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संकट में जोशीमठ: बहुत हुआ पहाड़ों से छेड़छाड़, अब नहीं तो कब जागोगे सरकार

जोशीमठ और कर्णप्रयाग में दरार की खबरों के बीच केन्द्र सरकार एक्शन में है. लोगों को शिफ्ट करने का काम चल रहा है. लेकिन इस सभी चीजों के बीच सवाल उठ रहा है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ. दरअसल, पूरा हिमालय एक तरह से मलबे पर बसा हुआ है. आज से करीब  पांच करोड़ यानी पचास मिलियन साल साल पहले तेइथी सागर में यूरेशियन प्लेट और इंडियन प्लेट के टकराने से हिमालय का जन्म हुआ था.  

इसका मतलब  है कि हिमालय की जमीन खोखली है. इसकी सतह ठोस नहीं है. जब-जब हिमालय की जमीन खिसकती है, तब-तब जमीन में दरारें उभरने लगती हैं. अगर इस स्थिति में जमीन के साथ एक सीमा से ज्यादा छेड़छाड़ की जाएगी तो यह कभी एक बड़ी आपदा का रूप ले सकती है और इसका संकेत भी मिल जाता है. 

जोशीमठ एक ऐसा उदाहरण बन गया है कि एक तरफ जहां हम इसे प्रभु का स्थान कहते हैं. बद्रीनाथ में भगवान विष्णु का शीतकालीन आवास है. जोशीमठ से लोगों की गहरी आस्था जुड़ी हैं. हिमालय के अन्य स्थान की तरफ जोशीमठ भी एक बड़े मलवे के ढेर पर बसा हुआ हैं. और जितनी ऊंचाई का इलाका है, उतना ही हिमस्खलन की संभावना रहती है. और नीचे से अलकनंदा नदी बहती है, जो हिमाच्छादित नदी है. यहां पर बाढ़ भी आती रहती हैं. साथ ही, अलकनंदा नदी में भू-कटाव भी खतरनाक साबित हो रहा हैं. 

सीमा से ज्यादा हुई छेड़छाड़

जोशीमठ ऐसा जगह है जहां आर्मी भी बसी है.  सेना के काम की गतिविधियां यहां पर लगातार चलती रहती हैं. बॉर्डर रोड ऑर्गेनाइजेशन इस इलाके में सड़क बनाने के लिए धमाके करते थे. जो कि प्रकृति के लिए सही नहीं था. पिछले 15-20 सालों में बीआरओ (बॉर्डर रोड ऑर्गेनाइजेशन) ने इस के साथ दूसरी तकनीकी का प्रयोग भी सड़क बनाने में किया हैं. 

जोशीमठ के चारों तरफ किसी ना किसी रूप में निर्माण चलता रहा हैं. चाहे वो  जोशीमठ स्मॉल हाइड्रो पावर प्रोजक्ट हो या फिर सड़क निर्माण का कार्य हो. इस का दबाब प्रकृति पर पड़ रहा हैं. जोशीमठ की धारण  क्षमता से ज्यादा वहां पर स्ट्रक्चर बनने शुरू हो गए है. जोशीमठ में तीन हजार नौ सौ के करीब मकान हैं. ढाई किलो मीटर स्क्वायर जमीन पर चार सौ की संख्या में कमर्शियल दुकानें और छोटी-मोटी दुकाने हैं. जोशीमठ में प्रकृति दबाब पिछले करीब 15-20 सालों से बढ़ता चला जा रहा था. जोशीमठ का ड्रेनेज सिस्टम भी बहुत अच्छा नहीं हैं. उधर इलाके में विकास निर्णाण के लिए छेड़छाड़ हो रही थी. साथ ही, अलकनंदा नदी में कटाव बढ़ रहा था. इन सबके कारण दबाब बढ़ता चला गया और खराब ड्रेनेज सिस्टम के कारण जमीन धसती चली गई. जिसका सीधा असर जोशीमठ के मकानों, दुकानों और आसपास के इलाके पर पड़ा हैं. 

