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(Source: ECI / CVoter)

Holi 2024: एटा में होली का 500 साल पुराना है इतिहास, आज भी दिखती है गंगा-जमुनी संस्कृति की झलक

Etah News: एटा जनपद की होली गंगा-जमुनी संस्कृति की प्रतीक रही, मोहल्ले की हिन्दू-मुस्लिम एकता की प्रतीक 500 साल पुरानी होली आज भी राष्ट्रीय अस्मिता व साम्पदायिक सौहार्द की प्रतीक है. 

Holi 2024: एटा जनपद की होली गंगा-जमुनी संस्कृति की प्रतीक रही, मोहल्ले की हिन्दू-मुस्लिम एकता की प्रतीक 500 साल पुरानी होली आज भी राष्ट्रीय अस्मिता व साम्पदायिक सौहार्द की प्रतीक बनी हुई है. तत्कालीन एटा जनपद के पटियाली में पैदा हुये खड़ी बोली हिंदी के पहले कवि, तबला और तानपूरा का अविष्कार करने वाले सूफी कवि हजरत अमीर खुशरो ने अपने गुरु निजामुदीन औलिया को होली के दिन अपनी मॉ के सामने राग बहार गाकर ये पंक्तिया समर्पित की थी. जो आज भी एटा की इस होली मोहल्ले की होली में हिन्दू मुस्लिम एकता व सद्भाव की मिसाल बनी हुई है.

एटा जनपद में होली का इतिहास 500 साल पुराना है. बताया जाता है कि एटा शहर की स्थापना 16वी शताब्दी में हुई थी और तभी से यहां होली का त्यौहार बड़ी धूम धाम से मनाया जाता है. वर्तमान समय में एटा 500 साल पुरानी होली की परंपरा के कारण ही जनपद मुख्यालय पर स्थिति इस मोहल्ले का नाम ही होली मोहल्ला पड गया है. ये मोहल्ला गढ़ी लवायन से लगा हुआ है और इसका इतिहास उतना ही पुराना है जितना एटा का इतिहास पुराना है.

500 सौ साल पुराना है होली का इतिहास
बताया जाता है कि आज से लगभग 500 साल पहले तत्कालीन एटा शहर के इसी मोहल्ले में एक मात्र होली जलती थी और उस समय एटा इसी मोहल्ले के आस पास की बसावट हुआ करती थी. यहीं पर होली के पर्व पर सभी लोग एकत्रित होते थे और होलिका दहन करके यहां बनी हुई नान्दो में पहले से भिगोकर रखें गए टेसू के फूलों के रंग से होली खेली जाती थी.

इसके बाद शहर में होली के गीत, चौपाई गाते हुये लोगों की टोली गुजरती थी जिसे चौपाई कहा जाता था. ये चौपाई ढ़ोल मंजीरों के साथ  होली के गीत गाते हुये प्रत्येक मोहल्ले व घर के सामने से गुजरती थी और लोग इस चौपाई पर हुरियारे रंगों की बौछार करते थे. उस समय होली का त्यौहार 8 दिनों तक चलता था और लोग एक दूसरे के यहां जाकर गले मिलकर जुहारी किया करते थे.

प्राकृतिक रंगों से खेली जाती है होली
ये परंपरा आज भी जारी है लेकिन इसमें अब वो बात नहीं झलकती, अब औपचारिकता ज्यादा होती है. होली के अवसर पर भांग की ठंडाई बनायीं जाती थी जिसके सेवन के साथ साथ लोग होली के गीतों पर झूमते और नृत्य करते थे. ये क्रम सुबह से शुरू होता था और शाम तक चलता था. इसी होली वाली जगह एक कुआं बनाया गया था जिसके आस पास बनी हौदियों में टेसू के फूलों से बने प्राकृतिक रंगों से होली खेली जाती थी.

