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वोट के बदले नोट मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से राजनीतिक हलकों में गया बड़ा संदेश

क्या न्यायपालिका के हस्तक्षेप से ही राजनीति सुधरेगी. सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को वोट के बदले नोट मामले में एक फैसला दिया है. जिसमें पांच न्याय मूर्तियों की संविधान पीठ ने यह फैसला सुनाई. संविधान पीठ के द्वारा दिया फैसला महत्वपूर्ण माना जाता है. सर्वोच्च न्यायालय ही संविधान का अभिभावक माना गया है. सुप्रीम कोर्ट ने शीर्ष स्तर पर होने वाले भ्रष्टाचार को रोकने के लिए यह कदम उठाया है. सुप्रीम कोर्ट ने राजनीति में भ्रष्टाचार को रोकने के लिए कदम कितना कारगर होगा ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा. सांसद के खरीद, लाभ लेकर और पैसा या किसी पार्टी के विचारधारा के संपर्क में आकर संसद में अन्य जगहों पर प्रश्न करने, वोट करने आदि पर नेता के विरुद्ध कार्रवाई की जा सकती है. और मामले में अब मुकदमा चलाई जा सकती है. सुप्रीम कोर्ट अब इस मामले की सुनवाई करते हुए प्रावधान के अंतर्गत सजा दे सकती है.

जबकि संविधान के धारा 102 के तहत सांसद और विधायकों और जनप्रतिनिधियों को यह छूट दी गई है कि संसद में उनके गतिविधियों और  किन कारणों से अपना वोट पार्टी के खिलाफ जाकर देते हैं. इन मामलों की सुनवाई न्यायालय में नहीं होगा. क्योंकि यह विधायक या सांसद का विशेषाधिकार होता है. इसी को सांसदों का प्रीविलेंस भी कहते हैं. इन सब मामलों में न्यायपालिका की कोई दखल नहीं थी. इनको लेकर किसी भी अदालत में कोई मुकदमा नहीं चलाया जा सकता था. लेकिन अब ऐसे फैसले से विशेषाधिकार अब खत्म होता दिख रहा है. देश में नेताओं को लेकर लोगों के बीच एक अविश्वास हमेशा से रहा है. तो इस फैसले का स्वागत किया जाएगा. आम लोग सोचेंगे कि अब नेता कम से कम भ्रष्टाचार करने से पहले सोचेंगे.  अब कोई घूस लेकर सरकार के खिलाफ वोट नहीं दे पाएगा और लाभ के बदले किसी दूसरे का प्रश्न नहीं पूछ पाएगा. ऐसा संदेश तो लोगों के बीच पहुंच रहा है. लेकिन बड़ी बात है कि यह फैसला संपूर्ण नहीं आया है. सोमवार को सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई के क्रम के बाद  पांच न्यायमूर्ति की संविधान पीठ ने यह फैसला सुनवाया. जिसमें तीन न्यायमूर्ति ने पक्ष में दो न्यायमूर्ति ने विपक्ष में थे.

भारत देश में संविधान और लोकतंत्र ब्रिटेन और अमेरिका को मिलाकर एक संतुलन बनाया गया है. भारत में ना तो अध्यक्षीय प्रणाली है और ना ही संसदीय, बल्कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच संतुलन बनाने की कोशिश की गई है.. भारत में सुप्रीम कोर्ट न्याय के मामले में सबसे बड़ा है लेकिन संसदीय प्रणाली इससे अलग है. लेकिन सर्वोच्च न्यायालय को कोई ऐसा मामला जो संसद को यह लगता है कि यह सही नहीं है तो उसको संसद में पलटकर अपने अनुसार संविधान संशोधन कर सकती है. माना जा रहा है कि देश में चुनाव का माहौल है तो इस फैसले को संसद में बदलने के लिए कोई प्रस्ताव नहीं आने वाला. लेकिन जो राजनीति के अंदर जो अनुभवी लोग है यानी को वो काफी समय राजनीति में दे चुके है. वो इस फैसले से असहजता महसूस कर सकते है.

