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शोध और नवोन्मेष के बिना नहीं पूरा होगा विश्वगुरु का सपना, नेशनल रिसर्च फाउंडेशन के जरिए रखी जा रही उस भविष्य की नींव

भारत शुरुआती तकनीकी और औद्योगिक क्रांति की रेल पहले ही मिस कर चुका है, उसके लिए किसी को दोष देना या न देना उचित नहीं होगा. फिलहाल, तो भारत को अपनी अपार संभावनाओं को तलाशना है.

वर्तमान केंद्र सरकार ने 2019 में राष्ट्रीय अनुसंधान संस्थान यानी नेशनल रिसर्च फाउंडेशन (NRF) की घोषणा की थी और इसकी जानकारी प्रधानमंत्री मोदी ने लालकिले के प्राचीर से अपने भाषण में दी थी. एनआरएप अलग-अलग मंत्रालयों के द्वारा स्वतंत्र रूप से दिए गए रिसर्च संबंधी अनुदान को एक करेगा और रिसर्च को राष्ट्रीय प्राथमिकता के विषयों से जोड़ेगा. पहली बार सकार ने इसके लिए पांच वर्षों में 50 हजार करोड़ का बजट लागू किया है. यह देर से आया लेकिन दुरुस्त कदम है, क्योंकि भारत को अगर विश्वगुरु बनना है तो शोध और अनुसंधान में हमें शीर्ष पर होना ही पड़ेगा. यह नयी शिक्षा नीति या न्यू एजुकेशन पॉलिसी (नेप) के तहत की गयी सबसे बड़ी घोषणाओं और योजनाओं में से एक है. 

शोध में भारत बहुत ही पीछे

पिछले एक दशक में हम एक देश के तौर पर ठीक राह पर चल रहे हैं. हम दुनिया की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था बन गए हैं, दुनिया जब मंदी की ओर जा रही है, तब भी हम ठीकठाक प्रदर्शन कर रहे हैं, सामरिक मामलों में हम मेक इन इंडिया के जरिए आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रहे हैं, वैश्विक स्तर पर हमारी भूमिका सक्रियता की है, लेकिन और यह एक बड़ा लेकिन है. हमारे यहां शोध की हालत खराब है. भारत में रिसर्च और नवोन्मेष पर निवेश इस समय जीडीपी का केवल 0.69 फीसदी है, वहीं इजरायल में यह 4.3 प्रतिशत तो अमेरिका में 2.8 फीसदी और दक्षिण कोरिया में 4.2 प्रतिशत है. नेप के तहत सबसे बड़ी घोषणाओं में एक एनआरएफ का उद्देश्य भारत में अलग-अलग धाराओं में रिसर्च कर रहे सभी शोधार्थियों को फंड की कमी नहीं होने देना है.

यह चार प्रमुख विषय़ों में रिसर्च प्रोजेक्ट्स को फंड देगा, ताकि गैर-वैज्ञानिक विषयों को भी यह अपने दायरे में ला सके. साइंस, तकनीक, सामाजिक विज्ञान, कला एवं मानविकी में एनआरएफ फंडिंग करेगा. हमारे देश में अक्सर ही पैसों की कमी को शोध की गुणवत्ता के पीछे सबसे बड़े कारणों में बताया जाता है. हालांकि, पैसों की कमी के साथ ही फिलहाल देश में शोधकर्ताओं की संख्या भी बहुत कम है. ऑल इंडिया सर्वे ऑफ हायर एजुकेशन की एक रिपोर्ट बताती है कि हमारे देश में 0.5 प्रतिशत विद्यार्थी ही पीएचडी या समकक्ष पढ़ाई करते हैं. एनआरएफ इन्हीं कमियों को पूरा करने आया है. नयी शिक्षा नीति ने हमारी कमियों को रेखांकित कर उसे हटाने की दिशा में प्रयास शुरू किया है. 

देर आए, लेकिन दुरुस्त आए

एनआरएफ भारत सरकार का देर से ही सही, लेकिन दुरुस्त उठाया गया कदम है. पहली बार 2019 के बजटीय भाषण में उल्लेख के बाद 2020 में स्थापना के बाद वित्तमंत्री ने 2021 में पांच वर्षों के लिए इसे 50 हजार करोड़ का फंड दिया. एनईपी2020 में लिखा है कि एनआरएफ “योग्यता-आधारित लेकिन न्यायसंगत समतुल्य विशेषज्ञों की समीक्षा द्वारा अनुसंधान निधि” का विश्वसनीय आधार प्रदान करेगा. यह “उत्कृष्ट शोध के लिए उपयुक्त प्रोत्साहन”  देगा, जिससे देश में अनुसंधान की संस्कृति विकसित होगी. इसमें यह भी बताया है कि "एनआरएफ राज्य सरकारों द्वारा संचालित विश्वविद्यालयों और अन्य सार्वजनिक संस्थानों में अनुसंधान और विकास के लिए बड़ी पहल करेगा, जहां वर्तमान में अनुसंधान क्षमता सीमित या नगण्य है." एनआरएफ स्कूलों में ही शोध-प्रतिभाओं की पहचान करने और यूनिवर्सिटी में अनुसंधान को बढ़ावा देने का, स्नातक के कोर्स में रिसर्च और इंटरशिप को अनिवार्य करने का भी सुझाव देता है. 

