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Ganesh Chaturthi 2024: लोकमान्य तिलक से जुड़ा है महाराष्ट्र के गणेशोत्सव का इतिहास, जानें 10 दिवसीय गणेश चतुर्थी का महत्व

Ganesh Chaturthi 2024: 10 दिवसीय गणेश चतुर्थी का पर्व इस साल 7 सितंबर से शुरू हो रहा है. गणेश उत्सव (Ganesh Utsav) को राष्ट्रीय उत्सव बनाने में लोकमान्य तिलक (Lokmanya Tilak)की अहम भूमिका रही.

Ganesh Chaturthi 2024: महाराष्ट्र (Maharashtra) में लोकमान्य तिलक (Lokmanya Tilak) के नेतृत्व में गणेश उत्सव देशभक्ति के प्रचारार्थ एक राष्ट्रीय उत्सव बन गया था. क्रान्तिकारी श्रीखानखाजेने अनुसार, उसे राष्ट्र धर्म का स्वरूप मिला है. उसी के अनुकरण पर ही मुंबई, अमरावती, वर्धा, नागपुर आदि नगरों में भी सार्वजनिक गणेश उत्सव (Ganesh Utsav) आरम्भ हुए.

गणेश जी 'गणानां त्वा गणपतिः हवामहे'- इस मन्त्र के अनुसार व्यापक रूप से गणराज्य देने वाले, स्वतन्त्र देवता हैं, यह प्रचार आरम्भ हुआ. उत्तम भाषण और देशभक्तों के द्वारा गणेश जी के आश्रय में क्रान्तिकारियों को संगठित करने का कार्य सफल रहा. धार्मिक उत्सव होने के कारण पुलिस उस में हस्तक्षेप नहीं कर सकती थी.

एक प्रतिष्ठित प्रकाशन के अनुसार, लोकमान्य ने देश के लिए अपना जीवन अर्पण करने का दृढ़ निश्चय किया था. इसलिए राष्ट्रीय शिक्षा से ओत-प्रोत नवयुवकों को तैयार करने के लिये इन्होंने 'न्यू इंग्लिश स्कूल' को स्थापना के एक वर्ष के बाद ही 'केसरी' और 'मराठा' (Maratha) इन पत्रों का प्रकाशन आरम्भ किया, जिनका मुख्य ध्येय प्रौढ़ जनता को राजनीतिक दृष्टि से जाग्रत् करना था.

अनादिकाल से चली आ रही है गणेश पूजन

गणेश जी का मूलस्वरूप माना जाता है. इस रूप में उनकी प्रार्थना और पूजा अनादिकाल से चली आ रही है. किसी भी देवता का उपासक हो, फिर भी वह प्रथम गणेश पूजा के बाद ही अपने उपास्य देव को पूजा करता हैं. सभी धार्मिक कर्मकाण्ड प्रथम गणेश पूजन से ही आरम्भ होते हैं. यहां तक कि चाहे कोई मन्त्र हो-आदि में ॐ अवश्य लगा रहता है और अन्त में भी ॐ लगा दिया जाता है तो उसकी शक्ति और बढ़ जाती है.

केवल भारत में ही नहीं, ब्रह्मदेश, हिंद चीन,स्थाम, तिब्बत, चीन, मैक्सिको, अफगानिस्तान, रूस, हिंदेशिया आदि देशों में ऐसे प्रमाण आज भी उपलब्ध हैं, जिनसे यह प्रकट होता है कि वहीं भी श्रीगणेश उपासक का प्रभाव था. उन देशों से प्राप्त मूर्तियों के कई चित्र मूर्तिविज्ञान-विषयक ग्रन्थों में मिलते हैं.

पहले 6 दिनों तक चलता था गणेश उत्सव

हिंदू-धर्म में अनेक उपासना-मार्ग हैं, जैसे-शैव, वैष्णव, शाक्त आदि. इनमें गणेश की उपासना करने वालों को 'गाणपत्य' कहते हैं. ये लोग गणेश पंचायतन की उपासना करते हैं. इनके उपासक दक्षिण में और विशेषरूप से महाराष्ट्र में मिलते हैं. श्रीमन्त पेशवा सरकार गणेश की उपासक थी. उनके शासनकाल में गणेशोत्सव बड़े ही राजकीय ठाट-बाट से मनाया जाता था. 

