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लोकसभा चुनाव परिणाम 2024

UTTAR PRADESH (80)
43
INDIA
36
NDA
01
OTH
MAHARASHTRA (48)
30
INDIA
17
NDA
01
OTH
WEST BENGAL (42)
29
TMC
12
BJP
01
INC
BIHAR (40)
30
NDA
09
INDIA
01
OTH
TAMIL NADU (39)
39
DMK+
00
AIADMK+
00
BJP+
00
NTK
KARNATAKA (28)
19
NDA
09
INC
00
OTH
MADHYA PRADESH (29)
29
BJP
00
INDIA
00
OTH
RAJASTHAN (25)
14
BJP
11
INDIA
00
OTH
DELHI (07)
07
NDA
00
INDIA
00
OTH
HARYANA (10)
05
INDIA
05
BJP
00
OTH
GUJARAT (26)
25
BJP
01
INDIA
00
OTH
(Source: ECI / CVoter)

जीडीपी और अर्थव्यवस्था के नाम पर वोट लेने की राजनीति, आम लोग और आर्थिक समझ का है असली फेर

तमाम राजनीतिक दल अपनी सहूलियत के लिहाज़ से आम चुनाव, 2024 को लेकर मुद्दे और उससे जुड़ा विमर्श तैयार करने में जुटे हैं. इसमें सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही शामिल हैं. ऐसा ही एक विषय सकल घरेलू उत्पाद या'नी जीडीपी है. जीडीपी को अपने-अपने तरीक़े से मुद्दा बनाने के लिए बीजेपी और कांग्रेस के बीच राजनीतिक नूरा-कुश्ती पिछले कुछ दिनों में तेज़ होती दिख रही है.

जीडीपी का मसला मोदी सरकार बनाम यूपीए सरकार का रूप लेता दिख रहा है. बीजेपी दावा कर रही है कि पिछले एक दशक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार के कार्यकाल में भारत ने जीडीपी के मोर्चे पर अभूतपूर्व प्रदर्शन किया है. वहीं कांग्रेस पलटवार करते हुए दावा कर रही है कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली यूपीए सरकार के दौरान जीडीपी के मोर्चे पर भारत का प्रदर्शन मोदी सरकार की तुलना में ज़ियादा बेहतर था. दोनों ही ओर से अपने-अपने दावे को पुष्ट करने के लिए आँकड़े भी दिए जा रहे हैं.

आर्थिक आँकड़ों से राजनीतिक नूरा-कुश्ती

दोनों ही दल जीडीपी के आँकड़ों और भारतीय अर्थव्यवस्था के आकार को लेकर एक-दूसरे पर राजनीतिक हमला भी कर रहे हैं. हाल ही में वित्तीय वर्ष 2023-24 की तीसरी तिमाही से जुड़े आर्थिक वृद्धि के आँकड़ों को सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (NSO) ने जारी किया है. इसमें कहा गया है कि वर्ष 2023-24 की तीसरी तिमाही जीडीपी 43.72 लाख करोड़ रुपये रहने का अनुमान है. यह आँकड़ा 2022-23 की तीसरी तिमाही की तुलना में 8.4% अधिक है.  इसमें यह भी कहा गया है कि वर्ष 2023-24 के दौरान जीडीपी की वृद्धि दर 7.6 फ़ीसदी रहने का अनुमान है. 2022-23 में जीडीपी वृद्धि दर 7 प्रतिशत रही थी. ये सारे आँकड़े 2011-12 की स्थिर क़ीमतों पर आधारित हैं.

जीडीपी के नाम पर वोट लेने की राजनीति

इसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 29 फरवरी को 2023-24 की तीसरी तिमाही से जुड़े जीडीपी वृद्धि दर अनुमानों पर सोशल मीडिया 'एक्स' एक पोस्ट करते हैं. इसमें वे लिखते हैं....

"2023-24 की तीसरी तिमाही में 8.4 प्रतिशत की मजबूत जीडीपी वृद्धि भारतीय अर्थव्यवस्था की शक्ति और क्षमता को प्रदर्शित करती है. तेज आर्थिक विकास लाने को लेकर हमारे प्रयास जारी रहेंगे जिससे 140 करोड़ भारतीयों को बेहतर जीवन जीने और एक विकसित भारत बनाने में मदद मिलेगी."

