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होली: क्या मुसलमानों के लिए रंग खेलना हराम है?

इतिहासकार राना सफ़वी ने कहा कि जो लोग इस्लाम में रंग को हराम मानते हैं, मैं उनसे इस बात का सबूत मांगना चाहती हूं. इस तरह की गलत धारणाएं अज्ञान और पूर्वाग्रहों से ही पनपती हैं.

होली के अब बहाने छिड़का है रंग किसने

नाम ए ख़ुदा तुझ ऊपर इस आन अजब समाँ है

- शैख़ हातिम

मैंने अपने दोस्तों से ब्रज की होली के बारे में सुना था तो सोचा इस बार क्यों ना वहां जाकर देखा जाए. हम सुबह 10 बजे वृंदावन पहुंचे. वहां देखा कि दूर-दूर से लोग ब्रज की होली खेलने पहुंचे थे. वहां की सड़कें रंगों से भरी हुई थीं. दुकानों पर लोग जलेबियां तलने में व्यस्त थे. एक चीज जो सबमें कॉमन नजर आ रही थी वह थी सबकी शक्लें. फिर क्या हिंदू, क्या मुस्लिम और क्या सिख.

यहां कि खास बात ये है कि हिंदू ही नहीं बल्कि मुसलमान, सिख के साथ और भी दूसरे धर्मों के लोग पहुंचे थे. यहां हर कोई रंगों में सराबोर था. हर कोई एक दूसरे को गले लगा रहा था. ऐसा लग रहा था जैसे इन रंगों ने लोगों के अंदर एक दूसरे के लिए प्रेम घोल दिया हो. ये शब्द हैं यूट्युब व्लॉगर विजय एंड्यू का.

पिछले 4 साल से दिल्ली में रह रही आफिया खान कहती हैं, 'मुझे होली का त्योहार बहुत पसंद है. ऐसा नहीं है कि यह त्योहार सिर्फ हिंदू मनाते है. मैं मुसलमान हूं और मेरा परिवार सालों से रंगों के इस त्योहार को मना रहा है. मुझे लगता है होली खुशियों का त्योहार है और इसे इसी तरह मनाया जाना चाहिए.'


बाबा बुल्लेशाह ने लिखा है-

होरी खेलूंगी, कह बिस्मिल्लाह

नाम नबी की रतन चढ़ी, बूंद पड़ी अल्लाह अल्लाह.



होली: क्या मुसलमानों के लिए रंग खेलना हराम है? (फोटो क्रेडिट- इंस्टाग्राम/ अभिषेक कुमार- @iactiveabhi)

हमने बचपन से ही पढ़ा है कि होली हिंदुओं का त्योहार है. कई मुसलमान दोस्तों से ये भी सुना है कि मुसलमानों को होली नहीं खेलनी चाहिए क्योंकि इस्लाम में रंग हराम माना जाता है. लेकिन अगर हम इतिहास के पन्नों में छांके तो पाएंगे कि पुराने वक्त में, खासकर मुगलों के दौर में होली हिंदुओं के साथ मुसलमान भी जोर-शोर से खेलते थे. इतिहासकारों ने मुगलकालीन होली के बारे में खूब जिक्र किया है. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या इस्लाम में रंग वाकई हराम है?

बीबीसी की एक ब्लॉग में इतिहासकार राना सफ़वी ने इस सवाल का जवाब देते हुए कहा कि जो लोग इस्लाम में रंग को हराम मानते हैं मैं इस बात का सबूत मांगना चाहती हूं. इस तरह की गलत धारणाएं अज्ञान और पूर्वाग्रहों से ही पनपती हैं.

उन्होंने कहा, 'इस्लाम में रंग हराम नहीं है बल्कि हमें बस इतना ध्यान रखना चाहिए कि नमाज़ पढ़ने के लिए जब हम वुज़ू करते हैं, तब हमारी त्वचा पर ऐसा कुछ भी नहीं लगा हो जो पानी को त्वचा के सीधे संपर्क में आने से रोके. ऐसे में हमें बस ये करना करना है कि हम वुज़ू करने जा रहे हों उससे पहले त्वचा पर लगे गुलाल को धो लिया जाए.