दरार के लिए कई फैक्टर जिम्मेदार

जोशीमठ की घटना के माध्यम से प्रकृति ने एक संदेश दिया हैं कि विकास के लिए एक सीमा को तय करना होगा अगर उस सीमा को पार किया जाएगा तो घटना होगी. जोशीमठ की यह घटना रैणी गांव में आई त्रासदी की याद दिलाती है.  एक बड़े बर्फ के पहाड़ ने करीब दो सौ लोगों को लील लिया था और लोग वहां पर टनल में भी फंसे गए. रैणी गांव के ऊपर मौजूद ग्लेशियर के टूटने की वजह से बाढ़ आई थी. विकास के लिए हमने सीमाएं तय नहीं की है और हम प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करते जा रहे हैं. जिसका सबक हमारे सामने जोशीमठ के रूप में हैं.

जोशीमठ में सड़क निर्माण का कार्य हमेशा से होता रहा हैं. इस क्षेत्र में बहुत सारे विकास कार्य के प्रोजक्ट एक साथ चल रहे थे और नदी में भी कटाव हो रहा था. इस वजह से ये घटना घटी हैं. जोशीमठ की घटना को देखते हुए हमें समय से समझ जाना चाहिए कि पहाड़ बहुत बडा हैं. इसके साथ छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए. फिलहांल इस समय जोशीमठ से बेघर हुए लोगों की सहायता का बड़ा सवाल हैं. साथ ही हमे यह समझ आ गया है कि हमें धारण क्षमता के बाहर नहीं जाना हैं. 

ग्लोबल वॉर्मिग किसी और की देन

दुनिया में हिमालय ही पहाड़ नहीं हैं. स्विट्जरलैंड, यूरोप और चीन में भी लंबी-चौड़ी सड़के बनाई हैं. यहां पर अपने इकॉलोजी एक्स्लूसिव डेवलपमेंट के बारे में नहीं सोचा. हम पहाड़ के लोग क्यों सिर्फ विकास से वंचित रहे? इसके लिए जरूरी है कि सीमा का निर्धारण किया जाए, उसके बाद विकास का ढांचा तैयार किया जाए. ग्लोबल वार्मिंग किसी और देश की देन है और फ्लैश फ्लड उत्तराखंड में आते हैं. ये वैसे ही संवेदनशील है. दिल्ली में एक डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ जाए तो कोई बात नहीं लेकिन अगर पहाड़ों में बढ़ जाए तो ग्लेशियर पिघलकर पहाड़ों में पहुंच जाएंगे. 

अंटार्कटिका में और दुनियाभर में ग्लेशियर पिघलने की खबरें आती हैं कि इक्कीस सौ सदी में  दुनिया के दो तिहाई तिहाई ग्लेशियर पिघल जाएंगे. अंटार्कटिका में कोई आबादी नहीं रहती हैं. लेकिन ग्लोबल वार्मिंग से ग्लेशियर पिघल रहा हैं. ऐसे ही हिमालय में किसी और कि हलचलें उत्तराखंड को झेलनी पड़ती हैं. 

जोशीमठ की घटना को लेकर प्रधानमंत्री और उनके ऑफिस ने नजर रखी है. हमारा मानना है कि पीएमओ इस पर गंभीर रहते हुए मात्र जोशीमठ को ही न समझे, बल्कि उससे आगे भी आने समय में हिमालयी क्षेत्र में किस तरह का विकास होना चाहिए ये मूल सवाल है.

इससे सभी को सबक लेना चाहिए, वो चाहे स्थानीय लोगों हो कि ज्यादा लालच नहीं करना चाहिए. जोशीमठ में दरार के बाद लोगों को पुनर्वास किया जाएगा. ये पूरा संकट लोगों के खुद के काम की वजह से हुआ है. कॉमर्शियल एक्टिविटी के चलते उसका कुछ न कुछ असर तो होगा ही.

ये भी पढ़ें: उत्तराखंड की पीड़ा: सिसकता पहाड़, पलायन का दर्द और अलख जगाती आवाज

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.] 

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