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यूपी के जातिगत समीकरण में बीजेपी की उलझन, योगी का मुख्तार पर डंडा लेकिन उसका बेटा राजभर की पार्टी से विधायक

ओम प्रकाश राजभर एक बार फिर एनडीए का हिस्सा बन गए हैं. इसके साथ ही, यूपी में मुख्तार अंसारी भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर एनडीए के साथ हो गए हैं, क्योंकि मुख्तार के बेटे अब्बास अंसारी राजभर के ही साथ हैं. वह राजभर की पार्टी सुभासपा के अधिकृत विधायक हैं. पूर्वांचल को बचाने की जद्दोजहद में भाजपा ने यह कदम उठाया है, हालांकि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इस फैसले के साथ नहीं दिखते हैं. उनसे राजभर की मुलाकात भी महज दो दिनों पहले हुई है, जब वह एनडीए की बैठक में शामिल होकर लौटे हैं. यूपी की पॉलिटिक्स जाहिर तौर पर इस समय बेहद दिलचस्प हो गयी है. 

भाजपा की हरकतें बेचैनी वाली

ओम प्रकाश राजभर चुनावी राजनीति में काफी जमाने से हैं. यह बात अलग है कि सफलता उनको तब मिली, जब उन्होंने सपा से हाथ मिलाया. फिर, वह भाजपा के साथ गए, मंत्री बने, फिर सपा के साथ गए औऱ अब एक बार फिर एनडीए का हिस्सा हैं. भाजपा जिस तरह से दूसरे खेमे के लोगों को अपने साथ लाने के लिए कर रही है, वह डेस्परेशन को दिखाता है. यह एक चीज बताता है कि भाजपा अपनी जमीनी हकीकत से वाकिफ है और उसे पता है कि वह हवा नहीं है, जो पहले के चुनाव में हुआ करती थी. राजभर अकेले भले कुछ नहीं कर सकें, लेकिन कुछ विधानसभाओं में तो उनका वोटबैंक है ही. वह किसी दल के साथ जाने पर उसे फायदा तो पहुंचाते ही हैं. हालांकि, लोकसभा चुनाव में राजभर का अब तक का प्रदर्शन किसी को जिताने या हराने लायक हो, ऐसा दिखा नहीं है. जब वह अकेले लड़ते थे, तो एक लोकसभा क्षेत्र में उन्होंने अधिकतम 30 हजार वोट पाए थे. बीजेपी को लगता है कि वन टू वन फाइट में इस तरह के फैक्टर्स असर डाल सकते हैं. इसलिए उन्होंने लगभग हाथ बढ़ाकर, योगी की तमाम आपत्तियों के बावजूद राजभर को अपने में समेट लिया है. इससे यह तो पता चलता है कि राजभर की एक प्रासंगिकता तो है ही. 

पूर्वांचल बचाने को बीजेपी राजभर के साथ

बीजेपी की ये सियासी मजबूरी है, उनकी हिली हुई जमीन का पता उनको है, इस पूरे प्रकरण को इसी से समझा जा सकता है. मुख्तार अंसारी के बिना गाजीपुर, घासी और मऊ में ओमप्रकाश राजभर का वजूद मुश्किल है. आप राजभर की पूरी राजनीति देखिए तो मुख्तार अंसारी का पूरा सपोर्ट उनको बैकहैंड से मिला है. नगरपालिका के चुनाव में वह जब भी जीते हैं, तो मुख्तार का असर ही उसका कारण रहा है. वैसे, राजभर ने केवल योगी के खिलाफ बयान नहीं दिया है. उनका वह बयान भी बहुचर्चित रहा, जिसमें उन्होंने कहा था कि मोदी औऱ शाह को गुजरात नहीं भेज दिया तो वह अपनी मां की औलाद नहीं होंगे. इतने अपमानजनक बयान के बावजूद राजभर को हाथ बढ़ाकर एनडीए में शामिल करना बताता है कि जो पूरा गंगापट्टी का इलाका है, पूर्वांचल जो है, इसको बीजेपी किसी न किसी तरह अपने पाले में रखना चाहती है. ये सपा के मजबूत इलाके हैं. इसीलिए, बीजेपी दारासिंह चौहान को ले आयी, राजभर को ले आयी और मजबूरी में ही सही, जहर का घूंट पीकर ही सही, लेकिन बीजेपी अपनी फील्डिंग को चुस्त कर रही है