लोक सभा चुनाव से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने पोस्ट के माध्यम से यह माहौल बनाने की कोशिश कर रहे हैं कि एनडीए सरकार के कार्यकाल में देश की अर्थव्यवस्था मज़बूत हुई है. प्रधानमंत्री के इस पोस्ट के बाद जीडीपी पर राजनीति सरगर्मी और भी तेज़ हो जाती है. कांग्रेस दावा करती है कि आँकड़ों के खेल से मोदी सरकार देश के आम लोगों को वरग़ला या गुमराह कर रही है. कांग्रेस नेता जयराम रमेश समझाने में जुट जाते हैं कि मोदी सरकार जो दावा कर रही है, उसमें आम लोगों के हित में कुछ भी नहीं है.

मोदी सरकार का दावा और कांग्रेस का गणित

मोदी सरकार की पोल खोलने के लिए जयराम रमेश  भी बाक़ा'इदा आँकड़ों का सहारा लेते हैं. उन्होंने कहा कि तीसरी तिमाही की जीडीपी वृद्धि दर के अनुमान दरअसल अर्थव्यवस्था की मज़बूती का प्रतीक नहीं है. उन्होंने कहा कि जीडीपी का आकलन जीवीए (सकल मूल्य वर्धन) और शुद्ध कर को जोड़कर किया जाता है. उनके मुताबिक़ इस तिमाही में सकल मूल्य वर्द्धन या'नी जीवीए महज़ 6.5% रहा, लेकिन शुद्ध करों में 1.9 फ़ीसदी का बदलाव हुआ, जिससे आभास हो रहा है कि कि जीडीपी वृद्धि दर 8.4% है. उन्होंने यह भी कहा कि चैक्स कलेक्शन नहीं बढ़ा है, बल्कि देश के आम लोगों को मिलने वाली सब्सिडी में कमी से शुद्ध कर 1.9% रहा.

कांग्रेस आरोप लगा रही है कि मोदी सरकार के दस साल में निजी उपभोग ख़र्च में गिरावट आयी है. मोदी सरकार लगातार सब्सिडी समर्थन घचा रही है. खपत बढ़ नहीं रही है. कांग्रेस दावा कर रही है कि यूपीए सरकार की तुलना में मोदी सरकार में आर्थिक वृद्धि धीमी रही है. जयराम रमेश का कहना है कि यूपीए सरकार के एक दशक में औसत वार्षिक वृद्धि दर 7.5% रही थी. वहीं मोदी सरकार के दस साल में यह आँकड़ा महज़ 5.8% रहा. कांग्रेस का तो यह भी कहना है कि मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में औसत वृद्धि दर 4.3 फ़ीसदी रहा, जो तीन दशक में सबसे कम है.

जीडीपी की जटिलता और आम लोगों की समझ

जीडीपी जैसी आर्थिक अवधारणा को समझना आम लोगों के आसान नहीं है, इसके बावजूद हम अक्सर देखते हैं कि ऐसे मसले को चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश होती है. सत्ता पक्ष हमेशा ही अपने कार्यकाल को जीडीपी वृद्धि दर के पैमाने पर बेहतर बताने की कोशिश करता है. वहीं विपक्ष की कोशिश रहती है कि सरकार के दावे को किसी तरह से ग़लत साबित किया जा सके.

जीडीपी के आकलन की जो प्रक्रिया है, वो बेहद जटिल और उलझा हुआ है. सरल शब्दों में कहें, तो, जीडीपी किसी देश की सीमाओं के भीतर एक निश्चित अवधि में उत्पादित अंतिम वस्तुओं और सेवाओं का कुल मौद्रिक या बाज़ार मूल्य  है. तिमाही आकलन करते हुए वार्षिक वृद्धि दर निकाला जाता है. अर्थव्यवस्था में इसे किसी देश की आर्थिक सेहत मापने की कसौटी के तौर पर देखा जाता है.

जीडीपी का आकलन कैसे होता है, उसके लिए क्या-क्या प्रक्रिया अपनायी जाती है, यह इतना जटिल है कि अर्थव्यवस्था की बुनियादी समझ रखने वाले लोग भी इससे ब-ख़ूबी नहीं समझ पाते हैं. भारत में जिस तरह का सामाजिक- शैक्षणिक परिवेश विकसित हुआ है, उसमें आम लोगों का एक बड़ा तबक़ा जीडीपी के फुल फॉर्म से ही अनभिज्ञ है. यह सच्चाई है. उसमें भी  80 से 90 फ़ीसदी आबादी आर्थिक वृद्धि और आर्थिक विकास के बीच फ़र्क़ को समझने में असमर्थ है. यह वास्तविकता है.

