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लोकसभा चुनाव परिणाम 2024

UTTAR PRADESH (80)
43
INDIA
36
NDA
01
OTH
MAHARASHTRA (48)
30
INDIA
17
NDA
01
OTH
WEST BENGAL (42)
29
TMC
12
BJP
01
INC
BIHAR (40)
30
NDA
09
INDIA
01
OTH
TAMIL NADU (39)
39
DMK+
00
AIADMK+
00
BJP+
00
NTK
KARNATAKA (28)
19
NDA
09
INC
00
OTH
MADHYA PRADESH (29)
29
BJP
00
INDIA
00
OTH
RAJASTHAN (25)
14
BJP
11
INDIA
00
OTH
DELHI (07)
07
NDA
00
INDIA
00
OTH
HARYANA (10)
05
INDIA
05
BJP
00
OTH
GUJARAT (26)
25
BJP
01
INDIA
00
OTH
(Source: ECI / CVoter)

कांग्रेस से दूरी अखिलेश की मजबूरी, मुस्लिम वोटों में नहीं होने देना चाहते हैं कोई हेराफेरी

उत्तर प्रदेश में लोकसभा का 80 सीट है जहां पर अभी भाजपा का राजनीतिक प्रभुत्व है. प्रधानमंत्री भी उसी प्रदेश से आते हैं. ऐसे तो पूरा देश ही महत्वपूर्ण है लेकिन यूपी सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रदेश है. पिछले विधानसभा चुनाव में जिस तरह से समाजवादी पार्टी का उत्थान हुआ वो भले ही सत्ता से दूर रह गई है लेकिन उसका प्रदर्शन शानदार रहा..अब 2024 का लोकसभा की तैयारी चल रही है लेकिन सपा और बसपा दोनों ने ही यह ऐलान किया है कि वो कांग्रेस के साथ नहीं जाएंगे. वो अकेले चुनाव लड़ेंगे और यूपी में पिछले कई चुनाव में ये देखा गया है कि समाजवादी वादी पार्टी सोनिया और राहुल के लिए रायबरेली और अमेठी की सीट छोड़ देती थी लेकिन अब तो अखिलेश यादव ने स्पष्ट तौर पर कह दिया है कि वो इन सीटों पर भी अपने प्रत्याशी देंगे. लेकिन कांग्रेस आज भी भाजपा के विपरीत एक मुख्य विपक्षी पार्टी है. लेकिन लोकसभा के चुनाव के मद्देनजर कांग्रेस में कोई पीएम पद का चेहरा नजर नहीं आता है.

जहां तक समाजवादी पार्टी और यूपी की बात हो रही है तो हमें इसके साथ ही ममता बनर्जी और केसीआर को भी इसी संदर्भ में देखना होगा. तो मुझे लगता है कि इन सभी का अपने-अपने प्रदेश की जो राजनीति है उसके कारण कांग्रेस के साथ जाना मुमकिन नहीं है. अभी समाजवादी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक कोलकाता में हुई और वहां ममता बनर्जी से अखिलेश यादव की बातचीत हुई और जिसमें दोनों ने एक ही राह अपनाते हुए स्पष्ट कर दिया है वो दोनों हीं कांग्रेस के साथ नहीं जाएंगे. इन दोनों का एक साथ आने के पीछे जो कारण है वो ये कि यूपी में भी मुस्लिम राजनीति पर अपनी पकड़ बनाए रखना है.

आपको याद होगा कि अयोध्या में राम जन्म भूमि के आंदोलन से लेकर जब मुलायम सिंह थे तब और बसपा का विलय हुआ तब वहां मुस्लिम राजनीति होती रही है. वहां पर लड़ाई 80 बनाम 20 की है. 25 करोड़ के आबादी वाले प्रदेश में मैं मान कर चलता हूं कि लगभग 80 प्रतिशत हिंदू हैं तो 20 प्रतिशत मुसलमान हैं. वहां और भी फिगर देखने को मिला है 1955 के ही चुनाव के बाद से कि क्षेत्रीय दल जब-जब मजबूत हुए हैं उसमें मुसलमानों का प्रभुत्व बढ़ा है.

एक बार तो ऐसा चुनाव परिणाम आया था कि वहां पर 67 मुस्लिम विधायक जीतकर आए थे. लेकिन राम मंदिर आंदोलन के समय 1991 में मात्र 17 मुस्लिम एमएलए जीते थे. लेकिन अभी जो अखिलेश यादव और ममता बनर्जी जिस राजनीतिक दिशा में बढ़ रहे हैं उससे यह स्पष्ट है कि दोनों की प्योर मुस्लिम राजनीति है और यही कारण है कि पश्चिम बंगाल में जो भाजपा को राजनीतिक जमीन मिली है उसके पीछे मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति ही है. ममता बनर्जी इस हद तक मुस्लिम राजनीति कर रही हैं कि उसी कॉल पर भाजपा जिसे कि कभी वहां दो सीटें मिली थी उसके पास आज वहां 70 से 80 विधानसभा सीटें हैं. भाजपा को बंगाल में सत्ता नहीं मिली लेकिन मैं मानता हूं कि वास्तव में उसने वहां जीत हासिल की है.

