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उत्तराखंड की पीड़ा: सिसकता पहाड़, पलायन का दर्द और अलख जगाती आवाज

दरकता मकान.. खिसकती जमीन.. फूटती सिसकियों के साथ सवाल करती निगाहें.. ये पीड़ा.. अब पहाड़ के बाशिंदों के जीवन का पर्याय हो चुकी है.. जोशीमठ पर सरकार जागी तो ख़बरों में नजर आने लगा डर ...गुस्सा.. अफसोस... पीड़ा.. शहरों में रहने वाले जानने लगे कि वहां क्या चल रहा है लेकिन गुजर क्या रहा है ये सिर्फ एक पहाड़ी ही समझ सकता है.. वो जो अभी भी वहां झूल रहे भविष्य के मुहाने पर खड़ा है  या वो जो बरसो पहले अपनी देली (दहलीज) छोड़ आया हो..

मैं दिल्ली वाली पहाड़न हूं.. दिल्ली में पैदा हूई .. दिल्ली में पली-बढ़ी.. जब होश संभाला तो घर के टेप रिकॉडर में नेगी दा की आवाज सुनी.. उत्तराखंड आंदोलन के लिए अलख जगाती आवाज.. घर में कोई भी मौका रहा.. जागर से शुरुआत और हर छुट्टी में गांव का मंडाण... घरवालों का मलाल.. अपनी मिट्टी अपना छोड़ परदेस में आ गए.. तब समझ नहीं आता था.. सोचती थी कि देश की राजधानी में रहते हैं हम.. मामूली ही सही लेकिन पहाड़ के इस मुश्किल जीवन से तो अच्छा ही है हमारा बसर.. तब समझ नहीं आता था क्यों रहता है परदेस में रहने वाले पहाड़ियों को.. गांव से आने वाले रैबार का इंतजार...गढ़वाली नहीं बोल पाती थी.. लेकिन हर गढ़वाली फिल्म देखी.. गढ़वाली गीतों के बिना तो हमारे जीवन की कल्पना ही नहीं हो सकती है.

गढ़वाली गीतों पर डीजे में तो थिरकते वो भी हैं जो हर वीकेंड.. हर न्यू ईयर पहाड़ पहुंच जाते हैं.. शहर की भागदौड़ से भागकर पहाड़ में भागदौड़ करने के लिए.. लेकिन कसूर इसमें शहर वालों को क्या देना.. हम पहाड़ी भी तो यही चाहते हैं ना रोजगार.. व्यापार.. भीड़ बेशुमार.. किसी ने सवाल किया मेरे क्रोध पर.. मेरी पीड़ा पर... तो जवाब सुनिए आज... हां भूख से बिलबिलाते किसी बच्चे को लॉलीपॉप दिखाओगे.

तो वो हाथ बढ़ाएगा.. ऑगेनिक फूड के लिए अनशन नहीं करेगा. ये तो देने वाले हाथों को सोचना है कि वो क्या दे रहे हैं.. ये सरकार को सोचना है कि पांच घंटे... ढाई घंटे में शहर से पहाड़ की दूरी पाटने पर पहाड़ को क्या मिल रहा है.. प्रगति के खिलाफ नहीं है पहाड़ी.. 

वो तो बस इतना चाहता है कि उसके लिए जो प्लेन में बैठकर नीति बनाते हैं ना वो आए पहाड़.. छुट्टिया मनाने नहीं ये देखने कि पहाड़ खोखला हो रहा है. उत्तराखंड के पहाड़ हिमाचल या बाकी राज्यों के पहाड़ के तरह नहीं है. वो कोमल हैं.. पहले से ही उनके पेड़ काट-काट कर उन्हें मानों बिना कपड़ों के कर दिया हो.. वो पहाड़ अपने बाशिंदे वापस चाहते हैं.. वीकेंड या न्यू ईयर वाली भीड़ नहीं.. पलायन वाली दीमक इन पहाड़ों को कंगाल कर चुकी है.

सुना था बाबूजी लोगों ने पलायन आयोग बनाया था.. वो जिसके अधिकारी मैदानों में दफ्तर बनाकर रिपोर्ट टाइप कर रहे थे.. होम स्टे की स्कीम दी.. ऑल वेटर रोड दी.. लेकिन संवेदनशीलता.. हम पहाड़ी तो अपने पहाड़ो को पूजते हैं.. अपनी नदियों को पूजते है..

हमारे यहां बत्ती सौं... अग्नि सौं.. खायी जाती.. है.. हम पंच तत्वों का आदर सम्मान करते हैं.. लेकिन हमें जब चोट लगती है ना जब हमारी छत टपकती है तो कई हफ्तों तक हम खबर नहीं बन पाते.. आपदा आने का इंतजार करते हैं वो..जो दर्द बेचने का कारोबार करते हैं... 

आंकड़े आम जनता को बोर करते हैं.. आंकड़ों की बात तो करूंगी ही नहीं मैं... कि किब जोशीमठ को लेकर पहली दफा आवाज़ उठाई गई थी..मिश्रा कमेटी की रिपोर्ट में किस खतरे का जिक्र था.. ये सब जानकारी इंटरनेट पर उपलब्ध है... बस हमें संवेदनशील बनना होगा.. 

हमें आवाज उठानी होगी. हमें उन लोगों को चुनना होगा जिनके लिए पर्यावरण अहम मुद्दा हो.. लेकिन उससे पहले हमें खुद को तैयार करना होगा क्योंकि हमें ये वो एक्टिविस्ट लोग हिंदी फिल्मों के इलीट विलेन दिखाई देते हैं. अब जागने का वक्त भी चला गया... पहाड़ों से बहने वाले मलबे से मैदान बच जाएगा.

ये भला कैसे सोच सकते हैं आप.. 

बाकी उत्तराखंड के कवि 'गिरदा' के शब्दों में 
सच पूछो- उन भोली-भाली,
आँखों का सपना बिखर गया.
यह राज्य बेचारा "दिल्ली-देहरा एक्सप्रेस"
बनकर ठहर गया है.
जिसमें बैठे अधिकांश माफ़िया,
हैं या उनके प्यादे हैं,
बाहर से सब चिकने-चुपड़े,
भीतर नापाक इरादे हैं,
जो कल तक आँखें चुराते थे,
वो बने फिरे शहजादे हैं.

[ये आर्टिकल पूरी तरह से निजी राय पर लिखा गया है.]

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ओपिनियन

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