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खबर का असर : अंग्रेजीपरस्त नियम को झटका, हिंदी में रिसर्च भी होगा मान्य !

नई दिल्ली : देश की शायद ही कोई सरकार रही हो जिसने हिन्दी को लेकर बड़े-बड़े दावे न किए हों. लेकिन आज भी हकीक़त ये है कि देश में किसी भी रिसर्च वर्क को तब तक सरकारी मान्यता नहीं मिलती जब तक कि वो अँग्रेजी की रिसर्च मैग्जीन या जर्नल में न छप जाए.

सवाल उठाया तो सरकार के भी कान खड़े हो गए

आज जब हिन्दी के छात्रों की ओर से एबीपी न्यूज़ ने ये सवाल उठाया तो सरकार के भी कान खड़े हो गए. अगर आप किसी भी विषय में शोध कर रहे हैं या करना चाहते हैं और अपने शोध को हिन्दी में रखना चाहते हैं तो ये ख़बर आपके लिए है.

38 हजार 600 पत्र-पत्रिकाओं को मान्यता दी है

देश के उच्च शिक्षा संस्थानों को नियंत्रित करने वाली सबसे बड़ी संस्था यूनिवर्सटी ग्रांट कमीशन यानी यूजीसी ने इसी साल जनवरी में 38 हजार 600 पत्र-पत्रिकाओं को मान्यता दी है. कहा है कि अगर किसी छात्र का रिसर्च वर्क इन मान्यता प्राप्त पत्रिकाओं में से किसी में छपेगा तभी उस रिसर्च पेपर को एकेडमिक स्टाफ की नौकरियों में तरजीह दी जाएगी.

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हैरानी होगी कि इनमें एक भी पत्रिका हिन्दी की नहीं

लेकिन, आपको जान कर हैरानी होगी कि इनमें एक भी पत्रिका हिन्दी की नहीं है. यानी किसी भी विषय में किया गया शोध अगर हिन्दी भाषा में लिखा गया है तो उसे यूजीसी की मान्यता नहीं मिल सकती. यूजीसी की इस मनमानी पर हिन्दी के विद्वानों के साथ-साथ सरकारी हिन्दी संस्थानों के आला अधिकारी तक हैरत में हैं.

भाषा के मामले में ऐसा भेद-भाव नहीँ होना चाहिए

केंद्रीय हिन्दी संस्थान के उपाध्यक्ष कमल किशोर गोएनका ने कहा है कि 'यूजीसी अपनी नीति का संशोधन करे और केवल हिन्दी ही नहीं अन्य भारतीय भाषाओं में छपे शोध को भी मान्यता दे. हम यूजीसी की वर्तमान अँग्रेजीपरस्त नीति का विरोध करते हैं. भाषा के मामले में ऐसा भेद-भाव नहीँ होना चाहिए. ये अनुचित और अलोकतांत्रिक भी है.'

हिन्दी साहित्य में ही 400 से अधिक स्तरीय पत्रिकाएँ प्रकशित

ध्यान देने की बात है कि सिर्फ़ हिन्दी साहित्य में ही 400 से अधिक स्तरीय पत्रिकाएँ प्रकशित होती हैं. जो सभी विषयों के मौलिक शोध को भी प्रकाशित करती हैं. इनमें से कुछ तो अपना प्रभाव और पहचान अंतर्रष्ट्रीय स्तर पर रखती हैं. हिन्दी में दो तरह की शोध पत्रिकाएँ छपती है.

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छपने वाली शोध पत्रिकाएँ जिनमें करदाताओं का पैसा लगा होता है

एक सरकारी संस्थानों और विश्वविद्यालयों से छपने वाली शोध पत्रिकाएँ जिनमें करदाताओं का पैसा लगा होता है. अगर इन्हें यूजीसी स्तरीय नहीं मानती तो इन पत्रिकाओं को सरकार क्यों चला रही है ? सरकारी पत्रिकाएँ- समकालीन भारतीय साहित्य, बहुवचन, प्रतिमान, उत्तर प्रदेश, आजकल आदि.

शुरुआत मुंशी प्रेमचंद ने हंस छाप के शुरू की थी

दूसरी उन पत्रिकाओं की परम्परा है जिसकी शुरुआत मुंशी प्रेमचंद ने हंस छाप के शुरू की थी. इस धारा की स्वतंत्र पत्रिकाएँ हैं - हंस, आलोचना तद्भव, पहल, नया ज्ञानोदय, वाक, दस्तावेज, गवेषणा, पाखी, कथादेश आदि. जब एबीपी न्यूज़ ने हिन्दी के साथ हो रहे इस भेदभाव को शिक्षा मंत्री के सामने रखा तो शिक्षा मंत्री ने वादा किया कि ये स्थिति दूर होगी.

'सिर्फ़ अँग्रेजी की पत्रिकाएँ अब नहीं होंगी : प्रकाश जावडेकर

उच्च शिक्षा राज्य मंत्री, डा. महेंद्र नाथ पाण्डेय ने कहा कि ' यह महत्वपूर्ण सवाल है. मैं खुद इस स्थिति को देखूंगा...." केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री, प्रकाश जावडेकर ने कहा कि 'सिर्फ़ अँग्रेजी की पत्रिकाएँ अब नहीं होंगी. हिन्दी की पत्रिकाएँ और जनरल भी होंगी.'

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