फिलहाल एनडीए को बढ़त

उत्तर प्रदेश में जिस तरह से दल-बदल हो रहा है, गठबंधन हो रहा है, अभी फिलहाल एनडीए का कुनबा बढ़ता दिख रहा है. ये पहला चरण है. इसके बाद और भी बदलाव होंगे. 100 फीसदी सपोर्ट मिल रहा है, ये भी जरूरी नहीं है. ओमप्रकाश राजभर के आने से कितना प्रभावित होगा, या नहीं होगा, उसका पता तो चुनावी नतीजे देंगे, लेकिन मनोवैज्ञानिक तौर पर खुद को बढ़त में दिखानेवाली जो बात है, वह तो फिलहाल बीजेपी के पक्ष में है. जहां तक अकोमोडेशन या उससे बढ़कर एक्सेप्टेंस की बात है, तो राजभर एनडीए की मीटिंग में चले गए, अमित शाह से मिल लिए, लेकिन तब तक उनकी योगी आदित्यनाथ से मुलाकात नहीं हुई थी. अब जब वह लौटे तो दो दिनों पहले योगी से एक औपचारिक मुलाकात उनकी हुई है. हालांकि, योगी की पर्सनैलिटी औऱ राजनीति को समझनेवाले लोगों का यह मानना है कि वह न तो राजभर को इतनी आसानी से मंत्रिमंडल में लेंगे, न ही इतनी आसानी से उनको अकोमोडेट करेंगे. 

गैर-यादव ओबीसी को पाले में करने की लड़ाई

बीजेपी एक बार फिर 2014 वाले फॉर्मूले में गयी है. वह गैर-यादव ओबीसी वोटों को एक साथ लाने की फिराक में है. कहा भले यह गया कि वह मोदी का जादू था, लेकिन जमीनी तौर पर गैर-यादव ओबीसी और मोस्ट बैकवर्ड जातियों का गठबंधन ही बीजेपी के वोट-शेयर को बढ़ाने के लिए जिम्मेदार था. ऐसे में अब जब हम पिछला विधानसभा चुनाव देखते हैं, तो उसमें मायावती बिल्कुल हाशिए पर थीं. वजह यह थी कि फाइट वन टू वन हो गयी थी. यूपी में कांग्रेस, सपा, आरएलडी और चंद्रशेखर आजाद की भीम आर्मी या आजाद समाज पार्टी साथ लड़ेंगे. अब अगर फाइट वन टू वन हुई, भारत की राजनीति इस स्तर पर आ गयी कि एक के खिलाफ एक हो गए, इनको जिताना है, इनको हराना है तो मायावती का फिर से कोई रेलेवेंस यानी प्रासंगिकता नहीं बचेगी. हां, अगर गठबंधन जिसको इंडिया कह रहे हैं, वह अगर लड़खड़ाई, तो मायावती तीसरा कोना बन सकती हैं और इसका फायदा मिल सकता है. वैसे भी, मायावती की हालिया पॉलिटिक्स बीजेपी को फायदा ही पहुंचाती दिख रही है और इसी कारण उसकी आलोचना भी हो रही है. फिलहाल, मोलभाव शुरू है.

अखिलेश यादव का हाल का बयान देखिए. मध्य प्रदेश में उन्होंने सीट शेयरिंग की मांग कर दी है. कुछ उनका दावा ठीक भी है. तो, समुद्र मंथन चल रहा है. अब इसमें से क्या निकलता है, ये तो देखने की बात होगी. जहां तक मुद्दों का सवाल है, तो यूसीसी इतना आसान नहीं है. उसकी काट के तौर पर विपक्षी पार्टियां जातिगत जनगणना की मांग कर रही है. कांग्रेस भी उसके समर्थन में है. ऐसे में यूसीसी हार्डकोर हिंदुत्व वाले लोगों के लिए तो काम करेगी, लेकिन जब अपना फायदा आता है, तो दूसरों की ईर्ष्या भूल जाती है. जहां तक जाति के 'गिरोहबाज' दलों की बात है, फिलहाल वे प्रासंगिक बने हैं. संजय निषाद की पार्टी की आइडियोलॉजी क्या है? निषादों को आऱक्षण नहीं मिला, उनके परिवार के तीन सदस्य माननीय हो गए. ओमप्रकाश राजभर अपने बेटे को माननीय बनाना चाहते हैं. अगर पीएम मोदी की लोकप्रियता विश्व में सर्वाधिक है, तो ऐसी क्या मजबूरी है कि उनको ऐसे लोगों को साथ लाना पड़ता है, वे अगर इनको दूर नहीं रख पाते हैं, तो इनकी प्रासंगिकता को तो स्वीकार करना ही होगा. 

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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