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मारवाड़ के 'महाराणा प्रताप', जिन्होंने राजपाट छोड़ जंगल में जीवन बिताया, नहीं स्वीकार की अकबर की गुलामी

राजस्थान के मेवाड़ महाराणा प्रताप को तक पूरा विश्व जानता है लेकिन इनसे पहले एक योद्धा हुए जिन्होंने अकबर से टक्कर की और अधीनता स्वीकार नहीं ही. महलों का सुख छोड़ जंगल रहे. वह है जोधपुर शासक राव चंद्रसेन

Rajasthan History: राजस्थान का मेवाड़ जो अपनी वीरता, त्याग और बलिदान के लिए विश्व में प्रसिद्ध है और यहां भी एक वीर जिन्हें पूरा विश्व जानता है, वह महाराणा प्रताप. जिन्होंने अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं कि और स्वतंत्रता के लिए लड़ते रहे. लेकिन शायद बहुत कम लोग जानते हैं कि इन महाराणा प्रताप से पहले भी एक और योद्धा हुए जिन्होंने राज पाट छोड़ जंगल में जीवन बिताया लेकिन अकबर की स्वतंत्रता स्वीकर नहीं की. इन्हें राजस्थान के पहले अकबर कालीन स्वतंत्र प्रकृति का शासक माना गया. यानी जो भी महाराणा प्रताप ने बाद में किया, उनसे पहले वह योद्धा कर चुका था. आइये जानते हैं उन शासक का नाम और क्या है उनका इतिहास. 
 
जिन योद्धा की हम बात कर रहे हैं उनका नाम है जोधपुर के शासक राव चंद्रसेन. चन्द्रसेन का जन्म 1541 ई. में हुआ. पिता राव मालदेव अपने ज्येष्ठ पुत्र राम से अप्रसन्न थे, जबकि उनके छोटे पुत्र उदयसिंह को पटरानी स्वरूपदे (चन्द्रसेन की मां) ने राज्याधिकार से वंचित करवा दिया. इस कारण मालदेव की मृत्यु के बाद उसकी इच्छानुसार 31 दिसम्बर 1562 ई. को चन्द्रसेन जोधपुर की गद्दी पर बैठे. मालदेव के काल में उन्हें बीसलपुर और सिवाना की जागीर मिली हुई थी. शासक बनने के कुछ ही समय बाद चन्द्रसेन ने आवेश में आकर अपने एक चाकर की हत्या कर दी. इससे जैतमाल और उससे मेल रखने वाले कुछ अन्य सरदार अप्रसन्न हो गए. नाराज सरदारों ने चन्द्रसेन को दण्डित करने के लिए उसके विरोधी भाइयों राम, उदयसिंह और रायमल के साथ गठबंधन कर उन्हें आक्रमण के लिए आमन्त्रित किया. तीनों भाइयों ने उपद्रव शुरू किया. इसमें चंद्रसेन और उदयसिंह ने लोहावट नामक स्थान पर संघर्ष किया. इस युद्ध में उदयसिंह घायल हुआ और चन्द्रसेन विजयी रहा. उदयसिंह बादशाह अकबर के पास चला गया. 
 
 
 
जोधपुर पर मुगल का अधिकार
राव चन्द्रसेन के नाराज भाई राम, उदयसिंह व रायमल के साथ आपसी कलह के कारण 'अकबर को हस्तक्षेप करने का मौका मिल गया. उसने शीघ्र ही हुसैनकुली खां की अध्यक्षता में एक सेना भेजी जिसने जोधपुर पर अधिकार कर लिया. जोधपुर की ख्यात में मुगल अभियान का अतिरंजित वर्णन करते हुए कहा गया है कि शाही सेना ने जोधपुर पर तीन बार हमला किया और लगभग दस माह के घेरे के बाद चन्द्रसेन को अन्न-जल की कमी के कारण गढ़ का परित्याग कर भाद्राजूण जाना पड़ा. जोधपुर हाथ से निकलने के बाद चन्द्रसेन की आर्थिक स्थिति बिगड़ने लगी और वह अपने रत्न आदि बेचकर खर्च चलाने लगा. पं. विश्वेश्वरनाथ रेऊ ने अकबर द्वारा जोधपुर पर आक्रमण का प्रमुख कारण जोधपुर के राव मालदेव द्वारा उसके पिता हुमायूं के प्रति किए गए असहयोग को माना है.
 
