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कॉफी या चाय की पत्ती का टेस्ट कड़वा और चीनी मिठी क्यों होती है, जानिए इसके पीछे का साइंस

चाय की जो पत्ती होती है.वह कड़वी होती है स्वाद में तो वहीं काॅफी भी स्वाद में कड़वी होती है. लेकिन शक्कर मीठी होती है. इनके ऐसे होने के पीछे क्या तथ्य है जिम्मेदार. क्या है इसके पीछे का साइंस.

भारत में करीब 90% लोग दिन में दो बार चाय पीते हैं ऑस्टिन देखा जाए तो महीने में एक भारतीय 26 कप चाय पीता है. तो वहीं 53 प्रतिशत के करीब दिन में एक बार  कॉफी पीते हैं. चाय की जो पत्ती होती है.वह कड़वी होती है स्वाद में तो वहीं काॅफी भी स्वाद में कड़वी होती है. लेकिन शक्कर मीठी होती है. इनके ऐसे होने के पीछे क्या तथ्य है जिम्मेदार. क्या है इसके पीछे का साइंस आइये जानते हैं. 

इसलिए काॅफी और चाय होती है कड़वी 

लोग अक्सर कड़वी चीज खाने से परहेज करते हैं. लेकिन फिर भी काफी कड़वी होती है लोग पीते हैं. लेकिन काफी कड़वी क्यों होती है. इस बारे में आपने कभी सोचा है. चलिए हम आपको बताते हैं. कॉफी में कड़वाहट होने के पीछे जो वजह होती है.  वह है कैफीन. कॉफी बींस के अंदर कुछ मात्रा में कैफीन मौजूद होता है. कैफीन का स्वाद कड़वा होता है. इसके पीछे एक वजह यह भी है कि कॉफ़ी की बींस को खूब भूना जाता है. इससे उसका स्वाद और कड़वा हो जाता है.

कॉफी में मौजूद क्लोरोजेनिक एसिड भी उसकी कड़वाहट का एक कारण है. चाय की पत्तियों का स्वाद भी कड़वा होता है. इसके पीछे जो कारण है वह इसमें मौजूद तत्व है. चाय की पत्तियों में कैटेचिन, पॉलीफ़ेनोलिक कंपाउंड जैसे टैनिन शामिल होते हैं. जिसके चलते यह कड़वी होती हैं. चाय को जितनी देर तक भिगो के रखा जाता है. उसमें उतनी ही टैनिन की मात्रा बढ़ जाती है. और वह उतनी ही कड़वी हो जाती है. 

चीनी इस वजह से मीठी होती है

खाने के बाद कुछ मीठा खाने के शौकीन भारत में कई हैं. मीठे में चीनी का इस्तेमाल होना वाजिब है. क्योंकि अगर चीनी नहीं डाली जाएगी तो मिठाई मीठी ही नहीं होगी. चीनी दो प्रकार से बनती है एक गन्ने से और एक फलों से बनाई जाने वाली. दोनों के अलग-अलग नाम होते हैं. जो गन्ने से बनाई जाती है. उसे सुक्रोज कहते हैं और फलों से बनाई जाने वाली चीनी को फ्रुक्टोज कहते हैं. चीनी का केमिकल स्ट्रक्चर ऐसा होता है. जब हम चीनी या शक्कर खाते हैं. तो हमारी जीभ में मीठे स्वाद की पहचान करने के लिए जो रिसेप्टर होते हैं वो दिमाग को इसे मीठा बताते हैं. 

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About the author नीलेश ओझा

नीलेश ओझा पिछले पांच साल से डिजिटल पत्रकारिता में सक्रिय हैं. उनकी लेखन शैली में तथ्यों की सटीकता और इंसानी नजरिए की गहराई दोनों साथ-साथ चलती हैं.पत्रकारिता उनके लिए महज़ खबरें इकट्ठा करने या तेजी से लिखने का काम नहीं है. वह मानते हैं कि हर स्टोरी के पीछे एक सोच होनी चाहिए.  

कुछ ऐसा जो पाठक को सिर्फ जानकारी न दे बल्कि सोचने के लिए भी मजबूर करे. यही वजह है कि उनकी स्टोरीज़ में भाषा साफ़ होती है.लिखने-पढ़ने का शौक बचपन से रहा है. स्कूल की नोटबुक से शुरू हुआ यह सफर धीरे-धीरे पेशेवर लेखन और पत्रकारिता तक पहुंचा. आज भी उनके लिए लेखन सिर्फ पेशा नहीं है यह खुद को समझने और दुनिया से संवाद करने का ज़रिया है.

पत्रकारिता के अलावा वह साहित्य और समकालीन शायरी से भी गहराई से जुड़े हुए हैं. कभी भीड़ में तो कभी अकेले में ख्यालों को शायरी की शक्ल देते रहते हैं. उनका मानना है कि पत्रकारिता का काम सिर्फ घटनाएं गिनाना नहीं है. बल्कि पाठक को उस तस्वीर के उन हिस्सों तक ले जाना है. जो अक्सर नजरों से छूट जाते हैं.

उन्होंने स्पोर्ट्सविकी, क्रिकेट एडिक्टर, इनशॉर्ट्स और जी हिंदुस्तान जैसे प्रमुख प्लेटफॉर्म्स के साथ काम किया है.

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