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असली काम पर वापस लौटे पीके, बिहार में जनसुराज का क्या होगा?

तमिलनाडु में स्टालिन और पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी को चुनाव जिताने के बाद प्रशांत किशोर ने तय किया था कि अब वो खुद चुनावी राजनीति में उतरेंगे.

करीब चार साल के बाद पीके अपने पुराने काम पर वापस लौट आए हैं. उस काम पर जिसने प्रशांत किशोर को पीके बना दिया था और जिसकी बदौलत पीके ने न सिर्फ दौलत और शोहरत कमाई बल्कि अपनी खुद की पार्टी भी बनाई, जिसे नाम दिया जनसुराज. वो कहावत कहते हैं न कि होम करते ही हाथ जल गए. तो प्रशांत किशोर के साथ भी वही हुआ. पार्टी बनाने के साथ ही पीके ने बिहार के उपचुनाव में प्रत्याशी उतार दिए. वो भी एक नहीं बल्कि चार-चार और वो चारों ही चुनाव हार गए.

अब जब बिहार चुनाव में एक साल से भी कम का वक्त बचा है तो प्रशांत किशोर अपने पुराने काम के साथ बिहार से निकलकर तमिलनाडु पहुंच गए हैं, जहां उनके नए दोस्त हैं फिल्म स्टार से नेता बने थलपति विजय. सवाल है कि आखिर पीके को बिहार की राजनीति से निकलकर तमिलनाडु क्यों जाना पड़ा, आखिर जो प्रशांत किशोर अपने पुराने काम यानी कि पॉलिटिकल स्ट्रैटजिस्ट वाले काम से संन्यास ले चुके थे, उसे वापस क्यों शुरू करना पड़ा और आखिर जब पीके फिर से अपने पुराने काम पर वापस लौट आए हैं तो बिहार में बनाई उनकी पार्टी जनसुराज का भविष्य क्या होगा?

तमिलनाडु में स्टालिन और पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी को चुनाव जिताने के बाद प्रशांत किशोर ने तय किया था कि अब वो खुद चुनावी राजनीति में उतरेंगे. तो उन्होंने अपने पुराने काम यानी कि पॉलिटिकल स्ट्रैटजिस्ट वाले काम से तौबा कर ली, संन्यास ले लिया और निकल गए बिहार में पदयात्रा पर. गांव-गांव घूमे, शहर-शहर घूमे, हजारों-लाखों लोगों से मिले. करीब दो साल तक चलते ही रहे और आखिरकार महात्मा गांधी के जन्मदिन 2 अक्टूबर 2024 को उन्होंने अपनी नई राजनीतिक पार्टी लॉन्च की और उसे नाम दिया जनसुराज.

इस पार्टी के बनाने के दौरान ही उन्होंने अपने इरादे साफ कर दिए. कहा कि वो बिहार को बदल कर रहेंगे. इस बदलाव की शुरुआत के लिए पीके ने विधानसभा चुनाव का इंतजार नहीं किया बल्कि पार्टी बनाने के साथ ही ऐलान कर दिया कि वो बिहार में होने जा रहे चारों उपचुनाव में अपने प्रत्याशी उतारेंगे. उपचुनावव के नतीजे आए तो पीके के सभी चारों उम्मीदवार चुनाव हार गए, लेकिन पीके ने तब कहा कि पहली बार है और हमारी पार्टी का प्रदर्शन अच्छा है, विधानसभा के चुनाव में ये और अच्छा होगा.

इसके बाद पीके फिर से अपने काम में लगे रहे. अपनी पार्टी के काम में लगे रहे. बिहार चुनाव की तैयारियां करते रहे, लेकिन अचानक से वो 27 फरवरी को तमिलनाडु पहुंच गए. उस मंच पर पहुंच गए जो मंच फिल्म स्टार से नेता बने थलपति विजय ने तैयार करवाया था और अपनी खुद की नई पार्टी बना ली थी. इस मंच पर ही पीके ने कहा कि वो चार साल के बाद अपने काम पर वापस लौट रहे हैं और वो अपने भाई विजय के जरिए तमिलनाडु में नेतृत्व परिवर्तन के लिए लौटे हैं, लेकिन सवाल है कि क्यों.

आखिर जब बिहार में चुनाव की तैयारियां शुरू हो चुकी हैं, पीएम मोदी ने अपनी भागलपुर रैली के जरिए बिहार चुनाव का टोन भी सेट कर दिया है, नीतीश कुमार ने अपनी प्रगति यात्रा के साथ ही अपनी कैबिनेट का विस्तार भी कर लिया है और तेजस्वी यादव ने बीजेपी-जेडीयू के खिलाफ मोर्चा भी खोल दिया है, तो पीके इससे दूर क्यों हैं. वो भी इतनी दूर, जहां से बिहार की राजनीति का कोई लेना-देना ही नहीं है. बिहार में इसी साल चुनाव हैं,जबकि तमिलनाडु में अगले साल चुनाव हैं.

पीके की भी पार्टी जनसुराज नई ही है और थलपति विजय की पार्टी टीवीके यानी कि तमिलगा वेत्री कषगम भी नई ही है. तो पीके अपनी पार्टी पर होने वाली मेहनत को बांटकर विजय की टीवीके के साथ भी मेहनत क्यों कर रहे हैं. क्या इसकी वजह पीके को अपने पुराने काम से होने वाली आमदनी हैं, जिसका इस्तेमाल वो इस चुनाव में अपनी पार्टी के लिए करेंगे या फिर दो साल की पदयात्रा और करीब 6 महीने की पुरानी पार्टी बनाने के बीच में पीके को ये समझ आ गया है कि बिहार की राजनीति में नए सिरे से दखल देना उतना भी आसान नहीं है, जितना उन्हें पहले लगा था.

अब सच चाहे जो हो, लेकिन इतना तो तय है कि पीके न तो बिहार की राजनीति से पूरी तरह से दूर हो पा रहे हैं और न ही बिहार की राजनीति में पूरी तरह पैवस्त, क्योंकि अगर उनका मकसद सिर्फ बिहार होता तो वो न तो तमिलनाडु जाते और न ही विजय की बनाई पार्टी टीवीके के विशेष सलााहकार बनते. बिहार में  राजनीति के लिए पैसा जरूरी है और वो पैसा पीके को राजनीति करने से नहीं काम करने से मिलेगा. शायद यही वजह है कि पीके ने अपना पुराना काम फिर से शुरू कर दिया है. पीके का इस काम में जिस तरह का स्ट्राइक रेट रहा है, उसे देखते हुए और भी राज्यों के और भी पार्टियों के लोग पीके से संपर्क करते दिखें और पीके भी उनके मंच पर जाकर उन्हें अपना दोस्त, अपना भाई बताते दिखें तो कोई हैरत नहीं होगी. आखिर मामला पैसे का जो है.

 

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