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सुब्रत राय थे यारों के लिए जांनिसार और धुरंधर शोमैन, नहीं रहने से निवेशकों का नहीं पर ब्रांड का होगा नुकसान

कल यानी मंगलवार 14 नवंबर को रात साढ़े 10 बजे खबरें आयीं. वे सुब्रत राय सहारा से संबंधित थीं और उसमें उनके स्वास्थ्य को लेकर चिंता जाहिर की गयी थी. उसके बाद सभी मीडियाकर्मी एक-दूसरे के पास फोन लगा रहे थे. बिना पुष्टि के कोई सहारा की मौत को फ्लैश नहीं करना चाहता था. खबर सुनते ही सबसे पहली छवि 'शोमैन' की आयी. वह जब जेल गए, तो भी अपने चरम पर थे. उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को चैलेंज कर दिया था. अपने अखबारों में पूरे-पूरे पृष्ठ का विज्ञापन देकर प्रतिकार किया.

सहारा थे हर चीज को ग्रैंड बनाने में माहिर

सुब्रत राय सहारा हर चीज को बड़ा देखते थे. हर चीज की विराट संकल्पना करते थे. इस कल्पना को पूरे देश ने देखा, बल्कि दुनिया ने भी देखा. एक बार तो टाइम मैगजीन ने यह लिखा था कि इंडियन रेलवे के बाद अगर कोई संस्थान दुनिया में सबसे अधिक रोजगार देता है, तो वह सहारा इंडिया है. यह एक सपने को सच करने के अलावा और क्या हो सकता है? 1980 के दशक में, जब सहारा इंडिया की शुरुआत हुई थी, तो अचानक यह पता चलता था कि गोरखपुर और उसके आसपास के जिलों बलिया, देवरिया इत्यादि के बेरोजगार युवा भी सहारा इंडिया के एजेंट हो गए हैं. उन युवाओं से उनके परिवार को भी खास उम्मीदें नहीं थीं और वे बहुत मीडियॉकर किस्म के थे. ये पहली दफा सहारा ने अपनी उद्यमिता और आंत्रेप्रेन्योरशिप का, प्रबंधन क्षमता का मुजाहिरा किया था. उन एजेंट्स की क्षमता या बैकग्राउंड ऐसा नहीं था, लेकिन आंखों में सपने थे और सहारा ने चूंकि उनको पहला मौका दिया था, तो वफादारी असंदिग्ध थी, उनमें से ढेर सारे लोग आज भी जुड़े हैं. उनकी पीढ़ियां जवान हो गयीं, दूसरी पीढ़ियां भी जवान हो गयीं. सुब्रत राय सहारा के पास ही वे न केवल बने रहे, बल्कि उम्र भर उनका साथ भी दिया, खुद को उनके लिए खपा भी दिया. 