1993 में सरकार बचाने के लिए खरीदे गए थे सांसद: - 
इसका एक उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है जब नरसिंहा राव के सरकार के खिलाफ जब 1993 में अविश्वास प्रस्ताव आया था. तब सरकार के पास 232 सांसदों का समर्थन था. तब उस समय अपनी सरकार बचाने के लिए उन्होंने कई तरीकों से सांसदों को अपने पक्ष में किया था. उस समय कई सांसदों को खरीदा गया था कि वो संसद में उनके पक्ष में वोट करें. उस समय झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों के लिए पैसा दिए गए थे. तब कई सांसद जेल भी गए थे. उस समय के बड़े कांडों में एक झारखंड मुक्ति मोर्चा रिश्वत कांड था. बाद में सभी को सुनवाई के क्रम में बरी भी कर दिया गया था. क्योंकि उस समय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि सांसद को संसद के अंदर के अपना गतिविधि करने और अपना वोट बदलने का विशेषाधिकार है. इस लिए न्यायालय में मुकदमा नहीं चलाया जा सकता . लेकिन अब इसे पूरी तरह से बदल दिया गया है. अब ऐसे मामले सर्वोच्च न्यायालय में मामले ले जाए जा सकते है. अगर पुर्नविचार का मामला विपक्ष की ओर से लाया जाता है तो शायद फिर से पुर्नविचार किया जा सकता है.

क्या न्यायपालिका ला पाएगी राजनीति में सुधार: - 
हमारे देश में आम तौर पर उच्चतम न्यायालय के फैसले पर कोई विपक्ष या विरोधी टिप्पणी नहीं करता. सामान्यत: यह माना जाता है कि यह न्यायालय के फैसले के विशेषाधिकार और मानहानि के श्रेणी में भी आता है. इसलिए न्यायालय  के विरोध में कोई टिप्पणी नहीं करता. बड़ा सवाल यह होता है कि क्या न्यायपालिका से संभव है कि राजनीति में सुधार लाए और संपूर्ण सही कर सके . सांसदों को बोलने के विशेषाधिकार होता है. लेकिन अब ऐसे फैसले आने के बाद क्या सांसद से सोच समझ कर बोलेंगे. अपने पार्टी से हटकर वोट करने पर अब कानूनी के जद में आ सकते हैं.

तो क्या कुछ राजनीति में सुधार हो पाएगा. क्योंकि संसद के मामले में न्यायपालिका दूर रहती थी तो अब क्या कुछ न्यायपालिका इन सब चीजों में हस्तक्षेप करेगी. इन सब चीजों की उतर सभी को खोजने की जरूरी है. क्योंकि संसद के मामलों को क्या राजनीति और संसद में इसको सही न करना और न्यायपालिका के ओर से इस पर फैसला देना कहीं न कहीं कटघरे में खड़ा करता है. हमारे देश में भ्रष्टाचार के आरोप लगते हैं तो संविधान और कानून के तहत कार्रवाई की व्यवस्था है. लेकिन संसद हमारे देश का नियति निर्धारक है. लोकतंत्र की शीर्ष इकाई है. उसको संविधान में बदलने की शक्ति भी निर्धारित है. कोर्ट कोई फैसला देती है तो उसे बदलने या आर्डिनेंस लाकर उसे हटाने का भी पावर रखती है.

2005 में धन के लिए एक प्रश्न आया था जिसमें एक संसद कोर्ट गए है. तो लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को कोर्ट ने नोटिस भेजा था. उस समय लोकसभा अध्यक्ष ने मना कर दिया था कि संसद खुद एक स्वायत है. ऐसे में कोर्ट के हस्तक्षेप करने से रोका गया था. कई देशों में भी कोर्ट को संसद के मामले में हस्तक्षेप करने से रोका जाता है. तो बड़ा प्रश्न है कि क्या संसद के मामलों में न्यायपालिका को दखल बनाना सही है.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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