सफवी ने बीबीसी को अपनी जिंदगी से जुड़ी एक घटना साझा करते हुए कहा कि पिछले साल अपने रामनगर की यात्रा के दौरान मैंने बैठकी होली में हिस्सा लिया था तब सोशल मीडिया पर अपनी कुछ तस्वीरें भी साझा कि थीं. उस तस्वीर पर कई लोगों ने कहा कि उन्हें होली नहीं खेलनी चाहिए. क्योंकि इस्लाम में रंग हराम माना जाता है. मैं उन लोगों से इस बात का सबूत मांगना चाहती थी लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया.


होली: क्या मुसलमानों के लिए रंग खेलना हराम है?
(फोटो क्रेडिट- इंस्टाग्राम/ अभिषेक कुमार- @iactiveabhi)

दरगाह पर खेली जाती है होली

इतिहासकार सफवी ने कहा कि एक बार होली के मौक़े पर मैं दिल्ली स्थित ख़्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह गई थी. मैंने वहां देखा कि भारी संख्या में लोग पहुंचे थे. दरगाह के गद्दीनशीं सैय्यद सलमान चिश्ती ने बताया कि ये लोग ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ के साथ होली खेलने दरगाह पहुंचे हैं.

सफवी कहा कि उस वक्त दरगाह में जितने भी लोग नजर आ रहे थे सब होली के पावन मौके पर ख्वाजा ग़रीब नवाज़ की दुआएं लेने पहुंचे थे. उन्होंने कहा कि मुस्लमानों का होली से नाता आज का नहीं बल्कि सदियों का है. दिल्ली सल्तनत और मुग़लिया दौर के मुस्लिम सूफ़ी संत और कवियों ने होली पर कई बेहतरीन रचनाए गढ़ी हैं.

अमीर खुसरो ने निजामुद्दीन औलिया के लिए लिखा...

आज रंग है ऐ मां, रंग है री

मोरे ख्वाजा के घर के रंग है री

आज सजन मिलावरा मोरे आंगन में

आज रंग है ऐ मां, रंग है री

मोहे पीर पायो निजामुद्दीन औलिया

मैं तो जब देखूं मोरे संग है नी मां रंग है री

देस विदेस में ढूंढ फिरी हूं

मोहे तोरा रंग भायो निजामुद्दीन

700 साल पहले हज़रत अमीर ख़ुसरो की कव्वाली के कलाम (शब्द) को आज भी शिद्दत के साथ याद किया जाता है. अमीर खुसरो हिंदवी के पहले कवि कहे जाते हैं. उन्होंने अपने आध्यात्मिक गुरू दिल्ली के हजरत निजामुद्दीन औलिया के लिए ये पंक्तियां कही थीं. कहा जाता है कि अमीर खुसरो  जिस दिन अपने पीर हजरत निजामुद्दीन औलिया के शिष्य बने थे उस दिन पूरे देश में होली मनाई जा रही थी. तभी उन्होंने औलिया की तारीफ में आज रंग है... कव्वाली लिखी थी.

आज भी राजधानी के निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर होली के दिन अमीर खुसरो की कई कव्वालियों को गाया जाता है. इन कव्वालियों में आज रंग है, छाप तिलक सब छीनी, ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल शामिल हैं.

अकबर के होली खेलने का भी है इतिहास में वर्णन

इतिहास में अकबर का अपनी रानियों के साथ और जहांगीर का नूरजहां के साथ होली खेलने की बात भी कही गई है. अलवर संग्रहालय में एक ऐसी चित्र भी मौजूद है जहां जहांगीर को होली खेलते हुए दिखाया गया है.

मुगलकालीन होली के बारे में खूब लिखा गया है

इतिहासकार मुंशी जकाउल्लाह ने अपनी 19वीं सदी के मध्य में लिखी किताब तारीख-ए-हिंदुस्तानी में रंगों के त्योहार का जिक्र करते हुए लिखा है, 'कौन कहता है, होली हिंदुओं का त्योहार है!'. उन्होंने इस किताब में मुगलों के वक्त की होली का वर्णन करते बताया है कि कैसे बाबर हिंदुओं को होली खेलते देखकर हैरान रह गया था. बाबर को होली का ये त्योहार इतना पसंद आया कि उसने अपने नहाने के कुंड को पूरा का पूरा शराब से भरवा दिया.

