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यूपी निकाय चुनाव के नतीजे कैसे बदल सकते हैं लोकसभा इलेक्शन का गणित?

निकाय चुनाव के ठीक एक साल बाद लोकसभा चुनाव होने वाले है. उत्तर प्रदेश में 80 लोकसभा सीटें हैं. इसमें से शहरी इलाकों की लगभग 50 सीटें सीधे तौर पर प्रभावित होती हैं.

उत्तर प्रदेश में निकाय चुनाव के पहले चरण की वोटिंग हो चुकी है और अब 11 मई को दूसरे चरण का मतदान होने वाला है. इस चुनाव का परिणाम 13 मई को घोषित किया जाएगा. निकाय चुनाव के नतीजे सत्तारूढ़ पार्टी बीजेपी के लिए लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल माना जा रहा है. यही वजह है कि प्रचार के दौरान बीजेपी ने मतदाताओं तक पहुंचने की पूरी कोशिश की है. 

इस चुनाव में बेहतर प्रदर्शन करना विपक्ष के लिए भी उतना ही जरूरी है ताकि वह साल 2024 के होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले खुद की तैयारियों को अच्छे से आंक सके. यही कारण है कि समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव खुद अलग-अलग जिलों में जाकर निकाय चुनाव के लिए वोट मांग रहे हैं.

दरअसल निकाय चुनाव के ठीक एक साल बाद यानी 2024 में लोकसभा का चुनाव प्रस्तावित है. उत्तर प्रदेश में लोकसभा की करुल 80 सीटें हैं, जिसमें से 50 सीटें शहरी इलाकों के प्रभाव में है.

ऐसे में सवाल उठता है कि क्या वाकई यूपी निकाय चुनाव में जीत दर्ज करना सभी पार्टियों के लिए बेहद अहम है और इसके नतीजे लोकसभा चुनाव का गणित बदल सकते हैं? 

निकाय चुनाव कैसे लोकसभा चुनाव को प्रभावित कर सकता है?

1. चुनाव में नए समीकरण बनाने की कवायद

हिंदू+पसमांदा मुसलमान: भारतीय जनता पार्टी अगर अपने सबसे बड़े सूबे में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाती है तो इसका असर लोकसभा चुनावों में दिख सकता है. यही कारण है कि निकाय चुनाव में बीजेपी ने कई नए प्रयोग किए हैं. पार्टी ने इस बार सबसे बड़ा प्रयोग मुस्लिम उम्मीदवारों की झड़ी लगाकर कर दिया है.

निकाय चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने कुल 395 मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है. जिसमें से 90 फीसदी से ज्यादा पसमांदा मुस्लिम हैं.

भारतीय जनता पार्टी पहली बार इतनी बड़ी संख्या में मुस्लिम उम्मीदवारों पर दांव खेल रही है. ऐसे में अगर निकाय चुनाव के परिणाम में बीजेपी बेहतर प्रदर्शन करती है तो एक नया सामाजिक समीकरण बनेगा और बीजेपी का पसमांदा मुस्लिमों को अपनी तरफ लाने के प्रयास को सफल माना जाएगा. 

मुस्लिम+यादव+दलित+ब्राह्मण: निकाय चुनाव के परिणाम में अगर समाजवादी पार्टी बेहतर प्रदर्शन करती है तो इसका मतलब साफ होगा कि सपा को मुस्लिम, यादव, दलित और ब्राह्मण वोटर्स का साथ मिल रहा है.

बता दें कि साल 2022 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव की अगुवाई में समाजवादी पार्टी भले ही बहुमत हासिल नहीं कर सकी हो, लेकिन वोटों के मामले में यह उसका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन रहा है.

निकाय चुनाव को लेकर भी समाजवादी पार्टी ने तैयारी काफी पहले से ही शुरू कर दी थी. इसके लिए समाजवादी पार्टी ने पहले से ही अपने पर्यवेक्षक भी नियुक्त कर दिए थे.

हालांकि, पिछले निकाय चुनाव में समाजवादी पार्टी एक भी मेयर की सीट पर जीत नहीं दर्ज कर पाई थी. लेकिन नगर पालिका और नगर पंचायत के चेयरमैन जरूर बने थे. 

दलित (जाटव)+ मुस्लिम: उत्तर प्रदेश में बहुजन समाजवादी पार्टी (BSP) लगातार हार का रिकॉर्ड दर्ज कर रही है. बीएसपी चीफ मायावती काफी समय से दलित+मुस्लिम समीकरण बनाकर राजनीति को आगे बढ़ाना चाहती हैं. इसी पार्टी ने पिछले 2017 के निकाय चुनाव में दलित-मुस्लिम समीकरण के माध्यम से बेहतर प्रदर्शन किया था.

बहुजन समाजवादी पार्टी ने दलित-मुस्लिम समीकरण की मदद से ही पिछले बार अलीगढ़ और मेरठ के नगर निगम में अपना मेयर बनाया. 

