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आत्महत्या की कोशिश के लिए मुकदमे से रोकने वाले कानून की वैधता पर सुनवाई करेगा SC, कही ये बात

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वह मेंटल हेल्थकेयर एक्ट के सेक्शन 115 की वैधता पर सुनवाई करेगा. इस मसले पर सरकार से जवाब दाखिल करने को कहा गया है.

नई दिल्ली: जब IPC के तहत आत्महत्या की कोशिश को अपराध माना गया है, तब क्या नया कानून बनाकर ऐसा करने वालों को मुकदमे से बचाया जा सकता है? यह सवाल सुप्रीम कोर्ट ने उठाया है. कोर्ट ने आज कहा कि वह मेंटल हेल्थकेयर एक्ट के सेक्शन 115 की वैधता पर सुनवाई करेगा. इस मसले पर सरकार से जवाब दाखिल करने को कहा गया है.

मेंटल हेल्थकेयर एक्ट (2017) के सेक्शन 115 में लिखा है कि कोई व्यक्ति दिमागी परेशानी की वजह से आत्महत्या की कोशिश करता है. इसलिए, उसके ऊपर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता, जबकि इंडियन पीनल कोड (IPC) की धारा 309 के तहत आत्महत्या की कोशिश को दंडनीय अपराध माना गया है. इसके लिए 1 साल तक की सजा का प्रावधान है. मेंटल हेल्थकेयर एक्ट के चलते IPC 309 निष्प्रभावी हो गया है.

इस मामले में याचिका पशु अधिकार कार्यकर्ता संगीता डोगरा ने दाखिल की थी. उनका कहना था कि देश के अलग-अलग चिड़ियाघर में लोग आत्महत्या के मकसद से जानवरों के बाड़े में कूद जाते हैं. ऐसा करने वालों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जाती है. लेकिन अगर जानवर बाड़े में कूदे व्यक्ति की जान ले लेता है, तो उसे पिंजरे में बंद कर दिया जाता है या बेड़ियों से बांध दिया जाता है. याचिकाकर्ता ने उड़ीसा के कपिलास चिड़ियाघर में एक हाथी को पहले बेड़ियों से जकड़ने और बाद में छोटे से पिंजरे में बंद कर देने की घटना का हवाला दिया.

मामले की सुनवाई कर रही बेंच के अध्यक्ष चीफ जस्टिस एस ए बोबड़े ने याचिकाकर्ता की बातें सुनने के बाद कहा, "हम लोगों को जानवरों के बाड़े में कूदने से कैसे रोक सकते हैं?" इस पर याचिकाकर्ता ने कहा, "जो भी व्यक्ति जानवरों के बाड़े में कूदता है, उसे अधिकारी तुरंत दिमागी तौर से परेशान या पागल करार देते हैं. फिर मामले को बंद कर दिया जाता है. इसका नुकसान किसी को होता है, तो वह है सिर्फ जानवर. तमाम सरकारों को यह निर्देश दिया जाना चाहिए कि वह आत्महत्या कि कोशिश करने वालों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करें." याचिकाकर्ता ने कहा कि पहले भी ऐसे मामलों को बंद कर दिया जाता था. अब मेंटल हेल्थ केयर एक्ट की धारा 115 का सहारा लिया जाने लगा है.

इस पर जजों ने इस बिंदु पर सुनवाई को ज़रूरी करार दिया. उन्होंने सुनवाई के दौरान मौजूद सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से पूछा, "किसी पुराने कानून को नया कानून बनाकर बेअसर कैसे किया जा सकता है?" सॉलिसिटर जनरल ने जवाब दिया, "लंबे शोध के बाद यह पाया गया कि आत्महत्या तनाव के चलते की जाती है. इसलिए नए कानून में ऐसे लोगों के साथ सहानुभूति भरा रवैया अपनाया गया."

चीफ जस्टिस ने इससे असहमति जताते हुए कहा कि हर बार आत्महत्या तनाव का नतीजा नहीं होती है. ताइवान में कुछ बौद्ध भिक्षुओं ने बिना किसी तनाव या मानसिक परेशानी के अपनी जान दी, क्योंकि वह ऐसा करके अपनी किसी मांग पर जोर देना चाहते थे. चीफ जस्टिस ने कहा कि जैन समाज में प्रचलित संथारा प्रथा का मामला भी हमारे पास लंबित है. इसमें लोग स्वेच्छा से अन्न, जल त्याग कर जान दे देते हैं.

सॉलिसिटर जनरल ने संथारा के पीछे धार्मिक वजह का हवाला दिया. इस पर चीफ जस्टिस ने कहा, "हम यह जानते हैं कि संथारा का उद्देश्य आत्महत्या नहीं, दुनिया से मुक्ति पाना होता है." यह एक अलग मसला है. लेकिन इतना तो तय है कि हर बार जान देने वाला व्यक्ति सिर्फ मानसिक अवसाद के चलते या तनाव के चलते ऐसा करें यह जरूरी नहीं है."

थोड़ी देर चली सुनवाई के बाद जजों ने केंद्र को नोटिस जारी करते हुए जवाब दाखिल करने को कह दिया. जजों ने यह माना कि याचिकाकर्ता का उद्देश्य अच्छा है, लेकिन उन्हें कानून की गहरी समझ नहीं है. ऐसे में कोर्ट ने वरिष्ठ वकील ए एन एस नाडकर्णी को मामले में एमिकस क्यूरी नियुक्त कर दिया. चीफ जस्टिस ने कहा कि नाडकर्णी न सिर्फ कानून के ज्ञाता हैं, बल्कि गोवा के रहने वाले हैं. इसलिए, उम्मीद है कि वहां उन्होंने हाथी और तमाम वन्य जीवो के बारे में काफी कुछ देखा सुना होगा.

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करीब 2 दशक से सुप्रीम कोर्ट के गलियारों का एक जाना-पहचाना चेहरा. पत्रकारिता में बिताया समय उससे भी अधिक. कानूनी ख़बरों की जटिलता को सरलता में बदलने का कौशल. खाली समय में सिनेमा, संगीत और इतिहास में रुचि.
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