सनातन को लेफ्ट-लिबरल से ज्यादा खतरा? CM हिमंत बिस्व सरमा ऐसा बयान क्यों दिया?

असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा का हाल में एक बयान आया, जिसमें उन्होंने सनातन को लेफ्ट और लिबरल से खतरा बताया. सवाल उठ रहा है कि आखिर उन्होंने इस तरह का बयान क्यों दिया? दरअसल, इसके पीछे अगर उनके सियासी मंशा पर गौर करें तो पाएंगे कि इस तरह के व्यक्ति चाहते हैं कि लोग एक ही पार्टी के अधीन रहे. लेकिन ऐसा संभव नहीं है.
भारत एक संप्रभुता वाला स्वतंत्र देश है और इसके हर नागरिक स्वतंत्रत है. वे किसके साथ होंगे और किसके साथ नहीं होंगे, यह उनकी इच्छा है. अगर लोगों को कोई खास पार्टी अच्छी लगती है तो वे आज उनके साथ हो सकते हैं या आज जो कोई पार्टी उन्हें नहीं अच्छी लगती, कल वे उनके साथ हो सकते हैं. ये कहना कि किसी एक पार्टी के साथ होना है या कोई दूसरी पार्टी उसके लायक नहीं है तो यह एक गलत प्रचार है.
किसी भी देश में अलग-अलग राजनीतिक दल होते हैं और उनके अलग विचार व इच्छाएं होती हैं. साथ ही, उनका आपसी निहितार्थ होता है. अगर G7 जो सबसे बड़े मुल्कों का समूह है, उसको अगर देखें तो सारे मुल्क और समूह किसी न किसी व्यापारिक घराने के साथ जुड़े हुए हैं. उनके कामों को वे प्रमोट कर रहे हैं. वो चाहे मल्टीनेशनल हो या फिर नेशनल.
लोकतंत्र में जनता ही 'सुप्रीम'
हमें देश के नागरिकों को लेकर ये समझने की जरूरत है कि हम स्वतंत्र हैं और हम किसी भी कंपनी के गुलाम नहीं हो सकते. हमें स्वतंत्र रूप से अपने विचारों को प्रकट करना है, जो ना किसी के पक्ष में हो और ना किसी के खिलाफ. कोई भी राजनीतिक समूह या राजनीतिक विचारधारा हो या अन्य किसी तरह की विचारधारा हो, जनता का उससे कोई सरोकार नहीं है. जनता को पूछना है कि वो सर्वोपरि है और जनता, व्यक्ति या समाज को तय करना है कि कौन उस पर राज करेगा या नहीं करेगा. कौन उसे वोट देगा या नहीं देगा.
इस तरह से किसी राजनेता की तरफ से लोगों को डराया जाना उचित नही है. ऐसा बार-बार कहा जाता है कि अगर आप किसी एक धर्म के हैं तो आप उसी पार्टी को वोट कीजिए. लेकिन, हकीकत में किसी धर्म कोई पार्टी नहीं है. पार्टियों का अगर आप दस्तावेज देखें तो चुनाव आयोग में दिए दस्तावेज में उन पार्टियों ने यही लिखा है कि भारतीय संविधान में विश्वास है और भारत के सेक्युलर डेमोक्रेसी पर विश्वास है.
ऐसे में सवाल उठ रहा है कि जब सेक्युलर की राजनीति में उनका विश्वास है तो फिर धर्म राजनीति के आड़े कैसे आ जाता है. किसी भी राजनीतिक पार्टी का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है. सारे धर्म एक जैसे हैं और उसी तरह से काम करता है.
राजनीति में क्यों धर्म की आड़?
हां, ये अलग बात है कि राजनीतिक व्यवस्था में आप चाहे जैसे अपना कैंपेन करना चाहते हैं, वो कर सकते हैं. ये अलग चीज है. लेकिन ये कहना कि जनता को एक ही तरह के लोगों के लिए या फिर किसी खास धर्म के लिए ही वोट करना है तो फिर ये चुनाव आयोग के मौलिक सिद्धातों के खिलाफ है.
चुनाव आयोग ऐसे कभी प्रमोट नहीं कर सकता है और ना ही किसी ऐसी पार्टी को रजिस्टर कर सकती है जो भारत के संविधान और उसके सेक्युलरिज्म में विश्वास न रखते हों. दूसरी बात ये भी कि कोई भी नागरिक किसी पार्टी के साथ क्यों जुड़े जब तक उसका सदस्य है अलग बात है, सदस्य नहीं है तो उन्हे क्या मतलब किस पार्टी का कौन है.
पूरी दुनिया में इतनी आसानी से लोकतान्त्रिक व्यवस्था नहीं बनी है, इसके पीछे नागरिक स्वतंत्रता है. जनता को ये अधिकार है वे किसको चुने और किसे न चुने, किसके साथ जुड़े और किसके साथ ना जुड़े. ऐसे में जनता को धर्म के आधार पर डराकर ये कहना कि वो पार्टी गलत है... भले ही ये किसी के चुनाव का एजेंडा तो हो सकता लेकिन वो राष्ट्र का एजेंडा नहीं हो सकता है.
राष्ट्र का एजेंडा बिल्कुल सीधा है कि भारतीय नागरिक स्वतंत्रत है. इस देश का राष्ट्रीय लक्ष्य ये होना चाहिए कि भारतीय नागरिकों का किसी भी पार्टी से ना जुड़ाव है और न ही रहेगा. कोई भी दल न तो प्रिय है ना अप्रिय है. अगर नागरिक स्वतंत्र रहेगा तभी सरकार स्वतंत्र रहेगी.
नागरिकों की स्वतंत्रता जरूरी
आज ये देखने की जरूरत है कि किस तरह से पूरे विश्व में स्टॉक एक्सचेंज के रेगुलेटर हैं वह किस तरह की गड़बड़ी कर रहे हैं. ऐसा नहीं है कि ये सिर्फ भारत में ही, बल्कि सारे देशों में हो रहा है.अगर वहां देश की सरकारें निर्णय नहीं ले पा रहीं है तो इसका मतलब है कि सरकारें स्वतंत्र नहीं हैं. हमें स्वतंत्र सरकारें और स्वतंत्र नागरिक चाहिए. उस हिसाब से हमें काम करना है.
हिमंत बिस्व सरमा का बयान इस मायने में ठीक नहीं है. भारतीय संविधान के अनुसार राज्य या राष्ट्र के दल हैं तो हमें जो कैंडिडेट अच्छा लगेगा, हम उन्हें वोट करेंगे. ये कहना कि वो हमारे लिए खतरा है, ये कहना किसी भी राजनीतिक दल का काम नहीं है.
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