बसपा मेरठ में मेयर के चुनाव में तीन बार इसी समीकरण के बदौलत जीत हासिल कर चुकी है. साल 1995 में बहुजन समाजवादी पार्टी से अय्यूब अंसारी मेयर चुने थे.

वहीं साल 2000 में हाजी शाहिद अखलाक मेयर बने और पिछले नगर निकाय चुनाव यानी साल 2017 में सुनीता वर्मा बसपा के टिकट पर मेयर चुनी गईं. बसपा पहले भी 1995 और 2000 में मुस्लिम कार्ड खेलकर मेयर सीट जीती थी.

इस बार भी नगर निकाय चुनाव में बसपा ने बड़ा दांव चला है. मायावती की पार्टी ने राज्य के कुल 17 नगर निगमों में से 11 के लिए अपने मुस्लिम उम्मीदवार दे दिए हैं. 

2. सपा जीती तो शहरी सीटों का गणित बदलेगा

2014 के बाद शहरी सीटों पर अमूमन बीजेपी का ही वर्चस्व माना जाता है. खासकर हिंदी बेल्ट में. सपा अगर निकाय चुनाव में बेहतरीन परफॉर्मेंस करती है तो इसका बड़ा असर होगा.

उत्तर प्रदेश में नगरीय निकाय चुनाव में लखनऊ नगर निगम सबसे हॉट सीट बन चुका है. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के संसदीय क्षेत्र होने के कारण इस सीट पर हमेशा से ही बीजेपी का दबदबा रहा है.

इस बार लखनऊ नगर निगम (महापौर) सीट महिलाओं के लिए आरक्षित है. इसलिए यहां बीजेपी ने महिला मोर्चा से जुड़ी रही सुषमा खरकवाल को मैदान में उतारा है तो वहीं सपा ने यहां से वंदना मिश्रा को टिकट दिया है.

वंदना मिश्रा बीजेपी को टक्कर देने के लिए अच्छी प्रत्याशी हैं. वो सबसे ज्यादा पढ़ी-लिखी उम्मीदवार हैं. ऐसे में जो एंटी बीजेपी वोट है वो सपा को ही जायेगा. अगर मेयर सीट पर सपा जीतती है तो शहरी इलाकों का समीकरण बनेगा. 

कानपुर, गोरखपुर, अलीगढ़ समेत कई जगहों पर सपा की स्थिति पहले की तुलना में मजबूत बताई जा रही है. 

3. महागठबंधन का भविष्य भी तय होगा

साल 2022 में हुए यूपी विधानसभा चुनाव में एकजुटता से कामयाबी हासिल करने वाले समाजवादी पार्टी, रालोद और आसपा गठबंधन में निकाय चुनाव के दौरान दरार नजर आई.

सीटों के बंटवारे से लेकर प्रत्याशियों के चयन पर इन पार्टियों के बीच नाराजगी दिखी. नगर निकाय चुनाव में अध्यक्ष के अलावा सभासद प्रत्याशियों में भी गठबंधन के कार्यकर्ता एक-दूसरे के आमने सामने चुनाव लड़ रहे हैं.

ऐसे में निकाय चुनाव में अब सवाल गठबंधन की साख का बन गया है. चुनाव के नतीजे गठबंधन की भविष्य की राजनीति की रूपरेखा भी तय करेंगे. 

4. यूपी में मुस्लिम वोट बैंक लोकसभा चुनाव पर डालेगा असर 

उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में मुस्लिम वोट बैंक भी हर पार्टी के लिए सबसे ज्यादा अहम हो जाते हैं. तमाम दल मुस्लिम वोटर्स को लुभाने के लिए कई वादे करने में लगे हैं.

हालांकि इस समुदाय के वोटर्स ज्यादातर मायावती की पार्टी बसपा और अखिलेश यादव को ही ज्यादातर वोट देती आई है.

पिछले कुछ चुनावों के नतीजों से पता चलता है कि मायावती की पार्टी से मुस्लिम वोट छिटके हैं, इसका फायदा बीजेपी उठाना चाहती है. बीजेपी अखिलेश यादव के मुस्लिम-यादव समीकरण को कमजोर करने की पुरजोर कोशिश में लगी है. 

इस राज्य में कुल वोटर्स का 20 प्रतिशत मुस्लिम है, जो अलग-अलग पार्टियों में बंटा हुआ है. यहां लगभग 140 सीटों पर मुस्लिम वोटर जीत-हार तय करने में अहम भूमिका निभाते हैं.

पिछले निकाय चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने 187 उम्मीदवारों को टिकट दिया था जिसमें से सिर्फ दो ही उम्मीदवार चुनाव जीते थे. 