शाहजहां के होली को कहा जाता था ईद-ए-गुलाबी

इतिहासकारों की मानें तो शाहजहां के ज़माने में होली के नाम को अलग तरह से बोला जाता था. इस त्योहार को ईद-ए-गुलाबी  या आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार) कहा जाता था. अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र द्वितीय के बारे में ये किस्सा काफी मशहूर है कि होली पर वह अपने मंत्री को रंग लगाने जाया करते थे.

कहा जाता है कि होली का ये त्योहार मुग़ल सम्राज्य के दौरान काफी ज़ोर-शोर के साथ मनाया जाता था. इस त्योहार पर विशेष रूप से दरबार सजाया जाता था. इसके अलावा लाल क़िले में यमुना नदी के तट पर मेले का आयोजन किया जाता था. इस दिन सभी लोग एक दूसरे पर रंग लगाते, गीतकार दरबारों में गाना गाकर सभी का मनोरंजन करते थे. नवाब मोहम्मद शाह रंगीला की एक पेंटिग भी बेहद मशहूर है जिसमें वह लाल क़िले के रंग महल में होली खेलते हुए नजर आ रहे हैं.

रंगो के त्योहार पर अमीर खुसरो की ये शायरी काफी मशहूर है. उन्होंने लिखा..

दैय्या रे मोहे भिजोया री,

शाह निजाम के रंग में,

कपड़े रंग के कुछ न होत है,

या रंग में तन को डुबोया री.

रंगों पर नज़्म और ग़ज़ल के मशहूर शायरों में शुमार नज़ीर बनारसी ने एक नज्म लिखी है. उनकी नज्‍़मों की ख़ासियत यह है कि उन्‍होंने जहां अपने कलाम में अपने आस-पास बिखरी जिंदगी के रंग भरे, वहीं उनकी नज़्मों में वतन से मुहब्‍बत का जज्‍़बा नज़र आता है.

कहीं पड़े ना मोहब्बत की मार होली में

अदा से प्रेम करो दिल से प्यार होली में

गले में डाल दो बाहों का हार होली में

उतारो एक बरस का ख़ुमार होली में

-नज़ीर बनारसी

क्या कहते हैं मुस्लिम समाज के लोग

जामिया मिल्लिया से पढ़ाई कर रहे अंसार ने एबीपी लाइव से कहा कि उन्हें होली का ये त्योहार बहुत ज्यादा पसंद है. हालांकि उनके परिवारवालों का मानना है कि इस्लाम में होली नहीं खेलनी चाहिए. लेकिन मुझे इस बात के पीछे कोई ऐसा ठोस तर्क नजर नहीं आता. मैं हर साल अपने हिंदू दोस्तों के साथ होली खेलता हूं. हालांकि जब अपने परिवरा के साथ होता हूं तो नहीं खेल पाता.

दिल्ली के मयूर विहार में रहने वाली फातिमा अली का मानना अलग है. फातिमा कहती है कि हमें शुरू से ही होली नहीं खेलने दिया जाता था. तो मैंने आजतक होली नहीं खेली. हां मैं अपने दोस्तों के साथ हिंदुओं के बाकी त्योहार को मना लेती हूं लेकिन होली में रंग लगते हैं इसलिए उस दिन हमें बाहर निकलने की अनुमति नहीं है. फातिमा कहती है कि रंग इस्लाम से हराम है या नहीं ये तो मुझे नहीं पता, लेकिन अगर हमारे बुजुर्ग ऐसा कहते हैं तो उसे मानने में कोई दिक्कत नहीं है.

वहीं अफसाना कहती हैं कि हम सभी के धर्म में त्योहार इसलिए मनाया जाता है ताकि उस एक दिन हम अपने परिवरों से मिल सके. एक दूसरे के प्रति बैर को खत्म कर सकें. ऐसे में मुझे होली मनाने में कोई दिक्कत नहीं है. जहां तक रही रंगों की बात तो होली में रंगों से बचना तो जैसे नामुमकिन ही है. अगर मैं होली के दिन घर में रहती हूं तो उससे पहले अपने दोस्तों के साथ जरूर होली खेल लेती हूं. मेरे घरवालों को भी इससे कोई दिक्कत नहीं है.

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