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BLOG: आदर्श बहू बनाने की पाठशाला क्यों? क्या औरतों को सिर्फ वही बनना है

दरअसल पब्लिक और माता-पिता के जबरदस्त रिस्पांस के बाद ऐसा एक कोर्स डिजाइन किया गया है जो लड़कियों को अच्छी बहू बनने के लिए ग्रूम करेगा.

ये वाराणसी से मजेदार खबरें लगातार आ रही हैं. फेमिनिज्म के खिलाफ पिशाचिनी मुक्ति पूजा के बाद, सुनते हैं, वाराणसी में कोई स्टार्टअप आदर्श बहू बनने की ट्रेनिंग देने वाला है. ये ट्रेनिंग तीन महीने की होगी और इसे वाराणसी के वनिता इंस्टीट्यूट ऑफ फैशन एंड डिजाइन्स ने एक सर्वे के बाद तैयार किया है. पहले कहा जा रहा था कि ये ट्रेनिंग आईआईटी बीएचयू से लिंक्ड है. फिर बाद में यूनिवर्सिटी ने सफाई दी कि ऐसा कुछ नहीं है. इसके बाद स्टार्टअप ने खुद इस बात से इनकार किया कि इस ट्रेनिंग का आईआईटी बीएचयू से कोई लेना-देना है. दरअसल पब्लिक और माता-पिता के जबरदस्त रिस्पांस के बाद ऐसा एक कोर्स डिजाइन किया गया है जो लड़कियों को अच्छी बहू बनने के लिए ग्रूम करेगा- इंस्टीट्यूट के माननीय सीईओ साहब का कहना है. आदर्श बहू बनने की ट्रेनिंग गीता प्रेस वाले पचासियों साल से दे रहे हैं. नारी धर्म, स्त्री के लिए कर्तव्य दीक्षा, दांपत्य जीवन के आदर्श जैसे उनके अंक और किताबें औरतों को सिखाती रही हैं कि उन्हें कैसी बीवी बनना चाहिए. उनकी स्त्री धर्म प्रश्नोत्तरी बताती है कि औरतों का धर्म पति के प्रति वफादार रहना और उन्हें खुश करना है. भले ही यह किताब 1926 में लिखी गई थी लेकिन गीता प्रेस की सबसे ज्यादा बिकने वाली किताबों में यह टॉप पर है. मतलब आदर्श औरत बनना या बनाना आज भी हमारा फेवरेट पासटाइम है. वाराणसी का नया वेंचर इसी की अगली कड़ी है. ऐसी ट्रेनिंग चहुंओर देखी जा सकती है. टीवी सीरियल्स में, विज्ञापनों में, सोशल मीडिया पर. और तो और...खबरों में भी. तभी पुणे में गिरफ्तार मानवाधिकार कार्यकर्ता की बेटी से पुलिस पूछती है- शादी हो गई तो शादीशुदा औरतों जैसे कपड़े क्यों नहीं पहने? सिंदूर क्यों नहीं लगाया? जाहिर सी बात है, हम हर जगह आदर्श बहू को ही देखना चाहते हैं. आदर्श- यानी जो हम तय करें. आदर्श वह जो, मुंह न खोले. आदर्श वह जो मर्द के कहे पर चले. आदर्श वह जो, अपनी देह के कोटर से बाहर सिर न निकाले. हम टीवी पर रोजाना ऐसी औरतों को देखते हैं. इस भ्रम के साथ कि हम उनके संघर्ष की कहानियां देख रहे हैं. एक लड़की डॉक्टर बनना चाहती है, पर ब्याह दी जाती है. ससुराली उसे परेशान करते हैं. पति निखट्टू है- पर हीरो वही है. लड़की को अल्टीमेटली उसी के साथ निभाना है. विरोध करने के बावजूद. दूसरे सीरियल में लड़का परफेक्ट बीवी की तलाश में लगा है- खुद इम्परफेक्ट होने के बावजूद. लड़की परफेक्ट है, पर हीरो उस कहानी में भी इम्परफेक्ट लड़का ही होता है. कहानी का क्लाइमेक्स हमें अभी से पता है, लड़का सुधर सकता है. अपनी गलती मान सकता है. तो, आदर्श बहू वही जो इम्परफेक्ट पति को परफेक्ट बना दे. ये सब ठोक-बजाकर लड़की को आदर्श बहू बना रहे हैं. विज्ञापन दिखा रहे हैं कि मम्मी सारे दाग झटपट धो डालती है. सुबह सुबह दुर्गा जैसे अपने दस हाथों से एक खास ब्रांड के रेडी टू मिक्स प्रॉडक्ट्स से सबकी पसंद का नाश्ता बनाती है- आप फरमाइश करें. कभी-कभार इस भूमिका में पति आ जाते