गणेश उत्सव का इतिहास (Ganesh Utsav History)

श्रीमन्त सवाई माधवराव के शासनकाल में यह उत्सव शनिवारवाडा के गणेश महल में विशाल रूपसे होता था. उस समय यह उत्सव छः दिनों तक चलता था. गणेश विसर्जन की शोभायात्रा सरकारी लाव-लश्कर के साथ निकलकर ओंकारेश्वर घाट पहुँचती थी, जहाँ नदी में विग्रहका विसर्जन होता था.इसी तरह पटवर्धन, दीक्षित, मजुमदार आदि सरदारों के यहाँ भी उत्सव होता था. उत्सव में कीर्तन, प्रवचन, रात्रिजागरण और गायन आदि भी होते थे. 

पुणे में निजीरूप से इस चालू उत्सव को सरदार कृष्णाजी काशीनाथ उर्फ नाना साहेब खाजगीवाले ने सर्वप्रथम सार्वजनिक रूप दिया. सन् 1892 में वे ग्वालियर गए थे, जहां उन्होंने राजकीय ठाट-बाट का सार्वजनिक गणेश उत्सव देखा था, जिससे प्रभावित होकर पूना में भी उन्होंने इसे 1893 में आरम्भ किया. पहले वर्ष खाजगीवाले, घोटवडेकर और भाऊ रंगारी ने अपने यहां सार्वजनिक रूप से गणेश-उत्सव आरम्भ किया. विसर्जन के लिए शोभायात्रा भी निकली. कहा जाता है कि खाजगीवाले के गणेश जी को शोभायात्रा में पहला स्थान मिला.

अंगले वर्ष 1894 में इनकी संख्या बहुत बढ़ गई. कौन-से गणेश आगे रहें, यह प्रश्न उठा. इसके लिए ब्रह्मचारी बोवाने लोकमान्य और अण्णा साहेब पटवर्धन को निर्णायक बनाया. इन दोनों ने पुणे के ग्रामदेवता श्रीकसबागणपति और जोगेश्वरी के गणपति को क्रमशः पहला, दूसरा और तीसरा स्थान खाजगीवाले को दिया. यह क्रम आज भी चालू है. राष्ट्रीय चेतना के लिए लोकमान्य ने महाराजा शिवाजी की स्मृति में शिवाजी-जयंती का महाराष्ट्र में प्रचलन किया.

पहली बार मराठा नरेशों ने भी इसमें भाग लिया था. इससे ब्रिटिश सरकार अप्रसन्न हो गई, क्योंकि लोगों में राष्ट्रीयता का संचार होता था तथा उसमें सरकार को विद्रोह के बीज दिखाई दे रहे थे, जिसे वह अंकुरित होने देना नहीं चाहती थी. अतः बादमें सरकारी कोपरो बचने के लिए मराठा-नरेश उससे उदासीन हो गए. लोकमान्य को गणेश उत्सव के रूप में स्वर्ण अवसर हाथ लगा. उन्होंने इसे राष्ट्रीय उत्सव के रूप में परिवर्तित कर दिया-ज्ञानसत्र का रूप दे दिया.

6 दिनों का गणेश पूजन कैसे बना दस दिवसीय गणेशोत्सव

छः दिनों के उत्सव को अब दस दिनों का बना दिया गया. अंग्रेजी शिक्षा के कारण हिंदू युवक आचार-भ्रष्ट और विचार- भ्रष्ट होने लगे. उनमें हिंदू धर्म के प्रति अबद्धा पैदा होने लगी. देवी-देवताओं और पूजा-उपासना का वे मजाक उड़ाने लगे. इस अनिष्ट की और कई लोगों का ध्यान गया और वे इसके निराकरण का उपाय भी सोचने लगे. लोकमान्य ने इसके लिए गणेश-उत्सव को अपना साधन बनाया. इसके माध्यम से उन्होंने हिंदुओं में जीवन और जागरण उत्पन्न करने वाले कार्यक्रम रखने आरम्भ किए.

कीर्तन, प्रवचन, व्याख्यान और मेला (ख्याल)- के साथ संगीत के तीनों अंग-गायन, वादन और नृत्य को त्रिवेणी को भी इसमें स्थान मिला. प्रहसन और नाटक भी इसकी शोभा बढ़ाने लगे. व्याख्यानों के विषय ऐसे रखे जाते थे, जिनसे अपने अतीत धर्म, वेदों और पुराणों (Ved Puran), भारतीय साहित्य और संस्कृति, अपने देश, राम और रामायण, कृष्ण और गीता, ज्योतिष, संस्कृत और आयुर्वेद के प्रति लोगों को उत्पन्न होने वाली घृणा श्रद्धा में बदल गयी. उन्हें यह भान हुआ कि वेद और पुराण कल्पित नहीं है. विदेशियों और विशेषकर अंग्रेजों ने हमारे इतिहास को इस ढंगसे लिखा है कि हमारा अतीत कलुषित दिखायी दे. पर इन उत्सवों के माध्यम से अतीत के उज्वल पृष्ठ उजागर होकर सामने आने लगे.

