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इमरजेंसी, आडवाणी से मतभेद भी नहीं रोक पाई थी अटल बिहारी वाजपेयी की राह, जानें PM बनने की कहानी

इमरजेंसी के बाद हुए 1977 के आम चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी नई दिल्ली से चुनाव जीते और देश की पहली गैर कांग्रेसी, जनता पार्टी सरकार में विदेशमंत्री बनाए गए.

नई दिल्ली: तेरह दिन, तेरह महीने और फिर 63 महीने तक प्रधानमंत्री रहे अटल बिहारी वाजपेयी ने आज अंतिम सांस ली. ग्वालियर की एक गली से संसद तक पहुंचने और फिर प्रधानमंत्री बनने की कहानी बहुत लंबी है. एक कवि पत्रकार, संघ के कार्यकर्ता के तौर पर लगातार विजय पथ पर बढ़ रहे वाजपेयी पहली बार 1957 के लोकसभा चुनाव में जीतकर संसद पहुंचे. संसद भवन जनसंघ के उरूज का गवाह है. 1951 में तीन 1957 में चार और 1962 के आम चुनाव में चौदह सीटें जीतकर जनसंघ के हौसले बुलंद हो चले थे. संसद के अंदर और बाहर अटल के पैने भाषण कांग्रेस के विरोध की धुरी बन चुके थे. संसद में उनके तीखे तेवरों से त्तकालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु भी बच ना सके. जब वो बोलते तो चारों तरफ सिर्फ सन्नाटा होता और उनकी जुबान से निकला एक-एक शब्द पिघले शीशे की तरह कानों में उतर जाता.

वाजपेयी का पहला भाषण जब पार्लियामेंट में हुआ तो उस भाषण के बाद नेहरु आए और उन्होंने वाजपेयी की पीठ थपथपाई. उन्होंने कहा कि बहुत अच्छा बोलते हो लेकिन एक बात याद रखो ये लाल किले का मैदान नहीं है ये पार्लियामेंट है. उसके बाद से उन्होंने अपने आप को ढालना शुरू किया. बाहर के भाषण अलग होते थे और पार्लियामेंट के भाषण अलग होते. फिर उसके बाद से ये ना तो लीडर ऑफ द अपोजिशन थे ना इनकी संख्या ज्यादा थी. इसके बावजूद भी एक बार अटल जी के भाषण में कुछ कांग्रेसियों ने टोका टोकी करने की कोशिश की तो नेहरु ने हाथ उठाकर के मना किया कि सुनो. उस समय भी अटल जी के भाषण को ध्यान से सुनने का काम कांग्रेसी करते थे नेहरु जी तारीफ करते थे.

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इमरजेंसी में गये जेल अटल बिहारी वाजपेयी की कांग्रेस विरोधी राजनीति जब चमकने लगी थी तभी मानो पार्टी पर वज्रपात हुआ. 1968 में जनसंघ अध्यक्ष पंडित दीनदयाल उपाध्याय की रहस्यमयी हालात में अचानक मौत हो गई. अटल बिहारी के सिर पर तो मानों आसमान ही फट पडा. पंडित दीनदयाल ना सिर्फ उनके राजनीति गुरु थे बल्कि जनसंघ की रीढ़ थे. उनकी मौत ने पार्टी को एक बार फिर गहरे सकंट में ला खड़ा किया. और ऐसे हालात में संगठन की अहम जिम्मेदारी भी अटल बिहारी ने संभाली. इसके बाद देश में इमरजेंसी का दौर शुरू होता है. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 को देश में इमरजेंसी लगाई तो राजनीतिक पार्टियों के दफ्तर सील कर नेताओं को जेल मे ठूंस दिया गया. समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण के इंदिरा विरोधी आंदोलन को जनसंघ का भी समर्थन था. लिहाजा इंदिरा गांधी की इमरजेंसी का शिकार अटल बिहारी वाजपेयी भी बने. इसी दौरान वाजपेयी ने बैंगलोर के सेंट्रल जेल में महीनों बिताए और इसी दौरान कविराय के नाम से उन्होंने कई कविताएं लिखी.

