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Bihar Caste Census: बिहार में जातीय जनगणना पर अंतरिम रोक, आखिर कैसे बिगड़ सकता है नीतीश कुमार का सियासी खेल

Bihar Caste Census: जातीय जनगणना पर केंद्र सरकार को चुनौती देने वाले नीतीश कुमार का कहना है कि ये उनकी कोई नई मांग नहीं है, इसके लिए वो पिछले कई सालों से आवाज उठाते आए हैं.

Bihar Caste Census: बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को पटना हाईकोर्ट से बड़ा झटका लगा है, हाईकोर्ट ने नीतीश कुमार के सबसे बड़े जातीय जनगणना वाले दांव पर ही रोक लगा दी है. बिहार में जातीय जनगणना पर 3 जुलाई तक अंतरिम रोक लगा दी गई है. इसे नीतीश कुमार की ओबीसी पॉलिटिक्स को एक बड़े झटके के तौर पर देखा जा रहा है. नीतीश कुमार बिहार में जातीय जनगणना को लेकर लगातार मुखर रहे और आखिरकार उन्होंने इसके आदेश जारी किए. इसे नीतीश की बड़ी राजनीतिक चाल के तौर पर देखा जा रहा था, लेकिन अब कोर्ट की तरफ से रोक लगाने का फैसला नीतीश का खेल कैसे बिगाड़ सकता है आइए समझते हैं. 

जातीय जनगणना पर मुखर नीतीश कुमार
बिहार में बीजेपी के साथ गठबंधन कर सरकार बनाने वाले नीतीश कुमार लगातार जातीय जनगणना को लेकर बयानबाजी कर रहे थे. बीजेपी के साथ रहते हुए वो केंद्र सरकार पर लगातार राष्ट्रीय स्तर पर जातीय जनगणना का दबाव बनाते रहे, लेकिन केंद्र सरकार की तरफ से आम जनगणना के साथ जातीय जनगणना कराने से इनकार कर दिया गया. इसके बाद नीतीश के बीजेपी से रिश्ते बिगड़े और उन्होंने गठबंधन तोड़कर आरजेडी के साथ मिलकर सरकार बना दी. 

पूरे बिहार में हुआ जातीय सर्वेक्षण 
जातीय जनगणना के मुद्दे पर आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने भी नीतीश कुमार के साथ सुर मिलाए और इसका स्वागत किया. आखिरकार इसे जेडीयू-आरजेडी गठबंधन वाली सरकार ने हरी झंडी दिखाई और इस साल जनवरी में जातीय सर्वेक्षण का पहला चरण शुरू हुआ. पहले चरण में घरों की गिनती और दूसरे चरण में जाति संबंधी जानकारी इकट्ठा की जानी थी. जनगणना का पहला चरण जनवरी में ही खत्म हो चुका था और दूसरा चरण भी लगभग पूरा हो चुका है. इस पूरे सर्वेक्षण में 500 करोड़ रुपये का खर्च आया है. 

जनगणना पर नीतीश कुमार का तर्क
जातीय जनगणना पर केंद्र सरकार को चुनौती देने वाले नीतीश कुमार का कहना है कि ये उनकी कोई नई मांग नहीं है, इसके लिए वो पिछले कई सालों से आवाज उठाते आए हैं. उन्होंने कहा, "हम लोगों की शुरू से ये मांग रही है कि पूरे देश में जाति आधारित जनगणना होनी चाहिए. सब लोगों के बारे में जानकारी होनी चाहिए कि किस जाति के लोग हैं और उनकी क्या स्थिति है. जिसके बाद उनके सुधार और विकास के लिए काम हो सकते हैं. इससे पिछड़े और अति पिछड़े वर्ग को बड़ा फायदा होगा." नीतीश का कहना है कि इसे लेकर उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी मुलाकात की, लेकिन बाद में उन्होंने साफ कर दिया कि वो जातिगत जनगणना नहीं करने जा रहे हैं. नीतीश ने कहा कि राज्य जनगणना नहीं कर सकता है, इसलिए हम जाति आधारित गणना कर रहे हैं. 

जातीय जनगणना का क्या होगा फायदा?
बिहार में नीतीश कुमार लगातार जातीय जनगणना को लेकर इतने मुखर क्यों रहे और उन्होंने खुद क्यों इस सर्वेक्षण को कराने का फैसला लिया, अब इसका जवाब आपको बताते हैं. दरअसल नीतीश की पार्टी जेडीयू की राजनीति पिछले कई सालों से जाति आधारित है. यानी पिछड़ी और अन्य जातियों के सहारे हर बार नीतीश कुमार सत्ता तक पहुंचे. नीतीश के अलावा आरजेडी और बाकी क्षेत्रीय दल भी इसी वोट बैंक के सहारे टिके हुए हैं. अब ऐसे में जातीय जनगणना के बाद राज्य में उनकी स्थिति मजबूत होगी. कई जातियों के आंकड़े सरकार के पास होंगे और वो उस हिसाब से वोट बैंक को टारगेट कर सकती है. जनगणना के आंकड़े आने के बाद बिहार सरकार ओबीसी के लिए आरक्षण बढ़ाने की मांग कर सकती है और आने वाले कई सालों तक इस मुद्दे को गरम रखकर राजनीतिक रोटियां सेक सकती है. 

