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Opinion: महानगरों पर हावी होता गुस्सा और सड़कों पर बहता खून

नयी दिल्ली में रोड रेज में एक टैक्सी ड्राइवर को दो युवकों ने पीट-पीटकर मार डाला है. इस तरह की खबरें हमारे पास बहुतायत में आजकल आ रही हैं. हरेक बीते कुछ दिनों पर ऐसी न्यूज आती है कि किसी ने गाड़ी ओवरटेक करने के चक्कर में, किसी ने गलत तरीके से गाड़ी चलाने पर टोकने पर या इसी तरह की और किसी बात पर हत्या कर दी. यह 'रोड रेज' सचमुच चिंता का विषय बनता जा रहा है. गाड़ी के बोनट पर किसी को 5 मिनट तक दौड़ाने की बात हो या किसी को कुचलने की, आज सड़कों पर गुस्सा जहां-तहां देखने को मिल जा रहा है. खासकर युवाओं की यह दिशाहीनता और अराजक ऊर्जा एक सभ्य समाज के लिए चिंता की घंटी बजाते हैं कि उसका एक बड़ा हिस्सा आखिरकार इतने गुस्से में क्यों है?  

पूरे युवा जगत की समस्या

यह समस्या पूरी दिल्ली के लोगों की कही जाए, तो वह सरलीकरण और सामान्यीकरण होगा. हां, लोगों में धैर्य का अभाव तो हो रहा है. इसकी वजह भी देखनी चाहिए. धैर्य तभी घटता है, जब हमारी इच्छाएं जो हैं, वह तो असीमित हैं और उस हिसाब से वो पूरी नहीं हो रही है. दूसरे, लोगों को यह भी नहीं पता कि उनका जो रास्ता है, वह सही है या गलत है. हमें यह भी नहीं पता होता कि हम जो कर रहे हैं, वो किसलिए कर रहे हैं? ये जो युवा पीढ़ी है, बल्कि कहें तो सभी पीढ़ियों में, गुस्सा बहुत बढ़ गया है. उसकी वजह है कि हमारे ऊपर चौतरफा दबाव है, समाज का दबाव है, दोस्तों का दबाव है, परिवार का दबाव होता है, खुद के सपनों का दबाव होता है, तो व्यक्ति का धीरज जो है, उसका स्तर घटता जाता है.

कई बार कोई ग्रंथि (कॉम्प्लेक्स) भी होती है. अभी हम रोड रेज में जिस टैक्सी ड्राइवर की मौत को देख रहे हैं, वह कोई अनूठा और अकेला मामला नहीं है. दो लोग अगर गाड़ी में जा रहे हैं, तो ओवरटेक करने  में अगर टक्कर लगे, तो जिसकी गलती होती है, वो भी लड़ने आ जाता है. युवा हैं, उनकी ऊर्जा अधिक है तो उसको सही दिशा में ले जाने की आवश्यकता है. सही-गलत का अर्थ भी कहीं न कहीं घटता जा रहा है. आगे बढ़ने की होड़, हम कहीं किसी से पीछे न रह जाएं, यह जो ललक है, इन सभी से मिलकर इस तरह की घटनाएं लगातार घट रही हैं. बात केवल रोडरेज की नहीं है, बात ये है कि लोगों का गुस्सा बढ़ रहा है, तनाव बढ़ रहा है और धीरज घटता जा रहा है. 

बढ़ रहा है गुस्सा, घट रहा है धीरज

आप किसी भी फील्ड या किसी भी आयु-समूह में देखेंगे तो लोगों का गुस्सा लगातार बढ़ रहा है. जब आप गाड़ी ड्राइव करते हैं, तो भी आपका मेंटल-स्टेट तो वही रहता है, तो वही फिर परिलक्षित भी होता है. हाल ही में नादर यूनिवर्सिटी में हमने देखा था कि एक बच्चे ने अपनी सहपाठी का कत्ल कर दिया, उसी तरह रोडरेज है या घरेलू हिंसा है, ये सब आपके मानसिक हालात पर निर्भर करता है. आप अगर गुस्से और तनाव में हैं, आप अपनी भावनाओं पर काबू नहीं कर पा रहे, आप समानुभूति (एंपैथी) खो दे रहे हैं, तो फिर नतीजा तो यही होगा. आप सड़क पर हों, घर पर हों या दफ्तर में हों, कहीं भी यही गुस्सा आपके साथ रहेगा. अगर आप ऑफिस का गुस्सा घर में बच्चों पर निकालते हैं, या औरतें अपनी कुंठा बच्चों पर निकाल देती हैं, तो उसी तरह अगर आप सड़क पर होते हैं, गाड़ी चलाते हैं, तो वही कुंठा, वही गुस्सा आप दूसरों पर निकाल देते हैं. जहां तक गाड़ी में घसीटने की बात है, तो कई बार उसमें डर का भी हिस्सा होता है. गलती करनेवाला बस भागना चाहता है, तो वह ध्यान भी नहीं देता कि कोई उसके बोनट पर है, या उसकी गाड़ी में लिपट कर घिसट रहा है. अभी कुछ साल पहले हमने टोल बूथों पर हिंसा देखी थी. 

ऊर्जा को सही दिशा देने की जरूरत

युवाओं के पास ऊर्जा बहुत है, इसलिए गुस्सा बढ़ रहा है, क्योंकि उनकी ऊर्जा और सूचना कहीं ठीक से चैनलाइज नहीं हो पा रही है. उनके पास स्रोत बहुत हैं, लेकिन उनको जाना कहां है, ये उनको पता नहीं है. उनके पास कई सारे अनुत्तरित सवाल भी होते हैं, इसलिए भी वे तब गुस्सा हो जाते हैं, जब आपके दिए जवाब उनको ठीक नहीं लगते और वे अपना जवाब सही मान लेते हैं. जब सही और गलत समझ नहीं आता, तो वे भ्रमित होते ही हैं. एक बड़ा कारण एकल परिवारों का होना भी है. घर में अगर बच्चों की जरूरतें पूरी नहीं होतीं, मां-बाप के साथ उनका संबंध नहीं बन पाता, उनके निर्धारित लक्ष्य पूरे नहीं हो पाते, तो वे कई बार गुस्से में आते हैं, कुंठित हो जाते हैं. वहीं, जो बच्चे अंतर्मुखी होते हैं, वे अपनी खोल में चले जाते हैं, अवसाद में चले जाते हैं. जहां हिंसा बढ़ रही है, वहीं अवसाद भी बढ़ रहा है. इस तरह कह सकते हैं कि हत्या और आत्महत्या, ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. 

चिंता तो असल में युवाओं को लेकर होनी चाहिए, न कि केवल रोडरेज. युवाओं को ठीक से समझने की, उनकी ऊर्जा को ढंग से दिशा देने की जरूरत है. युवा जहां जा रहे हैं, उनको सही और गलत बताना बहुत जरूरी है. इसमें अभिभावकों से लेकर शिक्षकों तक को समझने की जरूरत है. हम उनके करियर को लेकर जितना दबाव बनाते हैं, उनकी भावनात्मक जरूरतों पर ध्यान नहीं देते. युवा आजकल परिवार से टूट गए हैं, समाज से भी टूट गए हैं और आखिरकार खुद से भी टूट जाते हैं. उसके बाद वे गलत दिशा में चले जाते हैं. उनकी ऊर्जा गलत दिशा में जाती है. इनको सही दिशा देने की, लगातार बात करते रहने की जरूरत है. 

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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