राजनीतिक माहौल बनाने के लिए इस्तेमाल

इन परिस्थितियों में जीडीपी जैसे मसले को राजनीतिक माहौल बनाने के लिए भले ही तमाम दल इस्तेमाल करते हों, लेकिन वास्तविकता यही है कि जीडीपी वृद्धि दर के आँकड़े किस सरकार के दौरान कितना रहा है, आम लोगों को इससे कोई ख़ास सरोकार नहीं रहता है. वोट देने की कसौटी के लिहाज़ से इस पहलू पर देश के आम लोग विचार नहीं करते हैं.

यह वास्तविकता के साथ विडंबना है कि राजनीतिक तंत्र के तहत देश के आम लोगों में संवैधानिक और आर्थिक समझ विकसित करने की कोशिश कभी नहीं की गयी है. इसका ही नकारात्मक पहलू है कि हर सरकार देश की अर्थव्यवस्था के आकार में इज़ाफ़ा को ही आम लोगों की बेहतरी से जोड़ देती है और इसे चुनावी मुद्दा बनाने में भी हमेशा प्रयासरत रहती है.

आर्थिक समझ विकसित करने पर ज़ोर नहीं

अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ना और आम लोगों की बेहतरी का कोई संबंध नहीं है. आकार के मामले में भारत दुनिया की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और तीन-चार साल में ही तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा, इसकी भी पूरी संभावना है. इसके बावजूद भारत में 80 करोड़ आबादी जीने और भोजन के लिए सरकारी स्तर से मिलने वाले प्रति माह 5 किलो मुफ़्त अनाज पर निर्भर है. यह आँकड़ा ही बताने के काफ़ी है कि देश की बड़ी होती अर्थव्यवस्था का आम लोगों की बेहतरी से कोई सरोकार नहीं है. कम के कम भारत पर यह ज़रूर लागू होता है.

सिर्फ़ आर्थिक वृद्धि नहीं है आर्थिक विकास

दरअसल भारत में बहुसंख्यक लोग आर्थिक वृद्धि को ही आर्थिक विकास मान लेते हैं, जबकि ऐसा है नहीं. जीडीपी बढ़ता है, तब अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ता है. अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ता है, तब औसतन प्रति व्यक्ति आय आँकड़ों में ज़रूर बढ़ जाती है, लेकिन इससे ज़रूरी नहीं कि देश के ग़रीब और आम लोगों की आय में इज़ाफ़ा हो.

देश के रूप में हम इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था के मालिक हैं, लेकिन औसत प्रति व्यक्ति आय के मामले में भारत काफ़ी नीचे हैं. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष या'नी आईएमएफ के अक्टूबर, 2023 के आँकड़ों के मुताबिक़ प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (nominal) के मामले में भारत 140वें स्थान पर है.  प्रति व्यक्ति आय के मामले में कई सब-सहारन अफ्रीकन देशों से भी पीछे हैं. यहाँ तक कि बांग्लादेश इस मामले में हमसे आगे था.

प्रति व्यक्ति आय के मामले में यह स्थिति तो तब है, जब  पूरी अर्थव्यवस्था को एक मानकर पूरी आबादी में इसे काग़ज़ों पर बाँट दिया जाए. वास्तविकता में देश के ग़रीब और आम लोगों के पास इतनी आय नहीं  है. भारत में व्यापक आर्थिक असमानता एक कड़वी हक़ीक़त है. हम तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की राह पर हैं. उसके बावजूद 80 करोड़ लोग भोजन के लिए कल्याणकारी योजना के तहत से मिलने वाले अनाज पर निर्भर हैं. हालाँकि यह शर्म की बात है, लेकिन मोदी सरकार इसे उपलब्धि के तौर पर प्रचारित कर रही है और चुनावी मुद्दा भी बना रही है.

आर्थिक असमानता से जुड़े पहलू महत्वपूर्ण

ऑक्सफैम इंटरनेशनल के मुताबिक़ भारतीय आबादी के शीर्ष 10% लोगों के पास ही कुल राष्ट्रीय संपत्ति का 77 फ़ीसदी हिस्सा है. 2017 में देश में जितनी संपत्ति बनी उसका 73% सबसे अमीर 1% लोग के पास चला गया, जबकि 67 करोड़ भारतीय की संपत्ति में महज़ एक फ़ीसदी का इज़ाफा हुआ. यह आबादी देश के सबसे ग़रीब हिस्सा था. ऑक्सफैम इंटरनेशनल की मानें, तो देश की लीडिंग गारमेंट कंपनी में सबसे अधिक वेतन पाने वाला इग्ज़ेक्यटिव जितना एक साल में कमाता है, ग्रामीण भारत में न्यूनतम वेतन पाने वाले एक वर्कर को कमाने में 941 साल लग जाएगा.

