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BLOG: पुलवामा के बाद तो सरकारी कागजों में कहिए शहीद को शहीद

सैनिक हो जाना क्या आसान है. दिन-रात का चैन भुलाना होता है. रिश्ते नाते स्मृतियों के हवाले करने होते हैं. बच्चे की किलकारियों से मुंह मोड़ना होता है. नई दुल्हन की मुस्कान से नजर फेरनी पड़ती है. बड़े-बुजुर्गों की जिम्मेदारियां जब चिट्ठियों और मनी ऑर्डर तक सिमट जाएं तब जाकर कोई सैनिक हो पाता है. जब खुद को उनसे जोड़ देना होता है, जिनसे आपको कोई खून का रिश्ता नहीं, जाति का बंधन नहीं, धर्म का जुड़ाव नहीं. सैनिक होने का मतलब है साहस और ईमानदारी. जो किया उसकी जिम्मेदारी लेना, उसके नतीजे से कतराना नहीं.

पुलवामा के शहीद जवानों में यही गुण दिखाई देता है. एक छोटी जूझती सी जिंदगी, जिसकी परिणति गौरवशाली हुई. जी हां, शहीद. आतंकी हमले के शिकार जवानों, अपने प्राणों की आहूति देने वालों को हम और आप शहीद ही कहेंगे. पर सरकारी रिकॉर्ड ऐसा नहीं करते. वे उन्हें शहीद नहीं कहते. इसीलिए देश की तीनों सेनाओं के जवानों को शहीद होने पर जो सुविधाएं मिलती हैं, वे भी अर्ध सैनिक बलों के जवानों के हिस्से नहीं आतीं. यूं सुविधाओं से क्या होने वाला है... सुविधा मिल जाने से चंदौली के हेड कॉन्स्टेबल अवधेश यादव की कैंसर पीड़िता मां के आंसू नहीं थम जाएंगे. न ही जयपुर के कॉन्स्टेबल रोहिताश लांबा की दुधमुंही बच्ची के सिर से उठ चुका पिता का साया वापस आएगा. मोगा के जयमाल सिंह का बेटा, जो माता-पिता की शादी के 18 साल बाद जन्मा था, उसे पिता का प्यार अब फिर कभी नहीं मिलेगा. न नदिया के खेत मजदूर संन्यासी बिस्वास की आंखें 27 साल के अपने बेटे सुदीप के सात फेरों के सपने देख पाएंगी. सुविधा से ये सब वापस लौटने वाले नहीं.

फिर भी शहीद कहलाना फख्र की बात है. उन्नाव के कॉन्स्टेबल अजीत कुमार आजाद के पिता से पूछिए. उनका बेटा तो 2007 से सीना चौड़ा करके शहीद कहलाने के सपने देखा करते थे. इज्जत से ज्यादा क्या हो सकता है. इसी इज्जत की लड़ाई एक बुजुर्ग पिता नौ साल से लड़ रहा है. छत्तीसगढ़ के दांतेवाड़ा में 2010 में एक मुठभेड़ में मारे गए निर्वेश कुमार के पिता ने कहीं कहा था कि सेना दुश्मन से सीमा पर लड़ती है. पैरा मिलिट्री फोर्स के जवान देश की सुरक्षा के लिए देश के अंदर के दुश्मनों से. तो दोनों के बीच गैर बराबरी क्यों? क्या बात सिर्फ सुविधाओं की है. जाहिर सी बात है. हर जवान दुश्मन सेना से लोहा लेते हुए सीने पे गोली नहीं खाता. कोई आतंकी हमले का सामना करते हुए, कोई देश के भीतर बैठे दुश्मनों से मुठभेड़ करते हुए और कोई बाढ़ में किसी की जान बचाते हुए वीरगति को प्राप्त होता है. प्राण दोनों गंवाते हैं. ड्यूटी पर दोनों रहते हैं. वर्दी दोनों पहनते हैं, लेकिन एक शहीद कहलाता है, दूसरा नहीं. एक भारतीय सेना में होता है. दूसरा अर्ध सैनिक बल में. दोनों का अलग-अलग दर्जा, अलग-अलग सुविधा. अब तो पैरा मिलिट्री फोर्सेज़ के जवानों को मिलिट्री की तरह पेंशन भी नहीं मिलती. सरकार ने 2004 से सरकारी कर्मचारियों की पेंशन बंद की तो पैरामिलिट्री फोर्सेज़ में भी पेंशन बंद हो गई. वे सेना का हिस्सा हैं ही कहां.

भला हम इन सुविधाओं की बात क्यों न करें? शहीद का आधिकारिक दर्जा मिलने के बाद उसके परिवार को कुछ अतिरिक्त सुविधाएं मिलती हैं. यूं राज्य सरकारें शहीद के परिवार को सुविधाएं देने की घोषणा करती हैं, लेकिन इस संबंध में कोई स्पष्ट या स्थापित नीति नहीं. शहादत के बाद शहीद के परिवार को क्या-क्या मिलता है? शादीशुदा होने पर बीवी को रिटायरमेंट तक पूरा वेतन मिलता है. पेट्रोल पंप और गैस एजेंसी बांटते समय उन्हें प्रायोरिटी मिलती है. जमीन या मकान दिए जाते हैं. राज्य सरकारें परिवार के सदस्यों को नौकरियां देती हैं. हवाई और रेल किराए में पचास परसेंट की छूट मिलती है. मेडिकल इलाज, सीएसडी कैंटीन या एजुकेशनल इंस्टीट्यूट्स में बच्चों का एडमिशन. भला, ये सुविधाएं पैरा मिलिट्री फोर्सेज के जवानों को क्यों न मिलें? दो शहीदों के बीच गैर बराबरी का मंतव्य क्या है.

इस सिलसिले में केंद्र सरकार सालों से विचार कर रही है. गृह राज्यमंत्री हंसराज अहीर इस संबंध में दो साल पहले वादा भी कर चुके हैं, लेकिन कागजों में अब भी पैरा मिलिट्री फोर्स के जवान शहीद नहीं होते, मारे जाते हैं. पिछले साल इसे लेकर दिल्ली हाई कोर्ट में एक याचिका भी दायर की गई थी. याचिका में कहा गया था कि हालांकि पिछले 53 सालों में पैरा मिलिट्री फोर्सेज़ के 31 हजार से ज्यादा जवान अपने कर्तव्य को निभाते हुए अपने प्राणों को होम कर चुके हैं, फिर भी सरकारें चुप्पी साधे बैठी हैं. इस याचिका पर केंद्र सरकार ने कोर्ट के सामने कहा था कि इस पर कार्रवाई की जाएगी, लेकिन बात ज्यों की त्यों रही.

अब पुलवामा की शहादत के बाद हमें फिर से इस पर विचार करना होगा. बहस-मुबाहिसा नहीं, दहशतगर्दों के मंसूबों को विफल करना होगा और देश के लिए शहीद होने वालों को उनका हक देना होगा. इसके लिए उस नैतिक स्पष्टता की जरूरत है जोकि अब दुर्लभ हो चुकी है. खैर, मशहूर लेखक मुक्तिबोध कह गए हैं, जिंदगी मुश्किल है लेकिन इतनी मीठी भी कि एक घूंट में पी जाएं. पुलवामा में जवानों ने इसी फलसफे को जिया है. उनकी स्मृति को नमन.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

 
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