अपने-अपने विषय के विद्वान् वक्ता सब कुछ इस ढंग से व्याख्या करने लगे कि लाख प्रयत्न करने पर भी वे सरकारी कानून के शिकंजे में नहीं आ सके और जो कुछ कहना चाहते, धर्म की आड़में कह देते. प्रारम्भ में तो सरकार ने इस ओर विशेष ध्यान नहीं दिया. पर जैसे-जैसे यह उत्सव अपना प्रभाव फैलाने लगा, इसकी किरणें देश में ही नहीं, विदेशों में, जैसे अदन, नैरोबी आदि में अपना प्रकाश फैलाने लगीं, सरकार के कान खड़े हो गए. उसमें उसे विद्रोह की झलक दिखायी देने लगी.

इसे लेकर हिंदुओं में फूट डालने का भी प्रयत्न किया गया. लोकमान्य इन सब विरोधियों और सरकार के पक्षपातियों को अपने व्याख्यानों और 'केसरी' और 'मराठा के इन दो पत्रों के माध्यम से मुंहतोड़ जवाब दिए, जिससे उनकी एक नहीं चली और जनता इसमें दुगुने उत्साह से सम्मिलित होने लगी.

बाद में अंग्रेजों ने मुसलमानों को भड़काया कि 'गणेश-उत्सव तुम्हारे विरोध में है.' पर जब वे लोग इसमें सम्मिलित होते तो उनके सामने इसकी सत्यता उजागर हो जाती थी कि यह तो विशुद्ध धार्मिक पर्व है, जिसकी आड़ में राष्ट्रीयता का प्रचार होता है; किसी धर्म, जाति या सम्प्रदाय के विरोध में नहीं: अतः उनके भाषण भी उत्सवों में होने लगे. 1892 के बाद से 1920 तक एकाध अपवाद को छोड़‌कर कहीं भी सामुदायिक दंगे नहीं हुए. यह गणेशजी की ही कृपा थी.

लोकमान्य गणेश उत्सव (Ganesh Utsav) के माध्यम से राष्ट्रीयता की पोषक चतुःसूत्री योजना स्वदेशी माल का प्रचार, विदेशी मालका बहिष्कार, राष्ट्रीय शिक्षाका प्रसार और महापान निषेध का प्रचार आदि के संदेश को जनता तक पहुंचाने में पूर्ण सफल रहे. किंतु इन उत्सवों के पूर्णतया धार्मिक होने से प्रत्यक्षरूप से सरकार के लिए उनपर प्रतिबन्ध लगाना असम्भव था, अतः उसने दूसरे मार्ग का अवलम्बन किया. लोकमान्य पर 'केसरी' में प्रकाशित लेखों को राजद्रोहात्मक सिद्ध कर उन्हें मांडले जेल में भेज दिया गया.

सरकार को आशा थी कि लोकमान्य के जेल चले जाने से उत्सव स्वयं ही बंद हो जाएंगे, पर ऐसा हुआ नहीं. जन-जन के हृदय में स्वतन्त्रता की लहरें हिलोरें ले रही थीं. बंग-भंग भी इसी काल में हुआ था; अतः गणेश-उत्सव दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही रहा. अब बड़े नगरों में ही नहीं, छोटे-छोटे गांवों में भी उत्सव मनाया जाने लगा. उत्सवों में कर्जनशाही के विरुद्ध मेलों (खयाल) के गीतों में प्रहार होने लगा. उस समय आज की तरह बिजली नहीं थी.

इसलिए तेल की मशाल जलायी जाती थी, जो लकड़ी पर कपड़ा लपेटकर तैयार होती थी. सरकार ने लाठी लेकर उत्सव में भाग लेने पर पाबंदी लगा दी. लेझिम का खेल भी उत्सव में बंद हो गया. नकली भाला लेकर जो करामात दिखाते थे, उन अखाड़ों पर भी रोक लगा दी गयी. इतना ही नहीं, मेला (खयाल) गाने वाले बालकों के नाम-ग्राम भी लिखकर उनके माता पिता को संग किया जाने लगा. इससे मेला गाने वालों की संख्या कुछ समय के लिए घट गयी. इतना ही नहीं, 'तिलक महाराज को जय' का नारा भी गैरकानूनी घोषित किया गया. इस नारे के लगाने के झूठे आरोप पर लोगों को चार-चार सौ रुपयों के अर्थ दण्ड भी दिए गए.

