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सामूहिक विवाह से ही हटेगी दहेज प्रथा, दिखावे से महंगी हुई शादियां, सिर्फ क़ानून से नहीं बनेगी बात 

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की शादी की एक बहुत ही रोचक कहानी है. कुछेक मीडिया हाउसेज में इसकी हल्की-फुल्की चर्चा भी है, लेकिन इस वक्त मैं उस घटना का जिक्र एक ख़ास मकसद के लिए करना चाहता हूं. 1973 में नीतीश कुमार की शादी मंजू कुमारी सिन्हा से हुई थी. दुर्भाग्य से मंजू सिन्हा अब इस दुनिया में नहीं है.

बहरहाल, यह एक अंतरजातीय शादी थी. और शादी में तिलक के रस्म के दौरान, जब नीतीश कुमार जी को पता चला कि उनके घर वालों ने लडकी पक्ष से 22 हजार रुपये स्वीकार किए हैं, तो उन्होंने तुरंत इस पर आपत्ति दर्ज की. उन्होंने अपने पक्ष के लोगों को कहा कि तत्काल पैसे लौटाएं. शादी की तिथि टाली गयी. बेहद सादे ढंग से उन्होंने कोर्ट में जाकर विवाह संपन्न किया. यह अनुभव ही शायद नीतीश कुमार को प्रेरणा दे गया कि दहेज़ को लेकर वे काफी सख्त रहते हैं. आज, बिहार की एनडीए सरकार दहेज जैसी कुप्रथा के खिलाफ काफी सख्त उपाय कर रही है. 

दहेज़ उत्पीड़न-हत्या का अंतहीन सिलसिला 

आज शादी इतनी महंगी हो चुकी है कि एक सामान्य परिवार को भी बेटी-बहन की शादी में लाखों रुपये खर्च करने पड़ते हैं. भले वो यह पैसा कर्ज के रूप में लें या जमीन बेच कर जुटाएं. इसके बाद, कर्ज और ब्याज का एक ऐसा दुष्चक्र चलता है कि वह परिवार तकरीबन बर्बादी की कगार पर आ जाता है. दहेज़ की वजह से शादी के बाद भी, महिलाओं के खिलाफ हिंसा के मामले रिपोर्ट होते हैं.

2022 में ही बिहार में इस तरह के 3580 मामले (एनसीआरबी) दर्ज हुए. ध्यान रहे कि ये सभी रिपोर्टेड मामले हैं. वास्तविक संख्या इससे कहीं ज्यादा भी हो सकती है. कन्या-भ्रूण हत्या के पीछे भी दहेज़ जैसे दानव की भूमिका होने से इनकार नहीं किया जा सकता है. ऐसे में सिर्फ क़ानून बनाकर दहेज़ से जुड़े हत्या या उत्पीड़न के मामले को ख़त्म किया जा सकता है, इसमें संदेह है. इसका एकमात्र समाधान सामूहिक विवाह ही है. 

सामूहिक विवाह है समाधान 

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (2022 की रिपोर्ट) के हिसाब से बिहार दहेज़ उत्पीड़न और दहेज़ से जुड़े हत्या के मामले में देश में दूसरे नंबर पर आता है. वैसे तो बिहार में दहेज़ लेना-देना दोनों ही एक बड़ा अपराध माना जाता है और एनडीए सरकार इसे ले कर काफी सख्त भी है. लेकिन जमीनी सच्चाई मुझ जैसे इंसान को तब से दुखी करता आ रहा है, जब से मैंने राजनीतिक जीवन में प्रवेश किया.

2010 में मुझे ढ़ाका की जनता ने निर्दलीय चुनाव जिताया. जमीन और ग्रामीण क्षेत्र से जुड़े रहने के कारण मैं देखता रहता था कि आम लोगों, ख़ासकर गरीब परिवारों को किस तरह अपनी बेटियों की शादी के लिए चिंतित होना पड़ता है. कई बार तो अनहोनी घटनाएं तक मैंने घटती हुई देखी है.

साल 2011 से ही मैंने प्रण लिया कि इस दहेज़ दानव के खिलाफ लड़ाई लड़नी है. इसका एक उपाय मुझे सामूहिक विवाह के रूप में समझ आया. पिछले 12 साल से मैं अपने कुछ प्रमुख सहयोगियों के साथ सामूहिक विवाह करवाता आ रहा हूं और दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करता रहता हूं. इस तरह अब तक 526 सामान्य परिवारों की बेटियों-बहनों की शादी हो चुकी है.