इमरजेंसी के दौरान एक तरफ संघ पर प्रतिबंध तो दूसरी तरफ जनसंघ का दफ्तर बंद. घर परिवार से दूर जेल की चारदीवारी में वक्त था कि कटता नहीं था. लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी ने अकेलेपन को कभी खुद पर हावी नहीं होने दिया. जेल की सलाखों के पीछे जब जिंदगी बेमकसद, बेमानी नजर आने लगी तो कैदी कविराय ने कविताओं का सहारा लिया. आखिर वो वक्त भी आया जब इमरजेंसी की अंधेरी रात गुजर गई और देश में चुनाव का सूरज चमक उठा.

वाजपेयी का पहला मिशन इमरजेंसी के बाद हुए 1977 के आम चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी नई दिल्ली से चुनाव जीते और देश की पहली गैर कांग्रेसी, जनता पार्टी सरकार में विदेशमंत्री बनाए गए. पद संभालते ही उनका पहला मिशन था पड़ोसी पाकिस्तान. विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जब संयुक्त राष्ट्र संघ में पहली बार हिंदी में बोले तो उनके भाषण की गूंज सारी दुनिया ने सुनी. लेकिन मोरारजी देसाई की सरकार जल्द ही दोहरी सदस्यता के मुद्दे बिखर गई. देसाई बीजेपी और आरएसएस के बीच दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर अड़े थे.

…तो इस वजह से अटल बिहारी वाजपेयी ने त्याग दिया था अपना जनेऊ

जनसंघ का दीपक बुझाकर अटल बिहारी वाजपेयी ने जनता पार्टी की जो दीवाली मनाई उसकी खुशियों ने ही उनके राजनीतिक ताने बाने को झुलसाकर रख दिया था. जनसंघ नेताओं और राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ (आरएसएस) के रिश्तों को लेकर जनता पार्टी में सवाल खड़े हुए औऱ वो टूटकर राजनीतिक मलबे में तब्दील हो गई लेकिन जनता पार्टी के इसी कीचड़ में खिला कमल. अटल बिहारी वाजपेयी ने जनसंघ के अपने पुराने साथियों के साथ मिलकर 1980 में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की नींव रख दी. और वाजपेयी के करिश्मे ने कुछ सालों में ही भारतीय जनता पार्टी को देश भर में पहचान दिला दी. लेकिन बीजेपी के कमल को असली रंगत दी लालकृष्ण आडवाणी ने. 1986 मे आडवाणी ने जब बीजेपी की कमान संभाली तो गुलाबी कमल भगवा हो गया.

हिंदुत्व रथ से मिला सहारा हिंदुत्व के रथ पर सवार होकर आडवाणी ने भारतीय जनता पार्टी का दायरा तेजी से फैलाय़ा. पार्टी की सीरत और सूरत भी तेजी से बदली बावजूद इसके अटल बिहारी वाजपेयी की उदार छवि पर खरोंच तक नहीं आई. फिर उछला राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद का अहम मुद्दा. तत्तकालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के मंडल कार्ड की काट में आडवाणी ने हिंदू कार्ड खेलते हुए सोमनाथ से रथयात्रा का ऐलान कर दिया. जिसको लेकर अटल-आडवाणी में मतभेद की खबरे गर्म हुई.

पत्रकार प्रशांत मित्रा बताते हैं कि वाजपेयी सहमत थे लेकिन वो इतने ज्यादा सहमत नहीं थे कि वो खुद रथ लेकर वहां जाएं. या रथ यात्रा के साथ खुद जाएं. उसकी वजह ये भी थी कि पार्टी ने माना था कि ये एक संवेदनशील मसला है एक बड़े नेता को दिल्ली में मौजूद रहना चाहिए. दूसरी बात है कि इस रथय़ात्रा का जब सूत्रपात हुआ था तो आडवाणी और बीजेपी के बड़े नेताओं की एक अहम बैठक वाजपेयी जी के घर पर ही हुई थी. वाजपेयी ने तब कहा था कि भई एक चीज आप लोग याद रखिए की आप अयोध्या जा रहे हैं लंका नहीं.

लालकृष्ण आडवाणी के रथ पर सवार भारतीय जनता पार्टी तेजी से कामयाबी की राह पर दौड़ी. 1991 के आम चुनाव में बीजेपी कांग्रेस के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी और 1996 के चुनाव में उसने सबसे बड़ी पार्टी का दर्जा हासिल कर लिया. लेकिन पार्टी की इस जबरदस्त कामयाबी के साथ ही लालकृष्ण आडवाणी के माथे पर लगा बाबरी मस्जिद को गिराने का दाग तो वहीं अटल बिहारी वाजपेयी के हिस्से में आया हिंदुस्तान का ताज.

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