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गीली लकड़ी में तो आग नहीं लगती, फिर आग से क्यों जूझ रहे उत्तराखंड के जंगल?

गर्मी आते ही उत्तराखंड के जंगल फिर धधकने लगे हैं. अलग-अलग जिलों से उत्तराखंड में आग लगने के 31 नए मामले सामने आए हैं.

गर्मी का मौसम इंसान से लेकर जानवरों और जंगल के लिए भी बेहद मुश्किल होता है. इस समय इंसान तो उबल ही रहा होता है, लेकिन जंगलों के लिए भी अप्रैल से लेकर जून का महीना ‘फायर सीजन’ कहा जाता है. हालांकि, जंगलों में लगने वाली ये आग पहाड़ी राज्यों में ज्यादा देखने को मिलती है. फिलहाल हर साल की तरह इस साल भी उत्तराखंड के जंगलों का हाल बुरा है. यहां कुछ जिलों में बर्फबारी तो कुछ में कई नदियां बहती हैं, लेकिन कई इलाके ऐसे भी हैं, जो जंगल की आग से जूझ रहे हैं. वैसे तो गीली लकड़ी में आग नहीं लगती, फिर सवाल यह उठता है कि आखिर उत्तराखंड के हरे-भरे जंगल कैसे धधक रहे हैं?

कैसे धधक रहे उत्तराखंड के जंगल?

उत्तराखंड के जंगलों में आग ने विकराल रूप ले लिया है. जिसे बुझाने के लिए हेलिकॉप्टर तक लगाए गए हैं. इससे जीव-जंतुओं और पेड़ों को तो नुकसान पहुंच ही रहा है साथ ही क्षेत्र में तपिश भी बहुत बढ़ रही है. ये आग कई बार इंसानों की भी देन होती है. कुछ समय पहले ही रुद्रप्रयाग में जंगलों को आग के हवाले करने के शौकीन तीन लोगों को पुलिस ने गिरफ्तार किया था.

कैसे लग जाती है उत्तराखंड के जंगलों में आग?

सवाल यह उठता है कि आखिर उत्तराखंड के जंगलों में आग लगती कैसे है? बता दें कि आग लगने के लिए तीन चीजों की जरूरत होती है, ईंधन, ऑक्सीजन और हीट. फिर सवाल जन्म लेता है कि पहाड़ी इलाका होने के साथ ही उत्तराखंड में गंगा जैसी प्रमुख नदी भी बहती है. साथ ही वहां कई जिलों में तो बर्फबारी भी होती है. ऐसे में वहां की लकड़ी गीली होनी चाहिए तो आग लग कैसे जाती है?

उत्तराखंड का अधिकतर जंगल वर्षावन है, लेकिन यहां विदेशी प्रजाति के ऐसे पेड़ भी हैं, जो पेट्रोल का काम करते हैं. सबसे खतरनाक तो चीड़ प्रजाति के पेड़ हैं, जिन्हें पेट्रोल का पेड़ भी कहा जा सकता है. इस पेड़ से लीसा नाम का पदार्थ निकलता है, जो पेट्रोल की तरह आग भड़का सकता है. जब चीड़ के पत्ते पीरुल सूखकर गिरते हैं तो जंगल में आग के लिए ईंधन का काम करते हैं. ये पेड़ ऊंचाई वाले इलाकों यानी ठंडी जगहों में पाए जाते हैं.

आग भड़का देती हैं सागौन की पत्तियां

उत्तराखंड के मैदानी इलाकों में एक और विदेशी पेड़ सागौन भी मिलता है. इस पेड़ की पत्तियां काफी बड़ी होती हैं, जो सूखने के बाद जंगल में आग भड़काने का काम काफी तेजी से करती हैं. यहां तक कि इस पेड़ के नीचे कोई दूसरा पेड़ पनप नहीं पाता. इस पेड़ से खुद वन विभाग भी परेशान है और धीरे-धीरे इसे जंगलों से निकाला जा रहा है. 

लेंटाना हटाने के लिए खर्च होते हैं करोड़ों रुपये

उत्तराखंड के जंगलों में लेंटाना की एक और प्रजाति मिलती है, जिसे हटाने के लिए वन महकमा हर साल करोड़ों रुपये खर्च करता है. इस झाड़ी को फूल का पेड़ समझकर अंग्रेज अपने साथ यहां लाए थे, लेकिन धीरे-धीरे इस झाड़ी ने विकराल रूप ले लिया और उत्तराखंड के पूरे जंगल को अपने कब्जे में ले लिया है. 

जंगलों में अधिकतर चिंगारी मानव निर्मित

उत्तराखंड के जंगलों में अधिकतर चिंगारी मानव निर्मित होती है. जंगल के आस-पास खेतों में पिरुल जलाने से चिंगारी जंगल तक पहुंच जाती है. वहीं, कुछ शरारती तत्व भी जंगल में बीड़ी-सिगरेट वगैरह फेंक देते हैं, जिससे आग भड़क जाती है. सर्दी के सीजन वन विभाग हर साल जंगलों में खुद आग लगाता है, जिससे जंगल में पड़े सूखे हुए पत्ते, चीड़ का पिरुल और लेंटाना-सागौन के पत्ते जल जाएं. वन विभाग ने इस साल यह काम नहीं किया, जिसका खमियाजा अब उत्तराखंड के जंगल भुगत रहे हैं.

पूरे प्रदेश में वनाग्नि की अब तक 998 घटनाएं

उत्तराखंड की बात की जाए तो पूरे प्रदेश में वनाग्नि की अब तक कुल 998 घटनाएं दर्ज की गई हैं. इनकी चपेट में आने से कुल 1316.12 हेक्टेयर जंगल प्रभावित हुआ है. जंगल में जान बूझकर आग लगाने वालों के खिलाफ अब तक 389 मामले दर्ज किए गए हैं, जिनमें 329 अज्ञात व 60 नामजद मामले शामिल हैं.

कौन है जिम्मेदार?

इन बदलावों के लिए वहां के क्लाइमेट चेंज को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है. SoFR, 2021 ने भी गलोबल फॉरेस्ट रिसोर्सेज असेस्मेंट 2020 हवाला देते हुए जलवायु परिवर्तन और जंगल की आग के बीच संबंध को स्वीकारा है.

यह भी पढ़ें: नकली मसालों में मिला लकड़ी-केमिकल और एसिड, जानें और किन-किन चीजों की होती है मिलावट?

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