दहेज़ को हराना, बेटी को बचाना 

अपने राजनीतिक जीवन में मैंने एक चीज यह अनुभव किया है कि दक्षिण भारत में दहेज़ उत्पीड़न से जुड़े मामले बहुत ही कम सामने आते है (जैसा कि नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो का साल 2022 की रिपोर्ट है). बेटी बचाओ, बेटी पढाओ जैसे महत्वपूर्ण संदेश देकर हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जरूर एक जागरूकता फैलायी है. मैं भी शुरु से ये अनुभव करता रहा हूं कि अगर शादी से दहेज़ को ख़त्म कर दिया जाए, तो हमारी बेटियां और अधिक सशक्त होंगी.

इसकी वजह ये भी है कि इस पूरी प्रक्रिया में समाज की सक्रिय भागीदारी होती है. समाज का एक सपोर्ट सिस्टम भी काम करता है. इससे नव-दंपत्ति में एक नए साहस का संचार भी होता है. दिव्यांग बच्चियों तक की शादी आसानी से हो जाती है. मुझे एक ऐसे पिता याद हैं, जो धनाभाव के कारण अपनी बच्चियों की शादी नहीं करवा पा रहे थे. सामूहिक विवाह में उनकी दोनों बच्चियों की शादी एक ही मंडप में हो गयी. उनकी आंखों में चमकती खुशी को मैं शब्दों में बयान तक नहीं कर सकता. इस प्रयोजन के लिए हम काफी कड़ी स्क्रूटनी भी करते हैं.

हर एक जोड़े की शादी से पहले ग्राउंड में अपने कार्यकर्ता भेजकर इस बात का संतोष कर लेते हैं कि वे सही लोग हैं और किसी लालच या भयवश तो शादी नहीं कर रहे हैं. क्योंकि हमने ऐसी कोई शर्त नहीं रखी है कि सिर्फ हमारे इलाके की बच्चियों की ही शादी हम करवाएंगे, बल्कि नेपाल तक से लोग आते हैं. मेरा क्षेत्र ढाका काफी संवेदनशील माना जाता है. यहां हर उत्सव पुलिस की संगीनों के साए में मनाया जाता है, लेकिन सामूहिक विवाह एक ऐसा सामाजिक उत्सव है, जिसमें जाति-धर्म की दीवारें टूट जाती हैं. एक ही जगह वैदिक मंत्र गूंजते हैं तो दूसरी तरफ कुरआन-ए-शरीफ की आयतें पढ़ी जाती हैं और एक नए जीवन की शुरुआत हजारों-लाखों लोगों की दुआओं और आशीर्वाद से शुरु होती है. 

आगे क्या है रास्ता? 

जब इसकी शुरुआत हुई थी तब बिहार में इस तरह के प्रयोग न के बराबर थे. पटना में एकमात्र वैष्णो देवी समिति नाम से एक संस्था है, जो सामूहिक विवाह कराती थी. मैंने वहां जाकर सब देखा-समझा-सीखा कि कैसे इस तरह का आयोजन किया जाता है. फिर मैंने इसे उत्तरी बिहार के पूर्वी चंपारण के ढाका विधानसभा क्षेत्र में करने का निर्णय लिया. मुझे याद है जब मैं मुख्यमंत्री जी को निमत्रण देने गया था, तो उन्होंने इसकी काफी सराहना की थी और मुझे पटना में भी ऐसे आयोजन करने को कहा था.

मुझे इस बात की खुशी जरूर है कि मेरे गृह प्रदेश बिहार में एनडीए सरकार दहेज़ को लेकर सरकार सख्त है. लेकिन मुझे लगता है कि सामाजिक स्तर पर अभी दहेज़ के खिलाफ एक बड़ा युद्ध लड़ा जाना बाकी है. गुजरात के बड़े हीरा कारोबारी गोविन्द ढोलकिया ने भी अपने यहां सामूहिक विवाह कराना शुरु किया. ऐसे प्रयास और बड़े स्तर पर किए जाने की जरूरत है. इसमें नेताओं, अधिकारियों, समाज को स्वयं आगे आकर ऐसे प्रयासों को बढ़ावा देना होगा.

देश में जहां भी इस तरह के सामूहिक विवाह के कार्यक्रम होते हैं, उसे राष्ट्रीय स्तर पर मीडिया को ले कर जाना चाहिए. उसे ऐसे पेश करना चाहिए, ताकि वह अन्य लोगों के लिए प्रेरणा स्त्रोत का काम कर सके. सैकड़ों साल की एक परंपरा के बारे में लोगों की सोच को अचानक नहीं बदला जा सकता है. लेकिन, कोशिश तो करनी होगी. आखिर, सती-प्रथा और बाल विवाह जैसी कुप्रथाओं को हमारे राष्ट्र के महान लोगों ने ख़त्म तो कराया ही. क्या सबकुछ क़ानून करेगा? क्या हम आम लोग, समाज खुद इसकी जिम्मेदारी नहीं लेगा?

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]

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