IRCTC Case: अदालत में क्या होता है आरोप तय होने का मतलब, लालू परिवार के साथ आगे क्या होगा? जानें इसका कानूनी मतलब
IRCTC Scam Case: लालू यादव, राबड़ी देवी और उनके बेटे तेजस्वी यादव के खिलाफ लैंड फॉर जॉब स्कैम केस में आरोप तय कर दिए हैं. चलिए जानते हैं इसका कानूनी मतलब क्या है?

दिल्ली की राउज एवेन्यू कोर्ट से लैंड फॉर जॉब स्कैम मामले में लालू परिवार को बड़ा झटका लगा है. राउज एवेन्यू की सीबीआई अदालत ने लालू यादव, राबड़ी देवी और उनके बेटे तेजस्वी यादव के खिलाफ आरोप तय कर दिए हैं. इन लोगों पर IPC 420, IPC 120B, प्रीवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट की धारा 13(2) और 13 (1)(d) के तहत मुकदमा चलाया जाएगा. ऐसे में बहुत से लोग यह जानना चाहते हैं कि अदालत में आरोप तय होना क्या होता है, इसका कानूनी मतलब क्या है और अब लालू परिवार के साथ आगे क्या होगा? चलिए जानते हैं...
क्या है आरोप तय करने का सीधा मतलब?
अदालती जुबान में इसका साधारण और सीधा मतलब यह होता है कि किसी क्रिमिनल केस या भ्रष्टाचार के मामले में पुलिस या उचित जांच एजेंसी ने अपनी जांच पड़ताल पूरी कर ली है और उसने अपनी रिपोर्ट अदालत को सुपुर्द कर दी है. इसे आम भाषा में चार्जशीट फाइल करना भी कहते हैं. इसके आगे की कड़ी होती है फ्रेमिंग ऑफ चार्ज की. इस दौरान सुपुर्द की गई रिपोर्ट को जज देखता है, अपने विवेक से समझता और उस पर फैसला करता है. इस कड़ी में जज आरोपी को अदालत में पेश होने का आदेश जारी करता है. अदालत आरोपी से कहती है कि आपके खिलाफ ये-ये आरोप लगाए गए हैं, क्या आप इसे कबूल करते हैं? अगर मुल्जिम इसे कबूल कर लेता है तो फिर अदालत का काम सिर्फ आरोपी को सजा देने का रह जाता है.
अगर आरोपी इनकार कर दे तो?
अदालत जब आरोप तय करती है तो आरोपी को पूरा मौका दिया जाता है. अगर वह आरोप कबूल करने से इनकार कर देता है तो इसका सीधा मतलब होता है कि आरोपी ट्रायल फेस करना चाहता है, यानी अदालती कार्यवाही का सामना करना और अपना पक्ष भी रखना चाहता है. इसमें मौटे तौर पर चार स्टेज होते हैं. इसके बाद गवाही की प्रक्रिया शुरू होती है. सबसे पहले प्रोसेक्युशन(अभियोजन) पक्ष की गवाही होती है, उसके बाद डिफेन्स पक्ष की, फिर बहस और फैसला.
क्या धाराएं घट-बढ़ भी सकती हैं?
इसी स्टेज पर आरोपी पर लगाए गए चार्ज पर बचाव पक्ष के वकील और अभियोजन पक्ष के वकील अपनी बात रखते हैं. जज को यदि लगता है कि जांच एजेंसी ने आरोप तय करने में बेईमानी की है तो वह फिर से जांच के भी आदेश दे सकता है और गलत धाराओं को हटा भी सकता है. वहीं, अगर पुलिस ने केस को हल्का किया है तो वह अलग से नई धाराओं को जुड़वा भी सकता है.
यह खबर दिल्ली हाईकोर्ट के एडवोकेट लालू बाबू ललित से बातचीत पर आधारित है.
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