नीतीश के मिशन 2024 पर असर 
अब हमने आपको बताया कि कैसे बिहार में जातीय जनगणना का नीतीश कुमार समेत उनके तमाम सहयोगी दलों को चुनावी फायदा होगा, लेकिन इस मुद्दे पर नीतीश कुमार लोकसभा चुनाव में मोदी सरकार को भी घेरने की तैयारी में हैं. अब अगर हाईकोर्ट की तरफ से लगाई गई अंतरिम रोक आगे भी जारी रही तो ये नीतीश के लिए वाकई एक बड़ा झटका साबित होगा, यानी नीतीश इस पर पूरी तरह से नहीं खेल पाएंगे. 

जातीय जनगणना से इनकार के बाद नीतीश लगातार मोदी सरकार को घेर रहे हैं, इसके बाद उन्होंने खुद इस सर्वेक्षण को कराने का फैसला लिया और ये लगभग पूरा भी हो चुका है. अब अगर ये आंकड़े जारी हो जाते हैं तो केंद्र सरकार के सामने नीतीश एक बड़ी चुनौती खड़ी कर सकते हैं. नीतीश खुद कह चुके हैं कि वो इस सर्वेक्षण के आंकड़े केंद्र सरकार को भी सौंपेंगे और बिहार में जातीय स्थिति बताएंगे. 
यानी केंद्र सरकार पर आंकड़े जारी होने के बाद इस बात का दबाव होगा कि वो बिहार में पिछड़े और अति पिछड़े वर्ग के लिए योजनाएं बनाए. इसके लिए नीतीश, तेजस्वी समेत तमाम नेता सरकार को घेरते रहेंगे, वहीं दूसरी तरफ अपने हकों की मांग के लिए ओबीसी आंदोलन भी खड़ा हो सकता है. यानी जातीय जनगणना को नीतीश और उनके साथी केंद्र के खिलाफ एक टूल की तरह इस्तेमाल कर सकते हैं. इसके अलावा बाकी राज्य भी इसे लेकर फैसला ले सकते हैं. 

बिहार में जातियों का जंजाल
देश के तमाम राज्यों में से बिहार ऐसा राज्य है, जहां पर जातियों को लेकर काफी ज्यादा राजनीति होती है. यहां आरजेडी, जेडीयू जैसे क्षेत्रीय दल इस राजनीति से उभरकर राज्य की सत्ता तक पहुंचे. हर बार सरकारों ने सामाजिक न्याय देने की बात कही, लेकिन हालात कभी भी नहीं सुधर पाए. दलित ऊपर बढ़ने की बजाय महादलित होते गए. नीतीश कुमार ने 2005 में सत्ता में आते ही बिहार में एक नया समीकरण साधने की शुरुआत की. उन्होंने दलित वोटों को साधने के लिए पासवान को छोड़कर बाकी सभी दलित वर्गों को महादलित में रख दिया. इसके बाद 2018 में पासवान समाज को भी महादलितों में शामिल कर दिया गया. 

ओबीसी इतने जरूरी क्यों?
बिहार में ओबीसी नीतीश कुमार के लिए काफी जरूरी हैं, इसीलिए वो जातीय जनगणना से उन्हें लुभाने की कोशिश कर रहे हैं. वो दिखाना चाहते हैं कि उनकी पार्टी ओबीसी समुदाय की कितनी हितैषी है और वो उनके विकास के लिए सैकड़ों करोड़ खर्च कर जातीय सर्वेक्षण करवा रहे हैं. बिहार में ओबीसी और ईबीसी यानी अति पिछड़ा वर्ग की आबादी करीब 50 फीसदी है. यानी इन दोनों वर्गों में आने वाली तमाम जातियों को लुभाना जीत की दहलीज तक पहुंचने जैसा है, वही नीतीश कुमार पिछले कई सालों से कर रहे हैं. 

क्या है जातीय समीकरण 
बिहार में करीब 150 जातियों के लोग रहते हैं. आज राज्य में तीन बड़े वर्गों में जातियों को बांटकर देखा जाता है. जिनमें सर्वण, ओबीसी और महादलित शामिल हैं. इनमें यादव, भूमिहार और राजपूतों का चुनाव में सबसे ज्यादा दबदबा रहता है. बिहार में सवर्ण जातियों की बात करें तो वो भूमिहार, यादव, राजपूत, ब्राह्मण और कायस्थ आदि इसमें आते हैं. वहीं करीब 22 जातियां ऐसी हैं, जिन्हें महादलित वर्ग में शामिल किया गया है. मुस्लिमों की बात करें तो यहां इस समुदाय को भी कई अलग-अलग जातियों में बांटा गया है. राज्य सरकार के मुताबिक मुस्लिमों की 25 से ज्यादा जातियां ओबीसी में आती हैं. इसमें पसमांदा मुस्लिमों यानी पिछड़े हुए मुसलमानों की संख्या सबसे ज्यादा है. बिहार में कुल मुस्लिम आबादी करीब 17 फीसदी है. 

ये भी पढ़ें - जंतर-मंतर पर झड़प से पहलवानों के प्रदर्शन को मिलेगी ताकत? किसान आंदोलन की तरह भड़क सकती है चिंगारी

मुकेश बौड़ाई पिछले 7 साल से पत्रकारिता में काम कर रहे हैं. जिसमें रिपोर्टिंग और डेस्क वर्क शामिल है. नवभारत टाइम्स, एनडीटीवी, दैनिक भास्कर और द क्विंट जैसे संस्थानों में काम कर चुके हैं. फिलहाल एबीपी न्यूज़ वेबसाइट में बतौर चीफ कॉपी एडिटर काम कर रहे हैं.
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