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Opinion: अमेरिका कभी नहीं छोड़ेगा इजरायल का साथ, बाइडेन का तेल अवीव जाना इसका बड़ा प्रमाण

इजरायल और हमास के बीच जो युद्ध शुरू हुआ, वह 12 दिनों से चल रहा है. अमेरिका और ब्रिटेन की जहां तक बात है, उनकी सॉलिडैरिटी कहीं न कहीं इजरायल के साथ ही है. पिछले कई वर्षों से अमेरिका की बौद्धिक क्षमता का, और कुछ हद तक आर्थिक क्षमता के भी बैकबोन इजरायल के लोग हैं. इसी कारण अमेरिका कभी भी इजरायल का साथ नहीं छोड़ता है, वह इजरायल का साथ छोड़ कर पश्चिम एशिया में अपने हित भी नहीं साध सकता है. उसको लगता है कि हमास के खिलाफ जो युद्ध चल रहा है, उसमें अमेरिका को इजरायल के साथ ही रहना चाहिए, बस उसका डर ये है कि युद्ध का दायरा कहीं बहुत व्यापक न हो जाए.

बाइडेन भी इजरायल होकर आए हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि युद्ध अभी कुछ दिन और चलेगा और कहीं इजरायल को खत्म करने के एजेंडे पर, इस्लामिक ब्रदरहुड के नाम पर, मिडल ईस्ट के देश कहीं एक न हो जाएं, इसलिए वह बार-बार इजरायल के साथ की बात दोहराते हैं. वह यह कहना नहीं भूले कि अमेरिका इजरायल के साथ चट्टान की तरह खड़ा है. ऐसा इसलिए कि वह पश्चिम एशिया के देशों को संदेश देना चाहते थे कि अमेरिका उस पूरे इलाके में शांति की कोशिश कर रहा है, वह इजरायल को भी मना रहा है, लेकिन वे संयम रखें और एक साथ मिलकर इजरायल पर धावा न बोल दें. 
समस्या है बहुस्तरीय और पुरानी

ऋषि सुनक की अगर हम बात करें, तो यह बात किसी से छिपी नहीं है कि बेलफोर्ड डेक्लरेशन जो प्रथम विश्वयुद्ध के समय हुआ था, और ब्रिटेन ने ऑटोमन अंपायर को हरा कर इजरायल  पर (जहां आज इजरायल है, उस जमीन पर) कब्जा किया था. उन्होंने तब यहूदियों से यह भी वादा किया था कि वे अगर ब्रिटेन की मदद करें तो वह उनके लिए इजरायल भी बनाने में मदद करेगा. उस समय यहूदी यूरोप के कई देशों में अच्छा-खासा जीवन बिता रहे थे और आर्थिक तौर पर ताकतवर भी थे. ब्रिटेन को युद्ध लड़ने के लिए उन्होंने मदद भी की थी। हालांकि, इसके बाद भी ब्रिटेन ने 20 वर्षों से भी अधिक का समय लिया और राजनीतिक सत्ता यहूदियों के हाथ में नहीं दी. वर्साय की संधि और हिटलर के उदय के बाद स्थितियां बदलीं. हिटलर को यही लगा कि यहूदियों ने तो ब्रिटेन का साथ दिया है और फिर नाजियों ने हॉलोकास्ट किया, जिसमें 60 लाख यहूदी मारे गए. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद कहीं न कहीं एक सहानुभूति थी और इसीलिए 14 मई 1948 को उनके लिए इजरायल का गठन कर दिया. इजरायल के बनने के बाद से ही पूंजीवादी देश जिनका अगुआ अमेरिका है और ब्रिटेन उसके साथ है, वे इजरायल के साथ ही रहे. उन्होंने गाहे-बगाहे बैलेंसिग एक्ट के तहत फिलीस्तीन का नाम भले लिया हो, लेकिन उनकी रणनीति यही रही है कि इजरायल को ही समर्थन दिया जाए.   

