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लोकसभा चुनाव परिणाम 2024

UTTAR PRADESH (80)
43
INDIA
36
NDA
01
OTH
MAHARASHTRA (48)
30
INDIA
17
NDA
01
OTH
WEST BENGAL (42)
29
TMC
12
BJP
01
INC
BIHAR (40)
30
NDA
09
INDIA
01
OTH
TAMIL NADU (39)
39
DMK+
00
AIADMK+
00
BJP+
00
NTK
KARNATAKA (28)
19
NDA
09
INC
00
OTH
MADHYA PRADESH (29)
29
BJP
00
INDIA
00
OTH
RAJASTHAN (25)
14
BJP
11
INDIA
00
OTH
DELHI (07)
07
NDA
00
INDIA
00
OTH
HARYANA (10)
05
INDIA
05
BJP
00
OTH
GUJARAT (26)
25
BJP
01
INDIA
00
OTH
(Source: ECI / CVoter)

भाजपा के अब तक तीन राज्यों में मुख्यमंत्री न घोषित हो पाने के पीछे वजह है पार्टी की रणनीति

पांच राज्यों के हालिया विधानसभा चुनाव में तीन राज्यों में भाजपा को प्रचंड बहुमत मिला है. नतीजे 3 दिसंबर को ही आए, लेकिन आज 7 दिसंबर तक वह मुख्यमंत्री घोषित नहीं कर पायी है. वहीं कांग्रेस ने तेलंगाना में नतीजे आने के दो दिनों के भीतर मुख्यमंत्री घोषित कर दिया था. भाजपा की यह परिपाटी लंबे समय से चली आ रही है. उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के समय से अभी इन तीन राज्यों तक, भाजपा में मुख्यमंत्री पर काफी मंथन होता है. 

रणनीति की वजह से हो रही देर

तीन राज्यों में भाजपा ने जो चुनाव लड़ा, उनमें खासकर राजस्थान और मध्य प्रदेश में उसने जिस रणनीति से चुनाव लड़ा. उसमें ऐसे कद्दावर नेता भी हैं, जो अलग-अलग बिरादरियों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे. इसी वजह से इन दोनों राज्यों में 5 से 7 चेहरे ऐसे हैं जो सीएम पद के दावेदार हैं. छत्तीसगढ़ की स्थिति थोड़ी अलग है, क्योंकि वहां भाजपा ने वैसे चुनाव लड़ा नहीं और ये भाजपा के लिए भी अप्रत्याशित था कि वह जीत जाएगी और चुनाव के बाद उसे सीएम चुनना पड़ेगा. राजस्थान में करणी सेना के नेता की हत्या ने भी थोड़ी देर कर दी है. संसदीय दल की बैठक के बाद आज यानी 7 सितंबर को देर रात तक खबरें आ सकती हैंं. मध्य प्रदेश से अगर बात शुरू करें तो वहां तो यह ओपन सीक्रेट है कि वहां शिवराज को चुनाव प्रचार की शुरुआत से ही किनारे कर दिया गया था और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने मंचों से अपने नाम से ही प्रचार कर रहे थे, कमल को प्रत्याशी बता रहे थे.

बाद में शिवराज सिंह चौहान थोड़ा बाउंस-बैक किए और उनको थोड़ी सहानुभूति मिली. हालांकि, जो एमपी की राजनीति जाननेवाले हैं, उनको पता है कि वहां जो जमीन पर शिवराज की लोकप्रियता है, उसमें उनको किनारे करना आसान नहीं होगा. छह महीने बाद ही लोकसभा चुनाव भी हैं. इसके बावजूद सियासी हलकों में एक नाम प्रह्लाद पटेल का चल रहा है, वह संघ से भी हैं और ओबीसी भी हैं. इस बार मुद्दा ओबीसी का बहुत छाया भी रहा है, इसलिए अगर शिवराज को बदलना होगा तो एक संघ के काडर और ओबीसी प्रह्लाद पटेल के चांस काफी हैं. हालांकि, राकेश सिंह और नरेंद्र सिंह तोमर भी लड़ाई में हैं. अब शिवराज को हटाने में आलाकमान कितना सफल होगा, यह देखने की बात है. 

मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य भी फेक्टर

साथ ही, संगठन के भीतर एक ज्योतिरादित्य फैक्टर भी है. उनकी कुछ महीने पहले से प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह से निकटता बढ़ी है. मोदी सिंधिया स्कूल भी गए थे और अमित शाह को अपने पैलेस में खाने पर भी आमंत्रित किया था. तो, जिस तरह इन लोगों में निकटता बढ़ी है, कयास लगाए जा रहे हैं कि कहीं सिंधिया ही सीएम न बन जाएं. अभी वह युवा भी हैं. हालांकि, कई जानकार कहते हैं कि भाजपा जिन नेताओं को बाहर से लाती है, उनका इस्तेमाल करती है, पर बड़े पद नहीं देती. उसी तरह, शिवराज का यह बयान कि वह रेस में नहीं हैं, उसको दो तरह से देखा जा सकता है. एक पहलू तो यह है कि अगर पत्ता कट जाए, तो शर्मिंदगी न हो. वह कह दें कि उन्होंने तो पहले ही कह दिया था. दूसरा अर्थ यह है कि यह दबाव बनाने की राजनीति है. इस पर शिवराज की कोटरी और उनको चाहनेवाली जनता का दबाव बढ़ेगा कि शिवराज को सीएम बनाया जाए. इसे दोनों ही तरह से देखा जा सकता है. सीएम कौन बनता है, उसके बाद ही इसकी व्याख्या होगी. 