साल 2022 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कुल 403 सीटों में से 34 सीटें मुस्लिम उम्मीदवारों ने जीती थीं, जो कि कुल सीटों का महज करीब 8 फीसदी था.

विधानसभा चुनाव में जीत दर्ज करने वाले 34 मुस्लिम नेताओं में से 32 समाजवादी पार्टी से थे, जबकि बाकी दो राष्ट्रीय लोकदल के उम्मीदवार थे. 

यूपी निकाय चुनाव का गुणा गणित

इस बार उत्तर प्रदेश में 2 चरण में निकाय चुनाव हो रहे हैं. वोटिंग 4 और 11 मई को होंगे और 13 मई को नतीजे सामने आएंगे. इस साल निकाय चुनाव में 4.32 करोड़ मतदाता मतदान करेंगे.

इस चुनाव में 17 नगर निगम, 544 नगर पंचायत और 198 नगर पालिकाओं के लिए वोटिंग की जाएगी. साल 2017 के निकाय चुनाव को देखें तो बीजेपी ने पिछले चुनाव में 16 में से 17 नगर निगमों में जीत हासिल की थी.

वहीं 198 नगर पालिका में से भारतीय जनता पार्टी को 70, समाजवादी पार्टी को 45, बहुजन समाजवादी पार्टी को 29 और कांग्रेस को 9 पर जीत मिली थी. 

कौन हैं पसमांदा मुस्लिम, बीजेपी के लिए क्यों हैं जरूरी

साल 2022 में हुए विधानसभा चुनाव और निकाय चुनाव में मुस्लिमों के जिस समुदाय की सबसे ज्यादा चर्चा हुई वो हैं पसमांदा मुस्लिम. पसमांदा मुस्लिम दलित और पिछड़े मुस्लिमों में आते हैं. इनकी आबादी मुस्लिमों में सबसे ज्यादा है. यानी राज्य के कुल मुस्लिमों का करीब 80% आबादी पसमांदा मुस्लिमों की ही है. 

पसमांदा फारसी का शब्द है और इसका मतलब है पीछे छूट गए लोग. बीबीसी के अनुसार इस नाम का सबसे पहले इस्तेमाल साल 1998 में अली अनवर अंसारी ने किया था. तब उन्होंने पसमांदा मुस्लिमों के संगठन की शुरुआत की थी. 

बीजेपी के लिए क्यों जरूरी है पसमांदा?

देशभर के मुसलमानों में सबसे ज्यादा संख्या पसमांदा मुस्लिमों की ही है, ऐसे में यह समुदाय राजनीति के लिहाज काफी अहम हो जाता है. आने वाले लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की नजर इन्ही मुस्लिमों के 80 प्रतिशत संख्या पर टिकी हुई है. 

पसमांदा मुस्लिमों के बीच अपनी जगह बनाने के लिए भारतीय जनता पार्टी और आरएसएस के नेता पिछले कुछ सालों से लगातार मिशन में जुटे हैं.

इसका कारण ये है कि पसमांदा मुस्लिमों को पिछले कई दशकों से तमाम दलों ने सिर्फ इस्तेमाल किया है, हाल ये है कि पसमांदा मुस्लिम हर मोर्चे पर आज पिछड़े हुए हैं, ऐसे में भारतीय जनता पार्टी इस मौके को भुनाना चाहती है.

बीजेपी की कोशिश है कि इस वर्ग के हितों की बात करके इसे अपने पाले में लाया जाए. 

राजनीतिक जानकार के मानें तो पार्टी कुछ हद तक इस मिशन में कामयाब हो भी जाता है तब भी जब तक बड़े स्तर पर बीजेपी मुस्लिमों को जगह नहीं देती है, तब तक ये समुदाय खुद को अछूता ही समझेगा. 

निकाय चुनाव जीतना बीजेपी के लिए क्यों जरूरी 

बीजेपी के लिए नगर निकाय चुनाव में बेहतर प्रदर्शन करना इसलिए जरूरी है क्योंकि इस चुनाव में सबसे ज्यादा प्रतिष्ठा इसी पार्टी की दांव पर लगी है.

दरअसल नगर निकाय चुनाव में बीजेपी हमेशा से ही बेहतर प्रदर्शन करती आ रही है. इसके अलावा सरकार में रहते पार्टी पर बड़ा दबाव है.

भारतीय जनता पार्टी ने पिछले नगर निगम चुनाव में बेहतर प्रदर्शन किया था, लेकिन नगर पालिका और नगर पंचायत में पिछड़ गई थी.

उस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को सपा और निर्दलीयों ने कड़ी टक्कर दी थी. नगर पंचायत अध्यक्ष के चुनाव में निर्दलीय बीजेपी से दो गुना ज्यादा जीते थे.

इस बार सपा और बसपा ने विधानसभा चुनाव के बाद से ही तैयारी शुरू कर दी थी, जिसके चलते बीजेपी की चुनौती बढ़ गई है.

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