाने का निर्णय लिया है... बैठक में कुछ क्षणों के लिए सन्नाटा छा गया. फिर सोनिया गांधी ने चुप्पी तोड़ी और कहा कि आपके चयन से हम स्तब्ध हैं, हमारे पास उन्हें समर्थन देने के अलावा कोई विकल्प नहीं है, लेकिन हम आपके प्रस्ताव पर चर्चा करेंगे और निर्णय लेंगे.'
अलेक्जेंडर की आत्मकथा का उल्लेख करते हुए अशोक टंडन ने कहा है कि उन्होंने (अलेक्जेंडर ने) कई लोगों को 2002 में उन्हें राष्ट्रपति न बनने देने के लिए जिम्मेदार ठहराया. उन्होंने कहा, 'कांग्रेस सरकार में केंद्रीय मंत्री रहे के. नटवर सिंह के अनुसार, डॉ. अलेक्जेंडर ने उन्हें और वाजपेयी के प्रधान सचिव और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रजेश मिश्रा को भी इसके लिए दोषी ठहराया.' अशोक टंडन ने इस पुस्तक में अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री रहते हुई अन्य घटनाओं और विभिन्न नेताओं से वाजपेयी के रिश्तों के बारे में भी काफी जानकारी साझा की है.
बीजेपी में बहुप्रचारित अटल-आडवाणी जोड़ी के बारे में उन्होंने लिखा है कि पार्टी में कुछ नीतिगत मसलों पर मतभेद के बावजूद दोनों नेताओं के बीच संबंधों में सार्वजनिक कटुता नहीं आई. अशोक टंडन के मुताबिक, आडवाणी जी ने हमेशा अटलजी को ‘मेरे नेता और प्रेरणास्रोत’ कहा, और वाजपेयी जी ने भी उन्हें ‘अटल साथी’ कहकर संबोधित किया.
अशोक टंडन ने कहा, ;अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की जोड़ी भारतीय राजनीति में सहयोग और संतुलन का प्रतीक रही है. दोनों ने न केवल भाजपा को खड़ा किया, बल्कि सत्ता और संगठन को एक नई दिशा दी. उनकी मित्रता और साझेदारी यह सिखाती है कि जब दो विचारवान, समर्पित और ईमानदार नेता अहंकार नहीं, आदर्शों के साथ चलें, तो राष्ट्र और संगठन दोनों को सफलता मिलती है.'
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