चूंकि दशकों तक कांग्रेस और भाकपा कभी वहां सरकार में रहीं लेकिन आज उनका क्या अस्तित्व हैं बंगाल में..तो उसी तरह से यूपी में भी समाजवादी पार्टी का मुख्य मुकाबला भाजपा से ही है. तो ऐसे में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस पार्टी अपने अस्तित्व व पहचान के लिए यूपी में लड़ाई लड़ रही हैं. आपको याद होगा की पश्चिम बंगाल में हाल ही में एक सीट पर उपचुनाव हुआ जिसमें कांग्रेस और भाकपा ने एक साथ मिलकर चुनाव लड़ा जिसमें तृणमूल कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा है. वो सीट ममता बनर्जी की थी. इस हार के बाद वो तिलमिला गई हैं और उसके बाद उन्होंने यह ऐलान किया  कि हमारा कांग्रेस के साथ कोई तालमेल नहीं होगा....तो सपा चीफ और टीएमसी चीफ का एक साथ मिलना कहीं न कहीं ये प्रो-मुसलीम राजनीति को हवा देने की कोशिश है. दोनों प्रदेश में कांग्रेस जो है वो नहीं के बराबर है. इसलिए इस चुनाव में मैं मानता हूं कि खास करके राहुल का नेतृत्व इन लोगों को नहीं स्वीकार्य है. दूसरी बात विपक्ष में प्रधानमंत्री पद के कई चेहरे हैं और अखिलेश और ममता बनर्जी का कांग्रेस से अलग होना एक बहुत बड़ा झटका है.

देखिये, देश में अब तक जो लोकसभा और विधानसभा के जो चुनाव हुए हैं उसमें यही दिखा है कि मुसलमानों को आज भी भाजपा रास नहीं आई है. मुस्लिम वोटों का जो मुख्य लक्ष्य होता है वो ये कि हम भाजपा को हराएं. यही कारण है कि भाजपा चुनावों में मुसलमानों को ज्यादा अपना प्रतिनिधित्व का मौका नहीं नहीं देते है. लेकिन इसके बावजूद शानदार जीत हासिल की थी भाजपा ने..तो ये है कि जब समाजवादी पार्टी और कांग्रेस अलग चुनाव लड़ेगी और बसपा भी अलग लड़ेगी तो स्वाभाविक रूप से मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण करना टारगेट होगा और ऐसी स्थिति में मुस्लिम प्रत्याशियों की संख्या भी अधिक हो जाएगी तो निश्चित तौर पर मुसलमानों के वोट का विभाजन होगा. इसलिए मुझे ऐसा नहीं लगता है कि किसी एक दल के पास मुस्लिम वोट जाएगा...तो कहीं न कहीं ये विपक्ष के वोटों का बिखराव है और इससे तो भाजपा की राह और आसान हो जाएगी. ये मैं समझता हूं.

जिन-जिन प्रदेशों में क्षेत्रीय पार्टियां मजबूत स्थिति में हैं वो वहां कांग्रेस को ड्राइविंग सीट पर नहीं देखना चाहती है. आप बिहार का ही उदाहरण देखिये, यहां कांग्रेस हाशिए पर है. चूंकि यहां मुख्य प्रभाव वाले दल राजद, जदयू और भाजपा है. यहां तो लड़ाई भाजपा बनाम राजद की होनी है. नीतीश चेहरा थे लेकिन अब वो अपने आप को लगता है कि राजद के साथ विलय ही कर दिये हैं ऐसा प्रतीत होता है. तो मेरा कहने का मतलब ये है कि अब परिस्थितियां बदल गई है क्योंकि अब क्षेत्रीय दल कमजोर नहीं होंगे कि कांग्रेस अपने मन मुताबिक सीट पर चुनाव लड़ेगी.

उसको हिस्सेदारी ही मिलेगी. राहुल गांधी के भारत जोड़ो यात्रा के दौरान वरिष्ठ नेता जय राम रमेश ने भी यह कहा था कि हमने क्षेत्रीय दलों के साथ हमने चुनावी समझौता करके बड़ी कुर्बानी दी है. अब ऐसा नहीं होगा की कांग्रेस देश में चुनाव लड़ेगी तो 200 सीट पर चुनाव लड़ेगी. एक बात ये भी है कि राहुल गांधी के रहते कांग्रेस किसी दूसरे दल के नेता को स्वीकार नहीं करेगी. लेकिन जहां तक गैर-कांग्रेस दलों के गठबंधन और तीसरा मोर्चा का मामला है तो मैं समझता हूं कि ये पूरे देश में तो लागू नहीं होगा लेकिन जहां-जहां मजबूत क्षेत्रीय पार्टियां हैं वो स्वाभाविक रूप से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ेंगी. आगामी लोकसभा में भाजपा के लिए तभी मुश्किलें पैदा होंगी जब उसके साथ वन-टू-वन फाइट होगा नहीं तो ऐसे उसे रोक पाना मुश्किल ही नजर आता है.  

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. ये आर्टिकल अरुण पांडे से बातचीत पर आधारित है.]

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