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चारों वेद और छह वेदांगों का प्रकांड विद्वान ही बन सकता है शंकराचार्य, जानिए क्या हैं नियम

शंकराचार्य की हैसियत सनातन धर्म के सबसे बड़े गुरु की होती है. बौद्ध धर्म में दलाईलामा और ईसाई धर्म में पोप इसके समकक्ष माने जाते हैं.

शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का लंबी बीमारी के बाद 11 सितंबर को निधन हो गया. 98 साल की उम्र में गोलोक सिधारने वाले शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती दो पीठों के (द्वारका पीठ और ज्योतिर्मठ पीठ) के शंकराचार्य थे. हमेशा बेबाकी से जीवन जीने वाले स्वरूपानंद सरस्वती के निधन के बाद से भारत में शंकराचार्य की पदवी खाली हो गई है. हालांकि शंकराचार्य की पदवी को दोबारा शुशोभित करने के लिए कवायद शुरू हो गई है.

ऐसे में सबके मन में सवाल उठ रहे हैं कि शंकराचार्य कौन होते हैं? कोई व्यक्ति शंकराचार्य कैसे बनता है? शंकराचार्य बनने की प्रक्रिया क्या होती है? तो आइए जानते हैं कि शंकराचार्य बनने की क्या प्रक्रिया होती है. 

शंकराचार्य कौन और कैसे बनते हैं इसको समझने के लिए हमें इसकी परंपरा और इसके इतिहास को समझना पड़ेगा. दरअसल, ईसा से पूर्व आठवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य ने भारत की चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना की थी. इन चारों मठों में उत्तर के बद्रिकाश्रम का ज्योर्तिमठ, दक्षिण का शृंगेरी मठ, पूर्व में जगन्नाथपुरी का गोवर्धन मठ और पश्चिम में द्वारका का शारदा मठ शामिल है. मठ के प्रमुख को मठाधीश कहा गया. इन मठों के प्रमुखों को ही मठाधीश कहा जाता है और उन्हीं को शंकराचार्य की उपाधी दी जाती है. 

शंकराचार्य बनने की प्रक्रिया और नियम 
आदि शंकराचार्य द्वारा रचित ग्रंथ मठाम्नाय में चारों मठों की व्यवस्था के नियम, सिद्धांत और शंकराचार्य की उपाधि ग्रहण करने के नियम लिखे हुए हैं. मठाम्नाय को महानुशासन भी कहा जाता है. इस ग्रंथ में कुल 73 श्लोक हैं. 

मठाम्नाय ग्रंथ के अनुसार, शंकराचार्य की उपाधि ग्रहण करने के लिए पात्र व्यक्ति का संन्यासी और ब्राह्मण होना जरूरी है. इसके अलावा संन्यासी दंड धारण करने वाला होना चाहिए. अपनी इंद्रियों पर उसका नियंत्रण होना चाहिए और तन-मन से वह पवित्र हो. संन्यासी का वाग्मी होना आवश्यक है यानी वह चारों वेद और छह वेदांगों का वो प्रकांड विद्वान हो और शास्त्रार्थ में निपुणता रखता हो.  

वहीं, इसके साथ ही इन सभी नियमों को धारण करने वाले संन्यासी को वेदांत के विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ भी करना पड़ता है. इसके बाद सनातन धर्म के 13 अखाड़ों के प्रमुख, आचार्य महामंडलेश्वर और संतों की सभा शंकराचार्य के नाम पर सहमति जताती है, जिस पर काशी विद्वत परिषद की मुहर लगाई जाती है.

इन सभी कठिन प्रक्रियाओं के बाद ही संन्यासी शंकराचार्य बन जाता है. इसके बाद शंकराचार्य दसनामी संप्रदाय में से किसी एक संप्रदाय पद्धति की साधना करता है. 

क्या महत्व है शंकराचार्यों का
शंकराचार्य की पदवी सनातन धर्म के सबसे बड़े गुरु की होती है. बौद्ध धर्म में दलाईलामा और ईसाई धर्म में पोप इसके समकक्ष माने जाते हैं. बता दें कि आदि गुरु शंकराचार्य के नाम पर इस पद की परंपरा शुरू हुई थी.

आदि गुरु को जगद्गुरु की उपाधि प्राप्त है, जिसका इस्तेमाल पहले केवल भगवान श्रीकृष्ण के लिए ही किया जाता था. समस्त हिंदू धर्म इन चारों मठों के दायरे में आता है. इसमें विधान यह है कि हिंदुओं को इन्हीं मठों की परंपरा से आए किसी संत को अपना गुरु बनाना होता है.

दो मठों के शंकराचार्य थे स्वामी स्वरूपानंद 
स्वरूपानंद सरस्वती भारत के चार मठों में से दो के शंकराचार्य थे. वह ज्योर्तिमठ के 44वें और शारदा मठ के 79वें शंकराचार्य थे. उनके निधन के बाद अब इन मठों के मठाधीश चुने जाएंगे.  

