World's First Narco Test: सबसे पहले कब किया गया था नार्को टेस्ट, किस तकनीक से जुर्म कबूलते हैं अपराधी?
World's First Narco Test: नार्को टेस्ट का इस्तेमाल अपराधियों से सच बुलवाने के लिए किया जाता है. आज हम जानेंगे कि क्या है इसकी पूरी प्रक्रिया और यह कैसे काम करता है.

World's First Narco Test: नार्को टेस्ट एक दिलचस्प फॉरेंसिक तकनीक है. इसका इस्तेमाल आपराधिक जांच के दौरान किया जाता है. दरअसल इसमें व्यक्ति को एक दवा, जो आमतौर पर सोडियम पेंटोथल होती है, अर्ध चेतन या सम्मोहन की अवस्था में ले जाने के लिए दी जाती है. इस अवस्था में जाने के बाद व्यक्ति के सभी संकोच कम हो जाते हैं और ऐसा माना जाता है कि उसकी झूठ बोलने की क्षमता भी दब जाती है. इस तकनीक का इस्तेमाल व्यक्ति से सच्ची जानकारी प्राप्त करने के लिए किया जाता है. आज हम जानेंगे की सबसे पहले नार्को टेस्ट कब हुआ था और इसके इस्तेमाल से अपराधी जुर्म कैसे कुबूलते हैं.
कब से हुआ नार्को टेस्ट शुरू
इस टेस्ट को सबसे पहले 1922 में संयुक्त राज्य अमेरिका में टेक्सास के एक प्रसूति रोग विशेषज्ञ डॉक्टर रॉबर्ट हाउस द्वारा किया गया था. डॉक्टर ने दो कैदियों पर स्कोपोलामाइन नाम की दवाई का इस्तेमाल किया था ताकि यह देखा जा सके कि क्या उन्हें यह दवाई सच बोलने के लिए मजबूर कर सकती है.
कैसे काम करता है यह टेस्ट
नार्को टेस्ट कुछ दवाओं पर आधारित होता है. इन्हें आमतौर पर ट्रुथ सिरम कहते हैं। यह दवाएं मस्तिष्क के सामान्य कामकाज को प्रभावित करती हैं. सोडियम पेंटोथल या फिर सोडियम एमाइटल जैसे पदार्थ खुद पर नियंत्रण और इंसान के दिमाग की कल्पना करने की ताकत को कम करते हैं. इस वजह से ही व्यक्ति झूठी कहानी नहीं गढ़ पाता.
क्या है पूरी प्रक्रिया
सबसे पहले दवाई को इंजेक्शन के जरिए व्यक्ति के शरीर में पहुंचाया जाता है. दवाई की मात्रा व्यक्ति की आयु, लिंग, स्वास्थ्य और शारीरिक स्थिति के ऊपर निर्भर होती है. इस परीक्षण को विशेषज्ञों की एक टीम पूरा करती है. इस टीम में एक एनेस्थिसियोलॉजिस्ट, मनोचिकित्सक, क्लीनिकल या फिर फॉरेंसिक साइकोलॉजिस्ट और व्यक्ति की स्थिति की निगरानी के लिए चिकित्सा कर्मचारी शामिल होते हैं.
जब व्यक्ति पूरी तरह से समाधि जैसी अवस्था में पहुंच जाता है तो डॉक्टर उनसे प्रश्न पूछना शुरू कर देते हैं. इस पूरी प्रक्रिया की वीडियो रिकॉर्डिंग की जाती है. ऐसे इसलिए क्योंकि इस पूरी प्रक्रिया के दौरान व्यक्ति कुछ ऐसी जानकारी दे सकता है जो सहज या फिर बिना फिल्टर के सामने आ सकती है और जिसे सुराग माना जा सकता है.
सटीकता और सीमाएं
वैज्ञानिक मान्यता के बावजूद भी नार्को टेस्ट पूरी तरह से विश्वसनीय नहीं है. दवाई के प्रभाव में व्यक्ति सत्य को कल्पना के साथ मिल सकता है. यही वजह है की नार्को परीक्षण के दौरान दिए गए बयानों को कानूनी या फिर वैज्ञानिक रूप से निर्णायक नहीं माना जाता. ज्यादा से ज्यादा उन बातों को आगे की जांच के लिए खोजी सुराग के रूप में इस्तेमाल कर लिया जाता है.
भारत में कानूनी और संवैधानिक पहलू
भारत में किसी भी व्यक्ति को नार्को टेस्ट के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता. ऐसा करना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20 (3) का उल्लंघन है. इसी के साथ यह परीक्षण सिर्फ व्यक्ति की खुद की इच्छा और सूचित सहमति से ही किया जा सकता है. इस टेस्ट के परिणाम न्यायालय में प्रत्यक्ष साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं किए जाते. हालांकि नार्को टेस्ट के दौरान मिली जानकारी के परिणाम स्वरूप कोई नया साक्ष्य है या फिर सामग्री मिलती है तो उसे भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 की धारा 27 के तहत मंजूर कर लिया जाता है.
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