भारत बनाए हुए है हालात पर नजर

हमारे देश के फिलीस्तीन और इजरायल दोनों के साथ अच्छे संबंध हैं. नरेंद्र मोदीनीत सरकार ने इजरायल और फिलीस्तीन दोनों ही के मसलों को बहुत संतुलित तरीके से, संवेदनशीलता के साथ उठाया है. हम लोग आगे बढ़े हैं. बाइडेन और ऋषि सुनक सीधे तौर पर पश्चिम एशिया की भू-राजनीति, या तेल की कूटनीति या वैश्विक संसाधनों पर वर्चस्व जमाने की जो राजनीति है, उसके लिए जिम्मेदार हैं. व्यक्तियों का नाम लेने का मतलब उनके देशों यानी अमेरिका और ब्रिटेन से है. तो, पश्चिम एशिया की उथल-पुथल के लिए कहीं न कहीं ये दोनों देश ही जिम्मेदार हैं. समस्या ये है कि इसमें कई और देश कूदने को तैयार हैं. तुर्किए ने भी हमास के लिए समर्थन जताया है, वह यूरोप के कई देशों के भी करीब है. उधर रूस और यूक्रेन का युद्ध चल ही रहा है. तो, इनको डर है कि इसकी चिंगारी यूरोप के देशों तक न पहुंच जाए, इसलिए वे इसके लिए मेहनत कर रहे हैं. 

भारत की जहां तक बात है, वह इस मामले को लेकर चिंतित है, हमारा पूरा कंसर्न इस मामले पर है कि मानवीय त्रासदी और न बढ़े. बाकी, भारत का आतंक को लेकर और युद्ध को लेकर जो स्टैंड है, वह पूरी दुनिया को पता है. भारत ने हालांकि यह हमेशा कहा है कि दोनों देश आपसी विवादों का निबटारा शांतिपूर्ण तरीके से और वार्ता के जरिए करें. भारत ने ये भी प्रस्ताव दिया है कि इसमें भारत की जो भी भूमिका होगी, वह निभाने को तैयर है. भारत सजग है, चिंतित है और पूरे हालात पर नजर भी बनाए हुए है, लेकिन वह हड़बड़ी में नहीं है. भारत को पता है कि उसको इस मुद्दे पर कब और क्या स्टैंड लेना है? 

दिक्कत ये है कि हमारे देश की जो विपक्षी पार्टियां हैं, वे मुस्लिम अपीजमेंट के लिए ही फिलीस्तीन के पक्ष में खड़े होते हैं, क्योंकि उनको लगता है कि हमारे देश के मुसलमान फिलीस्तीन के साथ हैं और अगर वे उनके हक में बयान देंगे तो उनको चंद वोट मिल जाएंगे. अपोजीशन के इस एडवेंचरिज्म में सरकार को नहीं फंसना चाहिए.  

भारत का स्टैंड जस का तस

पिछली तमाम सरकारों ने नेहरू के समय से फिलीस्तीन का समर्थन किया है. मोरारजी भाई, अटलजी और नरेंद्र मोदी की सरकार ने भी फिलीस्तीन का समर्थन किया है, लेकिन आतंकवाद के खिलाफ ये सरकार रही है. नरेंद्र मोदी की सरकार ने ये साफ कर दिया है कि आतंक के साथ समझौता नहीं हो सकता. उन्होंने कहा है कि दोनों ही पक्ष बातचीत करें, मसलों को हल करें, लेकिन उसमें आतंक की जगह नहीं है. जहां तक शांतिवार्ता की बात है, तो चार से अधिक बार इजरायल और फिलीस्तीन शांति की मेज पर भी बैठे हैं. इजरायल हरेक बार टू-नेशन थियरी के लिए राजी भी हो जाता है, लेकिन फिसीस्तीन के जो चरमपंथी हैं, वे एक इंच जमीन भी देने को तैयार नहीं हैं.

उनको पूरा का पूरा इजरायल ही चाहिए. ऐसा हो नहीं सकता. भारत इस पूरी बात को समझता है कि यह मामला कितना संवेदनशील है. बिल क्लिंटन के समय भी यासर अराफात 14 दिनों तक अमेरिका में जाकर बातचीत करते रहे, उम्मीदें भी जगी थीं कि कई सारे विषयों पर शायद सहमति बन जाए, लेकिन आखिर तक जाते-जाते चीजें बिगड़ जाती हैं. भारत को इन सभी हकीकतों का पता है, वह हालात पर नजर रखे हुए है. वह जल्दबाजी में कोई कदम उठाकर बनी हुई बात तो नहीं बिगाड़ेगा. अगर मध्यस्थता की बात ही है तो वह तब तक नहीं हो सकता है, जब तक दोनों ही पक्ष पूरी तरह समझौते पर सहमत न हो जाएं. इसके लिए फिलीस्तीन के चरमपंथियों का हृदय परिवर्तन ही एकमात्र उपाय है. भारत अपने हाथ तो नहीं ही जलाएगा.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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