मंदिर से उड़ा दिया माता का मुकुट, जानें इस तरह की चोरी करने पर क्या मिलती है सजा?
BangladeshTemple Crown Theft: बांग्लादेश में सतखीरा के श्यामनगर में जेशोरेश्वरी मंदिर से काली माता का मुकुट चोरी हो गया है. ऐसे में चलिए जानते हैं कि इस तरह के कृत्य की क्या सजा होती है.
बांग्लादेश में पिछले कुछ समय से हालात ठीक नहीं हैं. इसी बीच वहां हिंदुओं को परेशान करने के कई मामले सामने आए हैं. वहीं नवरात्र के दौरान हिंदुओं को बांग्लादेश की नई अंतरिम सरकार से सुरक्षा का आश्वासन ही मिला है. इसी बीच खबर आई है कि बाग्ंलादेश के हिंदू मंदिर से देवी जी का मुकुट चोरी हो गया है. ये मुकुट प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साल 2021 में अपनी बांग्लादेश की यात्रा के दौरान भेंट किया था. ऐसे में चलिए जानते हैं कि आखिर इस तरह की चोरी करने पर क्या सजा मिलती है.
बांग्लादेश में मंदिर में मुकुट चोरी होने से हड़कंप
बांग्लादेश में मंदिरों की सुरक्षा हमेशा से एक महत्वपूर्ण मुद्दा रहा है। हाल की घटना में एक मंदिर से माता का मुकुट चोरी कर लिया गया, जिसे धार्मिक आस्था का प्रतीक माना जाता है. चोरों ने न केवल मुकुट चुराया, बल्कि मंदिर की शांति और श्रद्धा को भी भंग किया। इस घटना ने स्थानीय निवासियों को चिंतित किया, इस मामले पर पुलिस कार्रवाई कर रही है.
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बांग्लादेश में चोरी की क्या मिलती है सजा?
बांग्लादेश में चोरी और डकैती के मामलों पर कठोर कानून हैं. हालांकि किसी भी तरह की चोरी के लिए सजा, चोरी कहां की गई है उसपर निर्भर करती है. भारत में आमतौर पर चोरी की सजा तीन साल होती है. वहीं बांग्लादेश में कानून अलग है और वहां कानून के अनुसार आरोपी को सजा मिल सकती है. वहीं जब चोरी किसी धार्मिक स्थल से होती है, तो इसे विशेष रूप से गंभीर अपराध माना जाता है. बांग्लादेश में ऐसे मामलों में सजा और भी कठोर हो सकती है. यदि आरोपी को यह साबित करना पड़े कि उसने धार्मिक स्थल से चोरी की, तो इसे साम्प्रदायिक तनाव को बढ़ावा देने के रूप में देखा जा सकता है.
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जेशोरेश्वरी मंदिर की खासियत क्या है?
बांग्लादेश के जेशोरेश्वरी मंदिर की बात करें तो ये सतखीरा के श्याम नगर के ईश्वरीपुर गांव में स्थित है. सतखीरा में मौजूद जेशोरेश्वरी काली मंदिर 51 शक्तिपीठों में से एक है. ये मंदिर भारत और पड़ोसी देशों में अलग-अलग जगहों पर फैले हुए हैं. मंदिर के निर्माण के इतिहास पर नजर डालें तो इसके अनुसार इस मंदिर को 12वीं शताब्दी में अनारी नाम के एक ब्राम्हण ने बनवाया था.
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