Jugnuma the fable Review: फिल्म फेस्टिवल्स में तारीफ बटोर चुकी इस फिल्म में आम दर्शक को नहीं आएगा मजा, मनोज वाजपेयी और दीपक डोबरियाल की बढ़िया एक्टिंग
Jugnuma the fable Review: जुगनुमा द फैबल की फिल्म फेस्टिवल्स में खूब तारीफ हुई है. हालांकि आम दर्शकों को इस मूवी में कोई मजा नहीं आएगा. यहां इसका रिव्यू पढ़ लें.
राम रेड्डी
मनोज बाजपेयी, दीपक डोबरियाल, तिलोत्तमा शोम, प्रियंका बोस
थिएटर
इस फिल्म में मनोज वाजपेयी पंख लगाकर उड़ते हैं और आपको लगता है कि काश वो उड़ते उड़ते किसी कमाल के राइटर और फिल्ममेकर के पास पहुंच जाएं क्योंकि उनके अंदर जो काबिलियत है उसका इस्तेमाल आजकल ठीक से हो नहीं रहा. अगर किसी फिल्म को इंटनेशनल फिल्म फेस्टिवल्स में वाहवाही मिल जाती है तो इसका मतलब ये कतई नहीं कि वो कमाल की फिल्म होगी या फिर दर्शकों को वो समझ और पसंद आएगी ही. जुगनुमा को कई फिल्म फेस्टिवल्स में तारीफें मिली, 38वें लीड्स फिल्म फेस्टिवल में ये बेस्ट फिल्म बनी, लेकिन ये फिल्म देखकर लगा कि ये फिल्म फेस्टिवल्स के लिए बनाई गई है, ना कि आम दर्शक के लिए. इसे फिल्म की जगह डॉक्यूमेंट्री कहें तो ज्यादा बेहतर रहेगा. इसे थिएटर में क्यों रिलीज किया गया ये समझ से परे है. इसे ओटीटी पर आना चाहिए था क्योंकि इस तरह की फिल्में देखने लोग थिएटर में शायद ही जाएंगे.
कहानी
ये कहानी है देव यानि मनोज वाजपेयी की जो पहाड़ों में एक बड़े से बागान का मालिक है. पंख लगाकर उड़ता है,ये बागान उसके दादा को अंग्रेजों से मिला था. वो अपने बागानों में पेस्टिसाइड्स का भी इस्तेमाल करता है और ये काम उसका मैनेजर मोहन यानि दीपक डोबरियाल करता और करवाता है, लेकिन एक दिन अचानक पेड़ों में आग लगनी शुरू हो जाती है. ये आग क्यों लग रही है, कौन लगा रहा है, इसी का पता ये फिल्म लगाती है.
कैसी है फिल्म
इस फिल्म के एक सीन में देव यानि मनोज वाजपेयी किसी से पूछते हैं -सब ठीक है ना, ये फिल्म देखते हुए लगता है कि काश वो दर्शक से भी ये पूछ लेते , ये एक कमर्शियल फिल्म नहीं है, ये फिल्म काफी स्लो है, फिल्म को समझने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है. तब भी कई जगह फिल्म समझ नहीं आएगी, इतने लंबे लंबे शॉट्स दिखाए गए हैं कि फिल्म बोरिंग लगने लगती है, आपको नींद आने लगती है, आपको समझ नहीं आता कई बार कि क्या चल रहा है. ये फिल्म कुछ कहना तो चाहती है लेकिन वो समझना मुश्किल होता है, ये वैसा है जैसे आम आदमी को कुछ समझाना हो और उन शब्दों का इस्तेमाल किया जाए जैसा कई बार शशि थरूर करते हैं. फिल्म फेस्टिवल से आई फिल्मों की तारीफ करना एक ट्रेंड है और हर कोई इस भेड़चाल का हिस्सा बन जाता है लेकिन सच यही है कि ये फिल्म आम दर्शक के पल्ले नहीं पड़ेगी. सिनेमैटोग्राफी अच्छी है,लोकेशन्स अच्छी लगती हैं, एक्टिंग अच्छी है लेकिन कुल मिलाकर ये फिल्म निराश करती है.
एक्टिंग
मनोज वाजपेयी खराब एक्टिंग करते ही नहीं हैं, यहां भी वो कमाल कर गए हैं लेकिन वो बस एक्टिंग कर सकते हैं, राइटिंग और डायरेक्शन उनके हाथ में नहीं है. यहां उन्होंने अपना काम कमाल तरीके से किया है, दीपक डोबरियाल जबरदस्त हैं, उन्हें वो मौके मिले ही नहीं जिस दर्जे के वो एक्टर हैं. यहां भी वो कमाल कर गए हैं, प्रियंका बोस और तिलोत्तमा शोम ठीकठाक हैं.
राइटिंग और डायरेक्शन
राम रेड्डी ने ये फिल्म लिखी और डायरेक्ट की है, उन्होंने अपनी पिछली और पहली फिल्म तिथि साल 2016 में डायरेक्ट की थी. इस कन्नड़ फिल्म के लिए उन्हें नेशनल अवॉर्ड समेत कई इंटरनेशनल अवॉर्ड मिले थे. इस फिल्म को भी लगता है अवॉर्ड्स के लिए बनाया गया है, जो इसे मिल भी रहे हैं लेकिन इसे थोड़ा सा और सिंपल बनाना चाहिए था ताकि दर्शक समझ सके और इससे एंटरटेन हो सके.
कुल मिलाकर अगर फेस्टिवल टाइप की फिल्में देखना पसंद है तो देखिए, मसाला फिल्मों के शौकीन हैं तो बोर हो जाएंगे
रेटिंग- 2 स्टार्स
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