दुनिया फिलहाल उद्योग के मामले में चौथे चरण में तो कंप्यूटर में तीसरे चरण और जेनेटिक्स में दूसरे चरण के शोधों में आगे बढ़ रही है. यह एआई, क्वांटम कंप्यूटिंग, रोबोटिक्स, क्रिप्टो तकनीक और ह्युमन जीनोम की परियोजनाओं का जमाना है. भारत शुरुआती तकनीकी और औद्योगिक क्रांति की रेल पहले ही मिस कर चुका है, उसके लिए किसी को दोष देना या न देना उचित नहीं होगा. फिलहाल, तो भारत को अपनी अपार संभावनाओं को तलाशना है. आम तौर पर सरकार की ऐसी घोषणाओं को हवा-हवाई समझकर जनता भुला देती है, क्योंकि वे नेताओं की चाल से वाकिफ हैं. हालांकि, एनआरएफ को देर आए, लेकिन दुरुस्त आए प्रयास की तरह देखना चाहिए. प्रधानमंत्री खुद तकनीक और नवोन्मेष में रुचि रखते हैं और इसीलिए एनआरएफ को खुद लीड भी कर रहे हैं. उनके साथ सहयोगी के तौर पर शिक्षा मंत्री और टेक्नोलॉजी मिनिस्टर भी हैं. 

विश्वगुरु बनना है तो नवोन्मेष ही है राह

सरकार का फोकस एनआरएफ के जरिए अकादमिक और शोध संस्थानों की हालत सुधारना है, क्योंकि दशकों से इन संस्थानों की शोध-संस्कृति बिल्कुल बिगड़ गयी थी. सरकार के पिछले कुछ वर्षों के लगातार प्रयासों से हालात कुछ सुधरे हैं. पिछले पांच वर्षों में भारत में 54 फीसदी अधिक शोधपत्र छपे हैं, हालांकि इनमें से कई की गुणवत्ता और प्रासंगिकता पर सवाल उठाए जा सकते हैं, एक शोध के मुताबिक इनमें से केवल 15 फीसदी का उल्लेख ही शीर्ष के शोध-पत्र (जर्नल्स) में हुआ है. चीन में इसी दौरान करीब 40 लाख 50 हजार रिसर्च पेपर छपे औऱ वह दुनिया में शीर्ष पर था. भारत में 10 लाख पेपर ही छपे, जबकि ब्रिटेन में 1.4 मिलियन और अमेरिका में 4.4 मिलियन. भारत का स्थान वैश्विक स्तर पर 10वां हैं, अगर उद्धरण (साइटेशन) के मामले देखें तो. पेटेंट का भी यही हाल है.

भारत ने 2022 में 60 हजार पेटेंट किए, जिसमें तकरीबन आधे स्थानीय थे यानी उनकी गुणवत्ता कम थी. उसी समय चीन ने 40 लाख पेटेंट किए, जिनमें से 25 फीसदी उच्चस्तरीय थे. विकसित देश उन्हीं पेटेंट को उच्चस्तरीय मानते हैं, जो भविष्य की राह पर हों. एआई के क्षेत्र में भारत को बहुत कुछ करना है, क्योंकि 2030 तक यह वैश्विक जीडीपी में 15.7 ट्रिलियन डॉलर का योगदान करेगा. इसका 70 फीसदी हिस्सा तो चीन और अमेरिका खा जाएंगे, बाकी जूठन में ही हमें बांटना पड़ेगा. पिछले वित्त वर्ष में भारत ने 250 बिलियन डॉलर इस क्षेत्र से कमाए हैं, तो उम्मीद बनती है. चीन औऱ अमेरिकी एआई से संबंधित शोध और विकास (आर एंड डी) में 150 बिलियन डॉलर खर्च कर रहे हैं, हमारे देश में तीन सेंटर ऑफ एक्सीलेंस खोलने की घोषणा के बावजूद शुरुआती निवेश केवल 2 बिलियन डॉलर है. गोल्डमैन सैश की मानें तो एआई दुनिया भर में 300 मिलियन नौकरियां खा सकता है और भारत भी इसी कतार में शामिल होगा. 

आगे की राह यही है कि दुनिया में अभी जो हवा चल रही है, जो नेतृत्व के क्षेत्र जैसे जेनेटिक्स, रोबोटिक्स, एआई वगैरह हैं, उनमें शोध और विकास ही भारत के आर्थिक और तकनीकी महाशक्ति बनने की राह सुनिश्चित करेगा. वही राह विश्वगुरु की मंजिल तक हमें पहुंचाएगी और एनआरएफ ही भविष्य के लिए हमारा वाहन. 

व्यालोक जेएनयू और आइआइएमसी से पढ़े हैं. विभिन्न मीडिया संस्थानों जैसे ईटीवी, दैनिक भास्कर, बीबीसी आदि में 15 वर्षों से अधिक का अनुभव. फिलहाल स्वतंत्र पत्रकारिता और अनुवाद करते हैं.
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