'शिवाजी महाराजकी जय' पर भी लोगों को सजा होने लगी. शोभा यात्राएं शिवाजी और लोकमान्य के चित्रों पर रोक लगा दी गयी. इस तरह सरकार ने उत्सव में भाग लेने वालों को तंग करना आरम्भ कर दिया. फिर भी जन-जन में व्याप्त स्वाधीनता का संदेश अपना प्रभाव प्रकट करने लगा. लोगों ने कानून तोड़ना आरम्भ कर दिया. यहां तक कि शोभा-यात्रा को पुलिस ने कहीं रोका तो गणेशजी की सवारी को वहीं रखकर लोग चले गए और बाद में पुलिस को उठाकर उन्हें विसर्जित करना पड़ा और इन लोगों पर सड़क रोकने के अपराध में सजा हुई. 

प्रभावशाली लोगों ने गणेश उत्सव में दिए भाषण

अब गणेश उत्सव केवल महाराष्ट्र तक ही सीमित नहीं रहा, सारे देश में यह उत्साह के साथ मनाया जाने लगा. स्वामी ब्रद्धानन्द, लाला लाजपतराय (Lala Lajpat Rai), विपिनचन्द पाल, नेताजी सुभाष चंद्र बोस (Subhas Chandra Bose), अब्दुला ब्रेलवी, महामना मदनमोहन मालवीय, आचार्य ध्रुव, बाबू भगवानदास, नरीमान, सरोजिनी नायडू (Sarojini Naidu), मौलिचन्द्र शर्मा, जमनादास मेहता, पन्नालाल व्यास-जैसे हिंदूमुसलमान, पारसी आदि सभी धर्म कि प्रभावशाली लोग इनमें भाषण देने लगे और आज की तरह ध्वनिप्रसारक यन्त्र (लाउडस्पीकर) नहीं थे. अतः वक्ता को अपनी वाणी पर ही अधिकार रखकर अपनी बात हजारों श्रोताओं तक पहुंचानी पड़‌ती थी.

गणेश-उत्सव के कारण एक ओर जहां राष्ट्रीय चेतना को बल मिला तो दूसरी ओर साहित्य और कला को प्रोत्साहन मिला. उत्सवों के सभी कार्यक्रम मराठी, हिंदी या स्थानीय भारतीय भाषा में होते थे, जिससे भारतीय भाषाओं के प्रति जन-जन में आदर पैदा हुआ कि ये भी विद्वानों की भाषाएं हैं.

मेला (खयाल) के लिए कवि गीत बनाकर देने लगे. पोवाडे (वीररस-काव्य) और भी लोकप्रिय हो गए. रंगमंच ने प्रगति की. नए-नए नाटक लिखे जाने लगे. उत्सव के कारण ही मराठी रंगमंच में नया जीवन आया. शाहौर (लोकगीत) और लावणी के प्रति लोगों में आकर्षण बढ़ा. मूर्तिकार गणेशजी की छोटी से लेकर बड़ी तक असंख्य मूर्तियां प्रतिवर्ष बनाने लगे, जिससे मूर्तिकला और उसके कलाकारों को संरक्षण मिलाः क्योंकि मूर्तियां मिट्टी को रहने से प्रतिवर्ष नयी बनाकर स्थापित की जाती है.

इस तरह लोकमान्य ने गणेश उत्सव को देश की प्रगति का लोकप्रिय आधार बना दिया. लोकमान्य तिलक तो 1920 में तिरोहित हो गये, पर उनके द्वारा प्रवर्तित राष्ट्रीय 'चेतना का पर्व गणेश उत्सव आज भी देश-विदेश में दुगुने उत्साह और ठाट-बाट से मनाया जा रहा है. गत 100 वर्षों में अनेक उतार-चढ़ाव आए, देश दासता से मुक्त हुआ, पर भगवान गणेशजी की कृपा से इन उत्सवों में कोई कमी नहीं आयी. वह सतत चल रहा है और चलता रहेगा. उसके साथ लोकमान्य की राष्ट्रीय जागरण की भावना जो है, जन-जागरण की यह महान् ज्योति सदा प्रज्वलित रहेगी. इसलिए बाल गंगाधर तिलक 'लोकमान्य' कहलाए.

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नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

मुंबई के रहने वाले अंशुल पांडेय धार्मिक और अध्यात्मिक विषयों के जानकार हैं. 'द ऑथेंटिक कॉंसेप्ट ऑफ शिवा' के लेखक अंशुल के सोशल मीडिया और डिजिटल प्लेटफॉर्म और समाचार पत्रों में लिखते रहते हैं. सनातन धर्म पर इनका विशेष अध्ययन है. पौराणिक ग्रंथ, वेद, शास्त्रों में इनकी विशेष रूचि है, अपने लेखन के माध्यम से लोगों को जागरूक करने का कार्य कर रहें.
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