भारत में आर्थिक असमानता की खाई जितनी चौड़ी है, उससे समझा जा सकता है कि मालिकाना हक़ के तौर पर जीडीपी वृद्धि और अर्थव्यवस्था का आकार का महत्व चुनिंदा लोगों तक ही सीमित है. आम लोग सिर्फ़ जीडीपी जैसे शब्दों और पाँचवीं या तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के नाम पर भावनात्मक तौर से तो उत्साहित हो सकते हैं, लेकिन वास्तविकता में उनके जीवन स्तर में सुधार से इसका कोई ख़ास वास्ता नहीं है.

चुनावी मुद्दा नहीं, राजनीतिक माहौल तक सीमित

ऐसी स्थिति में जीडीपी और अर्थव्यवस्था का आकार जैसा विषय चुनावी मुद्दा बन ही नहीं सकता है. बस राजनीतिक माहौल बनाने तक ही ये तमाम विषय सीमित हैं. भारत में जो परिपाटी लंबे समय से रही है, उसके मुताबिक़ जीडीपी वृद्धि या आर्थिक वृद्धि का मुख्य तौर से संबंध देश के चुनिंदा लोगों की संपत्तियों में मोटा इज़ाफ़ा से है. राजनीतिक स्तर पर देश के आम लोगों को यह समझाने की कोशिश नहीं की जाती है. राजनीतिक तंत्र का मुख्य ज़ोर आर्थिक वृद्धि पर होता है, न कि आर्थिक विकास पर.

आर्थिक वृद्धि या'नी इकोनॉमिक ग्रोथ में जीडीपी औसतन प्रति व्यक्ति आय का महत्व रहता है. वहीं आर्थिक विकास या'नी इकोनॉमिक डेवलपमेंट में देश के आम लोगों के जीवन में आने वाला गुणात्मक परिवर्तन भी शामिल होता है. आर्थिक वृद्धि हमेशा ही आर्थिक विकास का एक हिस्सा होता है. आर्थिक विकास में मानव विकास सूचकांक से जुड़े पहलू शामिल होते हैं. बेहतर और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, हर नागरिक तक बेहतर स्वास्थ्य सुविधा की पहुँच और जीवन प्रत्याशा में सुधार इसका हिस्सा है.

अच्छे आँकड़ों से आम लोगों का विकास नहीं

कुल मिलाकर सही मायने में आर्थिक विकास तभी सुनिश्चित हो सकता है, जब आर्थिक असमानता की खाई सिकुड़ती जाए. इसके बिना देश के आम लोगों के लिए जीडीपी वृद्धि दर या अर्थव्यवस्था का बढ़ता आकार सामाजिक और आर्थिक दोनों आधार पर कोई ख़ास मायने नहीं रखता है. इस तरह की समझ अभी भारत के आम लोगों की विकसित नहीं हो पायी है. राजनीतिक तंत्र में ऐसी समझ विकसित होने नहीं दिया गया है. इसलिए सत्ता पक्ष से लेकर विपक्ष जीडीपी जैसे शब्दों को सिर्फ़ राजनीतिक माहौल बनाने के लिए इस्तेमाल करता रहा है.

मोदी सरकार दावा कर रही है कि उसके दोनों कार्यकाल में भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार बहुत तेज़ी बड़ा हुआ है. इसके विपरीत कांग्रेस का दावा है कि यूपीए सरकार के कार्यकाल में भारतीय अर्थव्यवस्था के बढ़ने की रफ़्तार अधिक थी. 2004 में भारत की जीडीपी एक ट्रिलियन से कम 709 बिलियन डॉलर थी. 2013 के अंत तक यह आँकड़ा 1.85 ट्रिलियन डॉलर तक पहुँच गया.

भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार 2014 में दो ट्रिलियन डॉलर को पार कर गया था. इस आधार पर कांग्रेस का कहना कि यूपीए सरकार में भारतीय अर्थव्यवस्था के आकार में तीन गुना का इज़ाफ़ा हुआ था. वहीं मोदी सरकार के कार्यकाल में भारतीय अर्थव्यवस्था 3.75  ट्रिलियन डॉलर हो गयी. इस लिहाज़ से मोदी सरकार के दोनों कार्यकाल को मिलाकर अर्थव्यवस्था में दोगुना का भी इज़ाफ़ा नहीं हो पाया. उसी  तरह से कांग्रेस दावा करती है कि यूपीए सरकार में प्रति व्यक्ति आय में तीन गुना से भी अधिक की वृद्धि हुई थी, जबकि मोदी सरकार के कार्यकाल में यह दोगुना ही हो पाया.

