आसिया कुरैशी: एक लड़की के ज़िद्दी सपनों की कहानी

एक लड़की के ज़िद्दी सपनों की कहानी
आसिया कुरैशी
रंजना त्रिपाठी
एक साल और बीता. सर्दियों की शाम थी. आज ज़ोर की ठंड पड़ रही थी. दिल्ली की सर्दियां तो रज़ाई से निकलने नहीं देतीं, लेकिन आसिया को निकलना था, क्योंकि युसुफ के घर आने का समय हो रहा था और रात के डिनर की तैयारी भी करनी थी.
दरवाजे पर घंटी बजी, युसुफ की अम्मी ने दरवाज़ा खोला. “कैसी हो अम्मी?” युसुफ दीवार पर लगी कील में कार की चाबी टांगने के बाद लैपटॉप बैग को डाईनिंग टेबल पर रखते हुए बोला. “ठीक ही हूं, आज सुबह से चक्कर आ रहे हैं.” और अम्मी डाईनिंग टेबल से लगी कुर्सी खिसका कर बैठ गई.
“चक्कर क्यों आ रहे हैं?” युसुफ ने अपनी अम्मी का माथा छू कर यह यकीन करना चाहा, कि कहीं बुखार तो नहीं है, “बुखार नहीं है वैसे. सुबह क्या खाया था?” “खाना क्या है, चाय पी थी बस.” और अम्मी ने इतना कहकर सिर पकड़ लिया. “खाना खाने का दिल नहीं किया. दूध भी नहीं था घर में. होता तो वही पी लेती.”
“अरे खाना नहीं खाती, बिस्किट ही ले लेती,” युसुफ ने कहा, “ब्रेड खा लेती. कुछ तो खाती. तुम्हें मालूम है, कि मैं तुम्हारी तबीयत को लेकर कितना परेशान हो जाता हूं. अभी कोई बात हो गई तो.” “घर में बिस्किट, ब्रैड भी नहीं थी. तुम जानते हो कि मैं सुबह एक ग्लास दूध के साथ अपने पसंदीदा बिस्किट खाती हूं,” मां ने तेज़ आवाज़ में युसुफ को जवाब दिया.
“सारा-सारा दिन गाड़ी लेकर घूमती है और अम्मी के बिस्किट खत्म हो गए, ला नहीं सकती थी? दूध भी नहीं था, तुझे मालूम है न कि मेरी अम्मी दूध की शौकीन हैं.” सिर्फ इतना कहने भर की देर थी और युसुफ ने आसिया के गाल पर ज़ोर का थप्पड़ जड़ दिया.
थप्पड़ इतनी तेज़ था कि आसिया के कान पर एक सन्नाटा ठहर गया. आंखों से आंसू गिर रहे थे, लेकिन होंठ खामोश थे. वह समझ ही नहीं पाई, कि अचानक से यह जो थप्पड़ उसके गाल पर लगा था, इसमें उसकी क्या गलती थी. किसी ने दूध नहीं पिया, किसी ने बिस्किट नहीं खाया, किसी के सिर में दर्द था, तो उसका जवाब आसिया क्यों दें. आसिया कई सारे सवाल अपनी आंखों में लिए, दीवारों से बातें करने लगी, “देखा अम्मी, यदि तुम बचपन में बता देती कि गर्मी को कैसे देखा जा सकता है, तो मैं अब तक अपने सपनों के पीछे न भाग रही होती. अब्बू यदि कुछ हज़ार रुपए अपनी ज़िंदगी भर की कमाई में से मेरे ऊपर खर्च कर देते, तो मैं इन अजनबी लोगों के बीच अपने टूटे हुए टेप रिकॉर्डर की किच्चियां न बीन रही होती.”
2008, 17 दिसंबर की सुबह. सुबह साढ़े छह बजे. साईड टेबल पर पानी की बोतल के साथ लिफाफे में रखा एक नोट युसुफ को मिला.
“युसुफ,
मैंने अपनी ज़िंदगी के पच्चीस बरस सिर्फ शिकायतें करने में निकाल दिए. कभी अब्बू से शिकायत की, तो कभी अम्मी से. कभी रिश्तेदारों से शिकायत की, तो कभी दुनिया से, कभी तुमसे शिकायत की तो कभी अपने आप से. लेकिन असल जीवन में शिकायतों का कोई मतलब नहीं होता. शिकायतें महज भ्रम हैं, किसी पर भी अपना अधिकार जताने का एक बेहद ही गैरज़रूरी हथियार.
दुनिया बदल देने की कूव़त तो नहीं मेरे पास, लेकिन खुद को बदलना सीख लूं शायद.
आसिया.”
अंधेरा छिप चुका था. सर्दी अपने चरम पर थी. जंगली गुलाब जो जून की चांदनी रातों में खिलता है, दुनिया के किसी कोने में फूला हुआ था. साफ और धुंधले पड़ते आकाश में एक हवाई जहाज़ सफेद रंग का धुआं पीछे छोड़ते हुए गुज़र गया था. धुआं सूरज की रोशनी से गाढ़े हो चुके आसमान में धुंधले पड़ चुके तारों की ओर तेज़ गति से बढ़ रहा था. रात के निडर साए झील के तट पर दिखाई देने शुरू हो गए थे. किसी बुलबुल ने धीमी-सी तान छेड़ी और दुनिया भर की नीरवता भंग करते हुए संपूर्ण धरती पर बिछ गई.
और, आसिया अपने इकलौते सवाल को अपने साथ लिए बाकी सबकुछ छोड़ कर जा चुकी थी... वही सवाल, जिसका उत्तर उसे कभी नहीं मिला, कि “गर्मी को कैसे देखा जा सकता है?”
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(रंजना त्रिपाठी की कहानी का अंश प्रकाशक जगरनॉट बुक्स की अनुमति से प्रकाशित)
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