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परमवीर: करगिल में पकड़े जाने के बाद मिली भारी यातनाएं, लेकिन देश के खिलाफ एक शब्द तक न बोले कैप्टन सौरभ कालिया

कैप्टन सौरभ कालिया करगिल वॉर के ऐसे पहले हीरो थे जिनके बलिदान से इस युद्ध की इबारत लिखी गई थी. उन्होंने करगिल की युद्ध शुरू होने से पहले ही देश के लिए अपनी शहादत दे दी थी.

करगिल युद्ध के दौरान कई भारतीय जांबाजों ने अपनी कुर्बानी दी. जिसकी वजह से भारत दोबारा अपने उस हिस्से पर नियंत्रण कर पाया, जहां पाकिस्तानी घुसपैठिए ने चुपके से कब्जा कर लिया था. इन्हीं जवानों में से एक नाम है कैप्टन सौरभ कालिया का. वह करगिल वॉर के ऐसे पहले हीरो थे जिनके बलिदान से इस युद्ध की इबारत लिखी गई थी. उन्होंने करगिल की युद्ध शुरू होने से पहले ही देश के लिए अपनी शहादत दे दी थी.

करगिल युद्ध में पहली शहादत!

ये वाकया उस वक्त शुरू होता है जब ताशी नामग्याल नाम के एक चरवाहा ने करगिल को चोटियों पर कुछ पाकिस्तानी घुसपैठिए को देखा और 3 मई 1999 को इस बात की खबर भारतीय सेना को दी. इसके बाद 14 मई को कैप्टन सौरभ कालिया 5 जवानों को अपने साथ लेकर पेट्रोलिंग पर निकले. कालिया अपने साथियों के साथ जब बजरंग की चोटी पर पहुंचे तो वहां पर देखा कि भारी संख्या में हथियारों के साथ पाकिस्तान की फौज खड़ी थी.

22 दिनों तक यातना के बाद बाद पाक ने सौंपा शव

उस समय कैप्टन सौरभ कालिया के पास न ज्यादा गोला बारूद था और ना ही हथियार. पाकिस्तानी सैनिकों की काफी संख्या होने की वजह से दुश्मनों ने कैप्टन सौरभ कालिया और उनके बाकी साथियों को घेर लिया. हालांकि, इस दौरान कैप्टन सौरभ कालिया और उनके साथियों ने जंग के मैदान में दुश्मनों से मुकाबला लेने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी. लेकिन गोला-बारूद खत्म होने के बाद पाकिस्तानी घुसपैठिए ने उन्हें और उनके पाचों साथियों को बंदी बना लिया.

दुश्मनों की तरफ से काफी कोशिशों के बावजूद वे कैप्टन कालिया से एक भी शब्द नहीं निकलवा पाए. उसके बाद बर्बरता के साथ सलूक करने के 22 दिन बाद कैप्टन सौरभ कालिया के शव को सौंप दिया था. सौरभ कालिया के साथ दुश्मनों ने जो बर्ताव किया था उसकी वजह से उनके शव को उनके परिवारवाले तक नहीं पहचान पाए थे. हालांकि, पाकिस्तान हमेशा इससे इनकार करता रहा है.

22 साल में की थी आर्मी ज्वाइन

कैप्टन सौरभ कालिया की उस समय उम्र महज 22 साल थी. साल 1976 के 29 जून को अमृतसर में डॉ. एन.के. कालिया के घर पैदा हुए सौरभ कालिया. बचपन से ही वे आर्मी में जाना चाहते थे. यही वजह थी कि 12वीं की पढ़ाई के बाद उन्होंने एएफएमसी की परीक्षा दी. हालांकि इसमें उतीर्ण नहीं हो पाए और ग्रेजुएट होते ही सीएसडी पास किया. आईएमए की ट्रेनिंग के बाद 1999 के फरवरी में करगिल में 4 जाट रेजिमेंट में पहली पोस्टिंग मिली थी. लेकिन नौकरी के चार महीने ही हुए थे कि करगिल में पाकिस्तान घुसपैठिए से उनका सामना हुआ था.

ये भी पढ़ें: परमवीर: करगिल युद्ध के दौरान अकेले दुश्मनों पर टूट पड़ा था भारत सेना का ये जांबाज

राजेश कुमार पत्रकारिता जगत में पिछले करीब 14 सालों से ज्यादा वक्त से अपना योगदान दे रहे हैं. राष्ट्रीय और सामाजिक मुद्दों से लेकर अपराध जगत तक, हर मुद्दे पर वह स्टोरी लिखते आए हैं. इसके साथ ही, किसी खबरों पर किस तरह अलग-अलग आइडियाज के साथ स्टोरी की जाए, इसके लिए वह अपने सहयोगियों का लगातार मार्गदर्शन करते रहे हैं. इनकी अंतर्राष्ट्रीय जगत की खबरों पर खास नज़र रहती है, जबकि भारत की राजनीति में ये गहरी रुचि रखते हैं. इन्हें क्रिकेट खेलना काफी पसंद और खाली वक्त में पसंद की फिल्में भी खूब देखते हैं. पत्रकारिता की दुनिया में कदम रखने से पहले उन्होंने माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में मास्टर ऑफ ब्रॉडकास्ट जर्नलिज्म किया है. राजनीति, चुनाव, अंतरराष्ट्रीय संबंधों और अर्थव्यवस्था जैसे मुद्दों पर राजेश कुमार लगातार लिखते आ रहे हैं.
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