हैं- लेकिन ऐसा कुछेक मौकों पर होता है. वो भी जो बीवी से करे प्यार, तो कैसे किसी खास ब्रांड के बर्तन से करे इनकार. यहां पति भी आदर्श बन जाता है. परफेक्ट-परफेक्ट का खेल चलता रहता है, हम इम्परफेक्ट लोग चुल्लू भर पानी ढूंढते फिरते हैं. लड़कों को कैसी लड़की चाहिए. हर बार सवाल वही होता है. तीन साल पहले ऑनलाइन मैट्रीमोनी सर्विस भारत मैट्रीमोनी ने ट्विटर पर एक प्रतियोगिता आयोजित की थी. इसका नाम था हैशटैग माई वाइफ वुड बी. इसमें आदमियों से उनकी फ्यूचर बीवियों के बारे में पूछा गया था. कुल 20 सवाल थे और जिस आदमी के जवाब सबसे अच्छे थे, उसे 1000 का गिफ्ट वाउचर दिया गया था. सवाल जो थे, सो थे, पर जवाब भी लाजवाब थे. जैसे आदमियों से पूछा गया था कि किस घरेलू काम में वे अपनी बीवियों की मदद लेना चाहेंगे. जीतने वाला जवाब था- मेरी बीवी मुझे घर के सामान की मरम्मत करते समय टूल्स पास करे जैसे कोई नर्स डॉक्टर को ऑपरेशन में मदद करती है. एक सवाल था- आपकी बीवी को आपके दोस्तों को क्यों पसंद करना चाहिए? विजेता जवाब में कहा गया था, ‘क्योकि दोस्त परिवार का सदस्य होते हैं और उसे मेरे परिवार को स्वीकार करना चाहिए.’ इन सवालों को तैयार करने वालों को इस सवाल से कोई मतलब नहीं था कि आदमी बीवी के दोस्तों को पसंद करेगा या नहीं. अपने ससुरालियो से रिश्ता रखेगा या नहीं. कितना घर काम करेगा. बेशक, आदर्श बनने का काम तो औरतों का है. आदमी तो पैदाइशी आदर्श पति, आदर्श बेटे, आदर्श पिता, आदर्श भाई वगैरह होते हैं. अबकी बार कोई डेटा नहीं. डेटा दे-देकर हम थक गए है. हर बार वही कहानी. वही सर्वे की जुबानी. पर फैक्ट्स के आगे सब बेजुबान. एक फैक्ट यह है कि औरतों को जरा-जरा सी बात पर हाइपर सेंसिटिव नहीं होना चाहिए. रोजाना के तानों से परेशान नहीं होना चाहिए. घरेलू उत्पीड़न को सीरियसली नहीं लेना चाहिए. भले ही एनसीआरबी के 2016 के डेटा से यह साफ पता चलता हो कि घरेलू हिंसा के मामले सवा लाख के करीब पहुंच चुके हैं. कोर्ट्स भी यही दोहराते हैं. पिछले साल बॉम्बे हाई कोर्ट ने बीवी को सुसाइड के लिए उकसाने के मामले में एक आदमी को बेल दे दी थी. यह कहकर कि बीवी को ताने मारने का मतलब उसे सुसाइड के लिए उकसाना तो बिल्कुल नहीं है. ताने भी क्या- अंग्रेजी नहीं आती, खाना बनाना नहीं आता. भला बीवी को इतना हाइपर सेंसिटिव क्यों होना चाहिए. मूर्ख कहीं की. तो, भला ऐसी बीवी आदर्श कैसे हो सकती है जो सरेंडर न करे- मामला कोर्ट तक ले जाए. इसी बात पर अमेरिकी लेखिका लॉरा डॉयल की किताब द सरेंडर्ड वाइफ की याद आती है. किताब कहती है कि अगर लाइफ पार्टनर परेशान करता है तो आप सरेंडर कर दें. उनकी नैगिंग मतलब नुक्ताचीनी बंद कर दें और उनका आदर करें. चूंकि सरेंडर करने से ही आपकी शादीशुदा जिंदगी बच सकती है. वाराणसी का स्टार्टअप इस राग के सुर लगा रहा है- पर हम उसे सुनना नहीं चाहते. हम थमाई गई दृष्टि से नहीं, अपनी निगाह से दुनिया को देखना चाहते हैं. जिस तरह दुनिया हमें समझ आती है, उसे बताना चाहते हैं. समाज चाहे घेराबंदी के लिए तैयार खड़ा हो, पर हमें कहां सौ फीसदी शुद्ध सोने सी परफेक्ट बहू-बीवी बनना है. हमें तो 18 कैरेट वाली थोड़ी खोट ही भाती है. नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है
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