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महिलाओं में मानसिक स्वास्थ्य की परेशानी और समाज का उनके प्रति दोहरा रवैया

हमारे देश में स्त्री स्वास्थ्य को लेकर कितनी बातें होती हैं? होती भी हैं तो गर्भावस्था तक ही स्त्री स्वास्थ्य के बहस को समेट दिया जाता है.

वैसे तो देश में कानून मानसिक बीमारियों से पीड़ित लोगों को सुरक्षा और इलाज का अधिकार देता है लेकिन मानसिक तनाव झेल रहे व्यक्ति को जितनी देखभाल की जरूरत आसपास के लोगों से होती है उतनी उन्हें नहीं मिल पाती है. खासकर मानसिक बीमारियों से पीड़ित व्यक्ति अगर महिला हो तो दिक्कतें और भी बढ़ जाती है.

हमारे देश में हर समाज की संरचना अलग है और हर समाज के भीतर हर परिवार की संरचना भी अलग है. हमारे देश में स्त्री स्वास्थ्य को लेकर कितनी ही बातें होती हैं? होती भी हैं तो गर्भावस्था तक ही स्त्री स्वास्थ्य के बहस को समेट दिया जाता है. सरकारी विज्ञापनों में भी जोर शोर से स्त्री स्वास्थ्य के लिए 'मातृत्व' स्कीम चलाया है. अगर कोई महिलाओं से संबंधित मुद्दों को लेकर बहुत जागरूक हुआ भी तो ज्यादा से ज्यादा लड़कियों के स्वास्थ्य संवर्धन के लिए "फ्री पैड" जैसी स्कीम पर बात करता है.

वैसे तो कहा यह भी जा सकता है कि भारत में तो स्वास्थ्य सेवाएं सभी के लिए ही अनुपस्थित है, लेकिन जरा सोचिए कि अगर एक पितृसत्तात्मक समाज में पुरुष स्वास्थ्य सेवाओं से अछूता है तो वहां औरतों की स्थिति क्या होगी?

फिलाहल बात भारतीय औरत और अवसाद की करेंगे. डाटा बहुत आते हैं लेकिन आज हम उन अंकों के खेल में ना उलझ कर वो बातें करेंगे जिसे औरतें हर रोज़ झेलती हैं. वैसे तो हमारे देश में मानसिक रोग को मजाक की तरह लिया जाता है, पर ऐसी स्थिति में भी जो संवेदना एक मानसिक रोग से जूझ रहे पुरुष को मिलती है, वह स्त्रियों को नहीं मिलती.

परेशानियों की शुरुआत टीनएज से ही हो जाती है. टीनएज यानी कि किशोरावस्था को एज ऑफ स्टॉर्म कहा जाता है. तमाम शारीरिक बदलाव के कारण बच्चे इस वक्त मानसिक तनाव से भी जूझ रहे होते हैं. पर ध्यान दीजिएगा भारतीय परिवारों में जितनी आसानी से टीनएज लड़के अपना तनाव गुस्से के रूप में निकाल लेते हैं लड़कियों के लिए वह सपने में भी संभव नहीं है. लड़कों को थोड़ा बहुत समझा कर गुस्सैल मानकर छोड़ दिया जाता है, पर अगर लड़कियां उग्र व्यवहार कर दे तो? तो यह उनके बिगड़ने का लक्षण होता है. शादी ना हो पाने का कारण होता है.

पहले से तनाव झेल रही लड़कियों को और दबा दिया जाता है. इसे अपनी नियति स्वीकार करते हुए लड़कियां कुढ़ते हुए अपना जीवन या तो बिता देती हैं या फिर खत्म कर लेती हैं. मानसिक बीमारियां झेल रही औरतों को यह समाज कभी भी उतनी सहजता से नहीं स्वीकार कर पाता जितना की पुरुषों को.

बचपन में हुए यौन शोषण बच्चों के मानसिक पटल पर जीवन भर के लिए चोट दे देते हैं. यौन शोषण लड़कों का भी होता है पर यौन शोषित लड़कियों की संख्या कहीं ज्यादा है. अपने साथ हुई हिंसा को ना बता पाना, बताने पर अधिकतर परिवार की तरफ से उस तरह की प्रतिक्रिया ना आना जैसा कि आना चाहिए, जीवन भर के लिए एक औरत को डरा देता है. ऐसी औरतें ज्यादातर अविश्वास की वजह से सामाजिक और निजी रिश्तो में मुश्किलों का सामना करती हैं.

बीमारियों में जिस तरह का समर्थन एक पुरुष को मिलता है वह एक औरत को मिलना असंभव है. पुरुष अगर बीमार है तो परिवार सहयोग करता है. पत्नी हर वक्त मदद के लिए मौजूद रहती है, पर जब पत्नी बीमार हो तो पति का सहयोग दवाइयां लाने तक सीमित हो जाता है. ऐसा सिर्फ शारीरिक बीमारियों के लिए ही नहीं है. मानसिक बीमारियों में भी यही होता है. एक तो औरतें बता नहीं पाती हैं कि वह मानसिक परेशानियों से जूझ रही हैं. कारण है कि लोग क्या सोचेंगे, परिवार क्या सोचेगा, पागल समझ कर छोड़ ना दिया जाए.

पति के उग्र व्यवहार पर औरतें चुप हो जाती हैं पर अगर मानसिक परेशानियों से जूझ रही औरत उग्र हो जाए तो? तो उसके घरेलू हिंसा के शिकार होने की संभावना बढ़ जाती है. ऐसी औरतों को या तो पीट कर शांत कराया जाता है या फिर त्याग कर.

यह वह देश है जहां अगर आपके पास बात करने के लिए कुछ नहीं है तो मां का हाल पूछ लीजिए, बात शुरू हो जाएगी. मां कहेगी कि बहुत परेशान हूं, तबीयत खराब रहती है. जिस जगह औरतों को पेट में दर्द है, यह बताने से पहले भी 'चार दिन सह कर देख लेते हैं क्या पता ठीक हो जाए' जैसी सोच है उस समाज में उस औरत का हाल सोचिए, जिसकी मानसिक हालत बिगड़ रही हो.

नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस किताब समीक्षा से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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