राजस्थान में हैं सुखदेव की हत्या भी फैक्टर

वसुंधरा राजे सिंधिया का आज से नहीं, करीबन बीस साल पहले से संघ के साथ संघर्ष चल रहा है. मैं चूंकि राजस्थान गया था तो इतना जानता हूं कि राजस्थान में जिस तरह से संघ और भाजपा ने चुनाव लड़ा है, वहां उन्होंने यह सुनिश्चित किया है कि वे हरेक जाति और बिरादरी से एक बड़ा नेता सामने रखें. देखिए, वहां गजेंद्र सिंह शेखावत हैं, दिया कुमारी हैं, बाबा बालकनाथ हैं और इस तरह के आप सात-आठ नाम गिना सकते हैं जो सीएम बन सकते हैं, लेकिन राजस्थान में यह काम आसान काम होता अगर अगले ही दिन सुखदेव सिंह की हत्या नहीं हुई होती और मैं यह भी कह सकता हूं कि उनकी हत्या की टाइमिंग का सीएम बनने के लेनदेन से भी है. सुखदेव सिंह करणी सेना, बीकानेर वाली से निकलकर श्री करणी राजपूत सेना वाले हिस्से में थे.

इनको अमूमन लिबरल राजपूत माना जाता है. करणी राजपूत सेना वाले गहलोत की प्रशंसा भी कर रहे थे, वसुंधरा का भी हम जानते हैं कि उनको भी लिबरल माना जाता है. हालांकि, वहां बहुतेरे राजपूत वसुंधरा को राजपूत नहीं जाट मानते हैं, क्योंकि वह जाट परिवार में ब्याही गयी हैं. तो, ये जो विरोधाभास है, उस सबका लेना-देना सीएम फेस से भी हो सकता है. ये सब थियरी हैं, लेकिन राजस्थान में एक बात तय है कि राजस्थान में अगर जाट को सीएम बनाएंगे, तो राजपूत नाराज होंगे और उसी तरह उल्टा होगा. 

राजस्थान में जाट और राजपूत की नाराजगी से बचने के लिए ब्राह्मण चेहरे या ओबीसी पर दांव लगाया जा सकता है. इसीलिए बाबा बालकनाथ का नाम कल सोशल मीडिया पर उभरा जो बाद में फेक निकला, लेकिन यह आसान नहीं है. सीपी जोशी बड़े प्रत्याशी हैं, जो प्रदेश अध्यक्ष हैं. अब आज तो अश्विनी वैष्णव का नाम ट्रेंड कर रहा है. मुझसे राजस्थान में संघ के एक बड़े पदाधिकारी ने कहा था कि ये सारे चेहरे अंत में हट जाएंगे और संभव है कि आरएसएस कोई ऐसा चेहरा लाए, जो रघुबर दास और मनोहरलाल खट्टर की तरह के हों. राजस्थान में ऐसा चेहरा हो सकता है. 

भाजपा के लिए यह देर सकारात्मक

छत्तीसगढ़ में भाजपा हो सकता है कि आदिवासी कार्ड प्ले करे और किसी आदिवासी को सीएम बना दें. हालांकि, वहां ओबीसी भी रेस में हैं और डॉ. रमन सिंह तो हैं ही, लेकिन भाजपा उन पर दांव नहीं खेलेगी, क्योंकि वह जिस तरह की राजनीति करते हैं, वह हंबल और मॉडेस्ट हैं. भाजपा की आक्रामक राजनीति उनके मुफीद नहीं है. वैसे भी, भाजपा की जिन राज्यों में प्रचंड जीत होती है, वहां यह देर भी होती है. आप उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के समय से आज इन तीनों राज्यों तक याद कर लीजिए. इसके लिए हमें यह समझना होगा कि भाजपा की जो पिछले 10-15 वर्षों की चुनावी कामयाबी है- 1984 में दो सीटों से अभी 300 के ऊपर सीटों तक, उसके पीछे यह वजह है कि उसने समाज के हर तबके को साधा है.

मंडल की राजनीति से अभी तक देखें, तो भाजपा ने हरेक सेक्शन को साधा है. ब्लॉक से लेकर गांव और राष्ट्रीय स्तर तक. जब आप लीडरशिप की इतनी कतार आपके पास हो कि आपके पास सीएम पद देने का समय आता है तो प्रत्याशी बहुत होते हैं, लाइन लग जाती है. इसको एक सकारात्मक बात की तरह देख सकते हैं. भाजपा ने हर जाति-बिरादरी और सेक्शन में इतने नेता खड़े कर दिए हैं कि वहां कांपिटीशन बहुत है. इसका दूसरा पहलू यह है कि भाजपा में जितनी चीजें डेमोक्रेटिक लगती हैं, वैसा मामला है नहीं. वहां मामला बहुत केंद्रीकृत है. वहां आरएसएस की अप्रूवल चाहिए होती है और वह बिना ठोके-बजाए कुछ करता नहीं है. तो, देरी की एक वजह यह भी है कि सभी के कैंडिडेचर को संघ ठोंक-बजा कर देख रहा है. ये दोनों मामले हो सकते हैं. 

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ़ लेखक ही ज़िम्मेदार हैं.]

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