उसके बाद सभी लोग इसी किए के पानी से स्नान करके होली के रंगों को छुड़ाते थे. ये कुआँ आज भी होली मोहल्ले की पहचान बना हुआ है और छतरी वाले कुएं के रूप में जाना जाता है. इस कुए का निर्माण 1890 में राजा दिलसुख राय ने करवाया था. जिसका आगे चलकर गढ़ी लवायन स्टेट के राजा ने 1930 में जीर्णोद्धार कराया था. समय बीतने के साथ साथ ये कुआँ कालांतर में बंद हों गया लोग इसमें कूड़ा डालने लगे थे.

विधायक ने कुएं का कराया सौंदर्यीकरण
वर्तमान में एटा सदर विधायक विपिन वर्मा की विधायक निधि से इसका सौंदर्यीकरण करवाकर इसके ऊपर टीन की छतरी डाली गयी और इसकी पुरानी पहचान को कायम करने की कोशिश की गयी. इस जगह पर एटा जनपद की सबसे प्राचीन लगभग 500 साल पुरानी होली रखने के कारण ही इस मोहल्ले का नाम ही होली मोहल्ला पड गया.

बताया जाता है कि 16 वी शताब्दी के लगभग एटा में राजा प्रताप सिंह के समय से इस होली की परंपरा इसी जगह पर कायम रही. उसके बाद 1803 में राजा हिम्मत सिंह और उसके बाद उनके पौत्र राजा डम्बर सिंह जो 1857 के क्रन्तिकारी रहे उनके समय में भी ये होली की परम्परा कायम रही जो आज तक बादस्तूर जारी है.

एटा की इस होली मोहल्ले की प्राचीन होली की परम्परा आज भी बदस्तूर जारी है. आज भी एटा जनपद में सबसे बड़ी होली होली मोहल्ले की ही होती है और सबसे पहले इसी होली में आग लगायी जाती है उसके पश्चात अन्य होली जलायीं जातीं हैं. इस होली से आग लें जाकर शहर के अन्य मोहल्ले की होलियों में अग्नि प्रज्वलित की जाती है.

गले मिलकर हैं हिंदू मुस्लिम
हालाँकि वक्त बदलने के साथ साथ भले ही अब होली के त्यौहार का वो जोश और जूनून पहले जैसा नहीं रहा परन्तु आज भी एटा जनपद के होली मोहल्ले की ये होली अपनी अलग छाप रखती है. होली मोहल्ला मुस्लिम मिश्रित आवादी का मोहल्ला है, यहाँ आज भी हिन्दू मुस्लिमों द्वारा गले मिलकर होली खेलने की परम्परा कायम है.

होलिका दहन से पूर्व महिलाये होली की पूजा करतीं हैं और होलिका दहन के बाद पुरुष होली के चारों और मंत्रोच्चार करते हुये 7 चक्कर लगाकर जौ की बालियों को होली की आग में भूंजकर आखत ड़ालते हैं. इसी होली में से एक सुलगता हुआ कांडा घर में लाकर घर में गुलरियों आधी से बनायीं गयी प्रतीकात्मक होली को महिलाये जलाकर उसकी पूजा अर्चना करतीं हैं. आज भी यहां की होली सबसे बड़ी होती है और सबसे पहले यहां हवन पूजन और पूरे धार्मिक रीति रिवाज़ के अनुसार होलिका दहन होता है. 

इस होली को रखने से पूर्व इसके स्थल को गाय के गोबर से लीपा जाता है. उसके बाद मंत्रोच्चारण के साथ ही इसमें लकड़िया रखी जाती हैं. इसके बाद हवन पूजन के साथ होलिका स्थापित होती है. इस होली की छोटी पर होलिका माता की बड़ी मूर्ती स्थापित की जाती है. उसके बाद होली से एक दिन पूर्व घरों की महिलाये होलिका का पूजन करती हैं और सुवह की बेला में धार्मिक मंत्रोच्चर के बाद होलिका दहन होता है.

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