चंद्रसेन के खिलाफ यहां से शुरू हुआ मुगलों का अभियान
नागौर दरबार के कुछ समय बाद मुगल सेना ने भाद्राजूण पर आक्रमण कर दिया. फरवरी 1571 ई. में चन्द्रसेन भाद्राजूण का परित्याग कर सिवाणा की तरफ चले गए. 1572 ई. में एक तरफ जहाँ गुजरात में विद्रोह फैला हुआ था, वहीं दूसरी तरफ महाराणा प्रताप के शासक बनने से मेवाड़ के भी आक्रामक होने का खतरा पैदा हो गया. ऐसी स्थिति में अकबर ने बीकानेर के रायसिंह को जोधपुर का शासक बनाकर गुजरात की तरफ भेजा ताकि महाराणा प्रताप गुजरात के मार्ग को रोककर हानि न पहुँचा सके. 1573 में चंद्रसेन को अधीन करने के लिए सेना भेजी. यहां से वह किले की रक्षा का भार छोड़कर पहाड़ों में चले गए. 1580 ई. तक ऐसा ही चलता रहा. अकबर सेना भेजता रहा और चंद्रसेन कभी जीते तो कभी किलो को छोड़ पहाड़ों में जाना पड़ा. 11 जनवरी 1581 में चंद्रसेन की मृत्यु हो गई. जोधपुर राज्य की ख्यात के अनुसार एक सामंत वैरसल ने विश्वासघात कर भोजन में जहर दे दिया जिससे चंद्रसेन की मृत्यु हुई. 
 
चन्द्रसेन और प्रताप
माध्यमिक शिक्षा बोर्ड राजस्थान की कक्षा 12वीं की पुस्तक भारत का इतिहास के मुताबिक राव चन्द्रसेन और महाराणा प्रताप दोनों मुगल बादशाह अकबर के साथ आजीवन संघर्ष के लिए प्रसिद्ध हैं. उस समय सारे हिन्दुस्तान में महाराणा प्रताप और राव चन्द्रसेन, यही दो वीर ऐसे थे, जिन्होंने न तो अकबर की अधीनता स्वीकार की और न अपने घोड़ों पर शाही दाग लगने दिया. इनके शस्त्र हमेशा ही मुगल सम्राट के विरुद्ध चमकते रहे. चन्द्रसेन व प्रताप दोनों को अपने भाई-बन्धुओं के विरोध का सामना करना पड़ा. प्रताप की भांति चन्द्रसेन के अधिकार में मारवाड़ के कई भाग नहीं थे. मेवाड़ के माण्डलगढ़ और चित्तौड़ पर तो मारवाड़ के मेड़ता, नागौर, अजमेर आदि स्थानों पर मुगलों का अधिकार था. समानता के साथ दोनों शासकों की गतिविधियों में मूलभूत अन्तर भी पाया जाता है. दोनों शासकों ने अपने-अपने पहाड़ी क्षेत्रों में रहकर मुगलों को खूब छकाया किन्तु प्रताप के समान चन्द्रसेन चावंड जैसी कोई स्थायी राजधानी नहीं बसा पाया. विशेष अवसर पर चन्द्रसेन की उपस्थिति व मुगल सेना को विकेन्द्रित करने से प्रताप को सहयोग मिला. चंद्रसेन को प्रताप का अग्रगामी तथा मारवाड़ का प्रताप भी कहा जाता है. 
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