नए शंकराचार्य घोषित किए जाने पर विवाद
वहीं शंकराचार्य स्वामी स्वरुपानंद सरस्वती के निधन के बाद उनकी वसीयत के आधार पर उनके शिष्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद को शंकराचार्य घोषित किया गया है, जिसको लेकर विवाद हो गया है. अविमुक्तेश्वरानंद को ज्योतिषपीठ का शंकराचार्य घोषित किया गया है, लेकिन सभी सात दशनामी संन्यासी अखाड़ों ने उन्हें ज्योतिषपीठ का शंकराचार्य मानने से इनकार कर दिया है.    

निरंजन अखाड़े के महंत रविंद्रपुरी ने स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद को ज्योतिषपीठ का शंकराचार्य घोषित किए जाने को नियम के खिलाफ बताया. महंत रविंद्रपुरी का कहना है कि जल्द ही सभी संन्यासी अखाड़ों की इस मुद्दे पर बैठक कर नए शंकराचार्य के बारे में कोई फैसला लेंगे.

 मठ क्या होता है?
भारत में मठ सनातन धर्म में धर्म-आध्यात्म की शिक्षा के सबसे बड़े केंद्र या संस्थान कहे जाते हैं. इन मठों में गुरु-शिष्य परंपरा का निर्वहन होता है और शिक्षा भी इसी परंपरा के अनुसार ही दी जाती है. इसके अलावा मठों द्वारा विभिन्न सामाजिक कार्य भी किए जाते हैं. सनातन धर्म की प्रगति के लिए इन मठों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है. 

चारों मठ और उनके मठाधीश 
ज्योतिर्मठ: उत्तराखंड में बद्रीनाथ स्थित ज्योतिर्मठ के अंतर्गत दीक्षा ग्रहण करने वाले संन्यासियों के नाम के बाद 'गिरि', 'पर्वत' और 'सागर' संप्रदाय नाम का विशेषण लगाया जाता है. ज्योतिर्मठ का महावाक्य 'अयमात्मा ब्रह्म' है. इस मठ के पहले मठाधीश त्रोटकाचार्य थे. स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती इसके 44वें मठाधीश बनाए गए थे. अथर्ववेद को इस मठ के अंतर्गत रखा गया है.

श्रृंगेरी मठ 
दक्षिण भारत के चिकमंगलूरु स्थित शृंगेरी मठ के अंतर्गत दीक्षा लेने वाले संन्यासियों के नाम के बाद 'सरस्वती', 'भारती' और 'पुरी' विशेषण लगाए जाते हैं. शृंगेरी मठ का महावाक्य 'अहं ब्रह्मास्मि' है. इस मठ के अन्तर्गत यजुर्वेद को रखा गया है. मठ के पहले मठाधीश आचार्य सुरेश्वराचार्य थे. वर्तमान में स्वामी भारती कृष्णतीर्थ इसके शंकराचार्य हैं जो 36वें मठाधीश हैं.

गोवर्धन मठ
भारत के पूर्वी भाग में गोवर्धन मठ है जो ओडिशा के जगन्नाथ पुरी में स्थित है. इस मठ के अंतर्गत दीक्षा लेने वाले संन्यासियों के नाम के बाद 'वन' और 'आरण्य' विशेषण लगाए जाते हैं. मठ का महावाक्य 'प्रज्ञानं ब्रह्म' है  और 'ऋग्वेद' को इसके अंतर्गत रखा गया है. गोवर्धन मठ के पहले मठाधीश आदि शंकराचार्य के प्रथम शिष्य पद्मपाद चार्य थे. वर्तमान में निश्चलानन्द सरस्वती इस मठ शंकराचार्य हैं जोकि 145वें मठाधीश हैं.

शारदा मठ
देश के पश्चिमी भाग में गुजरात के द्वारका में शारदा मठ स्थित है. इसके अंतर्गत दीक्षा ग्रहण करने वाले संन्यासियों के नाम के बाद 'तीर्थ' और 'आश्रम' विशेषण लगाए जाते हैं. इस मठ का महावाक्य 'तत्त्वमसि' है और 'सामवेद' को इसके अंतर्गत रखा गया है. शारदा मठ के पहले मठाधीश हस्तामलक (पृथ्वीधर) थे. वह आदि शंकराचार्य के चार प्रमुख शिष्यों में से एक थे. स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती को इस मठ का 79वें शंकराचार्य बनाया गया था.

भारत में संतों को सियासत से सीधा लेना देना नहीं होता है लेकिन ये माना जाता है कि संत समाज का भारत की राजनीति में भी गहरा प्रभाव है. संत समाज जिस ओर इशारा करते हैं लोगों का एक बड़ा हिस्सा उस तरफ मुड़ जाता है. प्रचीन काल में चाणक्य जैसे आचार्यों ने अपनी बुद्धि से राजनीति तय करके ये सिद्ध भी किया है. 

 

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