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दशकों का इंतजार खत्म, कैबिनेट की मंजूरी के बाद विशेष सत्र में महिला आरक्षण बिल पर लगेगी मुहर, ऐतिहासिक होगा यह पल

अभी संसद का विशेष सत्र चल रहा है. इसी दौरान सोमवार यानी 18 सितंबर को कैबिनेट की मीटिंग हुई और उसके बाद चर्चा हुई कि सरकार बुधवार 20 सितंबर को महिला आरक्षण बिल पेश करने जा रही है. संसदीय कार्यमंत्री प्रह्लाद पटेल ने भी इस बाबत एक्स पर एक ट्वीट किया, लेकिन एक घंटे में ही उसे हटा भी लिया. महिला आरक्षण बिल एक संविधान संशोधन विधेयक है, जो भारत में लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण देने की बात करता है. भारत में, फिलहाल महिलाओं की लोकसभा में भागीदारी केवल 14.5% है.  महिला आरक्षण बिल के समर्थकों का तर्क है कि यह महिलाओं के सशक्तिकरण और समानता के लिए एक महत्वपूर्ण कदम होगा. वैसे, 2010 में यह बिल राज्यसभा में पारित हो चुका है, लेकिन तत्कालीन सरकार ने फिर इसे लोकसभा में पेश नहीं किया.  

काफी समय से लंबित मांग पूरी हुई

महिला आरक्षण बिल को कैबिनेट ने मंजूरी दे दी है औऱ यह बुधवार 20 सितंबर को सदन में रखा भी जाएगा. यह सचमुच एक ऐतिहासिक फैसला है. महिलाओं के तीन दशकों के संघर्ष की प्राप्ति है, जिसकी मांग लगातार महिलाओं की तरफ से की जा रही थी. राजनीतिक दल भी लगातार वायदा कर तो रहे थे, लेकिन कोई भी पार्टी इसे पूरा नहीं कर रही थी. अगर बात महिलाओं की राजनैतिक भूमिका की करें तो आजादी की पूर्व संध्या पर जब संसद बनी थी, तो उसमें 3 फीसदी महिलाएं आयी थीं. आज आजादी के 75वें साल में 14 फीसदी महिलाएं संसद में मौजूद हैं. ये अपने आप में लोकतंत्र में रह रही, वोट की ताकत रहनेवाली महिलाओं की ताकत को दिखाता है. महिलाएं पुरुषों से अधिक वोट देती हैं, यह भी एक खुली हुई बात है. पंचायत में महिलाएं काफी अधिक संख्या में चुन कर आ रही हैं, क्योंकि उनकी महत्वाकांक्षा और इच्छाएं बढ़ी हैं. आज हम इस फैसले का स्वागत करते हैं. देश के विभिन्न कोनों से महिला संगठनों के मेरे पास फोन आ रहे हैं, जब मैं अमेरिका में हूं. उनकी खुशी और उत्साह को समझा जा सकता है, क्योंकि यह काफी लंबे समय से लंबित मांग का पूरा होना है.

महिला आरक्षण लागू हो, बाकी बातें सुलझ जाएंगी

महिलाओं को आरक्षण मिलना चाहिए, यह बहुत महत्वपूर्ण है. पहला कदम तो यही है. जो महिलाएं दलित समाज से हैं, ओबीसी समाज से हैं, मुस्लिम समाज से हैं, ये काफी गरीब और पिछड़ी हैं, इस बात का स्वीकार करना होगा. महिला संगठनों की तरफ से यह बात इस विधेयक में जोड़ने को कही भी गयी है. राजनीति में तो टिकट राजनीतिक दल उसी को देते हैं, जहां से उन्हें जीतने की उम्मीद होती है. अगर वहां यादव बाहुल्य है तो यादव को टिकट देंगे, जहां मुस्लिम बाहुल्य है वहां से मुस्लिम को ही दिया जाएगा. तो, अगर यादव पुरुष या मुस्लिम पुरुष लड़ सकता है तो वहां से यादव या मुस्लिम महिला भी लड़ सकती है. यह फैसला तो राजनीतिक दलों को करना पड़ेगा. जो जरूरी बात है, वह ये है कि महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण दिया जाए, यानी संसद में कम से कम 33 फीसदी महिलाएं पहुंचें. बाकी जो प्रक्रिया की बात है, राजनीतिक ताना-बाना जो है, वह तो बाद की बात है, वे तो राजनीतिक दल करेंगे ही. हमने तो उसमें कभी यह नहीं कहा कि दलितों, ओबीसी जैसे वर्गों को आरक्षण नहीं मिलना चाहिए. खास तौर से जो दलित हैं, पिछड़े हैं, आदिवासी महिलाएं हैं, जो मुस्लिम संप्रदाय की महिलाएं हैं, उनकी भागीदारी सबसे अधिक बढ़े. पहला कदम महिला आरक्षण का है, बाकी बातें तो होती रहेंगी.