नामचीनों के साथ कुछ दोस्त जो रहे जमीनी

सुब्रत राय सहारा के साथ एक खास बात थी. वह अपने दोस्तों को लेकर हमेशा चिंतित रहते थे, कंसर्न्ड थे. उनके अपने मित्रों की ही बात नहीं थी, छोटे भाई जयव्रत राय के दोस्तों को भी उन्होंने काम पर लगा दिया. जब राष्ट्रीय सहारा अखबार लांच हुआ, तो यह पहला अखबार था, जिसकी तनख्वाहें उस समय कोई हिंदी अखबार सोचता नहीं था. पहली बार एक अच्छे दफ्तर, अच्छी कुर्सी पर बैठकर काम करने का जो कल्चर आया हिंदी पट्टी, खासकर लखनऊ और गोरखपुर वगैरह के हिंदी अखबारों में, वह उनकी देन है. सहारा इस ग्रैंडनेस को, आत्मविश्वास को, भव्यता को अपने साथियों में भी पैबस्त करते थे. उनके साथियों में अमिताभ बच्चन से अमर सिंह और मुलायम सिंह तो थे ही, कुछ ऐसे नाम भी हैं जो बहुत ही जमीनी तौर पर उनसे जुड़े रहे, कभी ग्लैमर की चकाचौंध में नहीं दिखे, लेकिन सुब्रत राय तक पहुंच उनकी वैसी ही रही. अभी जैसे, पीयूष बंका हैं- गोरखपुर राष्ट्रीय सहारा के सर्वेसर्वा मान लीजिए. वह जब से सहारा इंडिया से जुड़े, तब से उनको भरोसे के साथ लिया गया और जिम्मेदारियां दी गयीं. तब से आज तक उनका जुड़ाव, कनेक्ट वैसे का वैसा ही है. दूसरा नाम, विनय तिवारी का ले सकते हैं. वह इंटीरियर डिजाइनर थे, लेकिन उनको सफलता जैसी चाह रहे थे, वैसी मिल नहीं रही थी. सहारा इंडिया ने जब लखनऊ में अपनी बिल्डिंग बनायी, तो अपना सारा काम उनको दिया और फिर उनकी पूरी जिंदगी ही बदल गयी. इसी तरह से मनोज मिश्र थे, बहुतेरे नाम थे, सबसे भरोसेमंद साथी ओ पी श्रीवास्तव थे, वह सुब्रत राय से जुड़नेवाले पहले लोगों में थे. तब से आज तक वही जज्बा कायम है, बल्कि सहारा की तमाम मुश्किलों के बीच श्रीवास्तव ही डील कर रहे हैं. तो, सहारा की खास बात थी कि वह रिश्तों को बचाते और जुगाते थे, उनको बचाने के लिए कोई भी हद पार कर लेते थे. 

निवेशकों को नहीं होगा नुकसान

सुब्रत राय सहारा एक व्यक्ति थे, लेकिन सहारा इंडिया कंपनी है और बरकरार है, तो निवेशकों को घबराने की जरूरत नहीं है. सुप्रीम कोर्ट का बहुत सीधा सा फैसला है कि सहारा इंडिया की जो अचल संपत्तियां हैं (कहा जाता है कि सहारा इंडिया के पास 2 लाख करोड़ से अधिक के प्लॉट्स हैं, देश के लगभग सभी शहरों में), उनको बेच कर सुप्रीम कोर्ट में पैसा जमा किया जाएगा. सरकार ने जो एक पोर्टल बनाया है, सहारा के निवेशकों के लिए ताकि वे अपने पैसे का क्लेम कर सकें, तो वो प्रक्रिया तो वैसे ही चलती रहेगी. सुब्रत राय के जाने से फर्क केवल ये आया है कि एक ब्रांड जो था, एक ऐसा व्यक्ति जिसने कॉरपोरेट को बिजनेस के अलावा जो राष्ट्रवाद की भावना जगायी, वह अब नहीं रहेगी. जब उन्होंने चिटफंड कंपनी शुरू की, तो भी उनके दिमाग में यही खयाल था कि खोमचे वाले, ठेले वाले बैंक तक पहुंचने में लाचार हैं और उनकी देखभाल भी किसी को करनी चाहिए. तो, रोजाना जो 10 रुपए, 5 रुपए या 2 रुपए जमा करने की कवायद शुरू हुई, उसने क्रांति ला दी. वह अपने हरेक कार्यालय में भारत माता की मूर्ति रखते थे. एक दौर था, जब पॉलिटिकल होने की वजह से नुकसान भी होता है. निवेशकों का बहुत पैसा नहीं डूबा है, थोड़ा बहुत नुकसान हुआ है. उससे बहुत अधिक संपत्ति सहारा के पास है, तो निवेशकों को कोई फिक्र नहीं करनी चाहिए. 

सहारा की लेगेसी को कायम रखना थोड़ा मुश्किल होगा. इस तरह की चीजें व्यक्ति-विशेष पर, खास पर्सनैलिटी पर निर्भर करती है. यह दूसरी पीढ़ी तक आने में मुश्किल होगी. उन्होंने जिस तरह से दोस्ती निभायी, जो ग्रैंडनेस दिखायी, वह वापस आना मुश्किल है. वह शोमैनशिप आनी कठिन है. वैसे भी, सुब्रत राय के भाई और दोनों बेटे अब विदेश में बस गए हैं. 

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ़ लेखक ही ज़िम्मेदार हैं.]

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