आँकड़ों से राजनीतिक माहौल बनाने का खेल

इसी तरह से कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही लगातार यह दावा कर रही हैं कि उनके कार्यकाल में सबसे अधिक लोगों को ग़रीबी रेखा से बाहर निकाला गया. दोनों पक्ष इसके लिए अपने-अपने हिसाब से आँकड़े भी दे रहे हैं. लोक सभा चुनाव के मद्द-ए-नज़र भले ही बीजेपी और कांग्रेस इन आर्थिक आँकड़ों से राजनीतिक माहौल अपने पक्ष में बनाने की कोशिश में जुटी हैं, लेकिन वास्तविकता कुछ और ही है.

देश शुरू से तरक्क़ी की राह पर है और आगे भी रहेगा. आर्थिक वृद्धि होती रहेगी. देश का सकल घरेलू उत्पाद भी बढ़ता जाएगा और देश की अर्थव्यवस्था की बड़ी होती जाएगी. भारत में प्राकृतिक से लेकर मानव हर तरह का संसाधन है. इतनी बड़ी आबादी की वज्ह से भारत पूरी दुनिया के लिए एक बड़ा बाज़ार भी है. यह सारी परिस्थितियां पहले भी थीं और भविष्य में भी रहेगा. हालाँकि इससे आम लोग की स्थिति भी उसी अनुपात में सुधरेगी, इसकी गारंटी नहीं है. अगर ऐसा होता, तो आज़ादी के 76 साल बाद भी देश की इतनी बड़ी आबादी अपने खाने के लिए कल्याणकारी योजनाओं से मिलने वाले अनाज पर निर्भर नहीं होती.

वास्तविक बनाम सियासी मुद्दों में उलझी जनता

जीडीपी वृद्धि दर और अर्थव्यवस्था का आकार जैसे विषय चुनाव के मुद्दे बनने चाहिए, लेकिन यह अधिक कारगर तब होता, जब देश के आम लोगों की आर्थिक समझ का भी विकास होता या किया जाता. अब तो राजनीतिक तौर से स्थित इतनी दयनीय हो गयी है कि तमाम दलों के लिए और साथ ही साथ देश के आम लोगों के लिए भ्रष्टाचार जैसा मुद्दा भी महत्वहीन हो गया है. तभी तो जिस व्यक्ति पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के द्वारा 70 हज़ार करोड़ रुपये के घोटाले का आरोप लगाया जा रहा हो, 5 दिन बाद वहीं व्यक्ति बीजेपी से गठजोड़ कर लेता. यह तो एक उदाहरण मात्र है. कई नाम ऐसे हैं, जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप रहे हों, लेकिन पाला बदलते ही सारे आरोप छू-मंतर हो जाते हैं.

आम लोगों की याददाश्त और राजनीति का खेल

राजनीतिक दलों और उनते तमाम नेताओं को ब-ख़ूबी पता है कि धर्म, जाति, मंदिर-मस्जिद, हिन्दू-मुस्लिम जैसे मुद्दों में खो जाने वाले देश के आम लोगों की याददाश्त बेहद कमज़ोर है. चुनाव आते-आते तक मतदाताओं के एक बड़े वर्ग को न तो जीडीपी से मतलब होगा, न आर्थिक असमानता से जुड़ी चिंता का ख़याल होगा. इस वर्ग में देश के आम और ग़रीब लोग ही शामिल हैं. यह वो वर्ग है जो अपने मताधिकार का प्रयोग करने के लिए मतदान केंद्रों पर बड़ी संख्या में पहुँचता है. इस वर्ग के लोगों के लिए लोकतंत्र में सहभागिता का मतलब सिर्फ़ और सिर्फ़ वोट देने तक सीमित है. यही कारण है कि सब-कुछ जानते हुए भी राजनीतिक दल जीडीपी और अर्थव्यवस्था का आकार जैसे विषय को भी चुनावी फ़ाइदा का मुद्दा सिर्फ़ सतही स्तर पर ही बनाने की कोशिश करते हैं. इन दलों की ओर से कभी भी आर्थिक समझ को विकसित करने पर ज़ोर नहीं दिया जाता है.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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