लंबा चला है संघर्ष

देखिए, बिल का इतिहास अगर देखें तो सबसे पहले प्रमिला दंडवते जी प्राइवेट मेंबर बिल लायी थीं. उसके बाद उसकी चर्चा के समय ही यह तय हुआ कि सरकार खुद इस तरह का बिल लाएगी. उसके बाद गीता मुखर्जी की अध्यक्षता में एक कमिटी बनी, जिसमें बहुतेरी सांसद महिलाएं थीं, उसमें प्रमिला जी भी थीं. वे पूरे देश में गए. पूरे देश की महिलाओं से बात हुई और फिर यह बिल ड्राफ्ट हुआ. कुछ उसमें संशोधन भी लाए गए. वह पारित लेकिन नहीं हो पा रहा था. आज तक संसद में कोई बिल फाड़ा नहीं गया, लेकिन महिला आरक्षण बिल को यह भी देखना पड़ा.

समझ लीजिए कि जब 2010 में संसद में यह पेश हुआ तो हमलोग भी महिला संगठनों की तरफ से संसद की दर्शक दीर्घा में मौजूद थे. हमने देखा है किस तरह आरजेडी और सपा के सांसद आगे आ गए और उन्होंने किस तरह का हंगामा किया, कहा कि वे लोग रात भर वहीं बैठेंगे, लेकिन बिल को पारित नहीं होने देंगे, यह लोकतंत्र के खिलाफ है इत्यादि. मनमोहन सिंह स्वयं बैठे रहे सदन के भीतर, फिर सोनिया गांधी आयीं और वह बिल तब पारित हो पाया. हालांकि, यह भी एक कमाल की बात है कि जिस पार्टी ने राज्यसभा में वह बिल पारित करवा लिया, वही दल लोकसभा में उस बिल को टेबल तक करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया. तो, ऐसे में उस बिल का कोई भविष्य तो रहा नहीं. अब नयी सरकार है, उनके अपने मानक हैं, तो उन्होंने अपने हिसाब से ही बिल बनाया होगा. हां, यह सकारत्मक कदम है और जो भी हो, संशोधन लाएं या जैसे भी करें लेकिन संसद में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण दें, यह महत्वपूर्ण है.

कांग्रेस नहीं कर सकती है विरोध

यह स्वागत योग्य बात है कि बिल का कांग्रेस सहित कई दलों ने समर्थन किया है. कांग्रेस तो वैसे भी विरोध कैसे कर सकती है. पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के समय महिलाओं को पंचायती राज व्यवस्था में आरक्षण दिया गया था. उसी समय बात हुई थी कि संसद में और विधायिका में भी आरक्षण दिया जाए. दक्षिण के कई दल भी साथ ही हैं. कविता जी ने तो अनशन भी किया था. रैलियों, रास्ता रोको से लेकर न जाने महिला संगठनों ने कौन-कौन से जतन किए, दिल्ली से कन्याकुमारी तक की यात्रा हुई, तब जाकर ये दिन आया है कि इतने संघर्ष के बाद यह बिल पेश होने को आया है. लोकतंत्र का तकाजा भी यही है कि महिलाओं को कम से कम 33 फीसदी तो दें, बाकी तो बाद की प्रक्रियागत बातें हैं, वे देख ली जाएंगी.

जो महिलाएं हैं, वो पुरुषों से अधिक वोट देती हैं. ये तो आंकड़े बता रहे हैं. चाहे नीतीश कुमार की बिहार में सरकार हो, या केंद्र में मोदीजी की सरकार हो, महिलाओं ने अधिक संख्या में वोट दिया है, यह सिद्ध है. जहां तक राजनीति और अगले चुनाव की बात है, तो अगर भाजपा ने यह कर दिया तो उसे महिलाओं का समर्थन तो मिलेगा औऱ हो सकता है कि इस पर नजर भी हो. उस समय कांग्रेस करती तो उसको श्रेय मिलता और आज अगर भाजपा करती है तो नरेंद्र मोदी को श्रेय मिलेगा ही, जैसे राजीव गांधी को पंचायती राज संस्थानों में आरक्षण का श्रेय मिला था. जी20 में जो महिला नेतृत्व में विकास पर जो बात हुई, उसका अगर यह परिणाम निकलता है, तो भारत से पूरी दुनिया भी सीख सकती है और भारत इसका श्रेय ले भी सकता है.

बाद में जो भी राजनीति हो, अभी तो यह बिल जब टेबल हो, जितने भी दल इसके समर्थन में हों, यह स्वागत योग्य है और इसके पारित होने पर पूरे देश को जश्न मनाना चाहिए. जो भी दल महिलाओं के साथ खड़ा नहीं होगा, उसके साथ महिलाएं भी नहीं जाएंगी.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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