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लोकसभा चुनाव परिणाम 2024

UTTAR PRADESH (80)
43
INDIA
36
NDA
01
OTH
MAHARASHTRA (48)
30
INDIA
17
NDA
01
OTH
WEST BENGAL (42)
29
TMC
12
BJP
01
INC
BIHAR (40)
30
NDA
09
INDIA
01
OTH
TAMIL NADU (39)
39
DMK+
00
AIADMK+
00
BJP+
00
NTK
KARNATAKA (28)
19
NDA
09
INC
00
OTH
MADHYA PRADESH (29)
29
BJP
00
INDIA
00
OTH
RAJASTHAN (25)
14
BJP
11
INDIA
00
OTH
DELHI (07)
07
NDA
00
INDIA
00
OTH
HARYANA (10)
05
INDIA
05
BJP
00
OTH
GUJARAT (26)
25
BJP
01
INDIA
00
OTH
(Source: ECI / CVoter)

US Elections 2020: अमेरिका में मतदाताओं के दमन का लंबा इतिहास रहा है

अमेरिका में लंबे समय तक अश्वेतों को मताधिकार से वंचित गया. इसके अनेक सुबूत हैं कि अमेरिका नस्लवाद से इतर नहीं सोचता रहा है.

अमेरिकी राष्ट्रपति पद के चुनाव में सिर्फ कुछ घंटे बाकी हैं. ऐसे में भारतीयों के लिए भी यह जानना अनिवार्य है कि कैसे लोकतंत्र पंगु हो जाते हैं और कैसे स्वतंत्रता की मशालें अक्सर बुझ जाती हैं. दुनिया भले ही अमेरिकी लोकतंत्र को अव्वल और खास मानती हो मगर यहां भी ऐसा लंबा और कहीं और नहीं दिखने वाला ‘मतदाताओं के दमन का इतिहास’ दर्ज है. किसी को लग सकता है कि मतदाताओं का दमन अतीत की बात है. वास्तव में इस दमन की जड़ें वहां तक पहुंचती हैं, जहां देश के कुछ खास हिस्सों को ही इस प्रक्रिया में हिस्सा लेने की इजाजत थी. वर्तमान धारणा के विपरीत अमेरिका में गणतंत्र की स्थापना के साथ ही मतदाताओं के दमन का राजनीतिक दुश्चक्र चलता रहा है. यह समय के साथ मिटाया नहीं जा सकता. भले ही अमेरिकी दुनिया के तमाम देशों में ईर्ष्यालु बनाने की हद तक अपने लोकतंत्र की शान बघारते हैं लेकिन वास्तव में बिना मतदाताओं के दमन के अमेरिकी राजनीति की कल्पना करना तक संभव नहीं. मतदाताओं का दमन अमेरिकी श्रेष्ठता के दंभ में छुपा है और भविष्य में भी रहेगा. यह दंभ आपको आप उन श्वेत वर्चस्ववादियों के हथियार के रूप में दिखाई देता है जो सशस्त्र बलों में हैं या फिर गवर्नरों, सीनेटरों, वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों, क्लर्कों और रजिस्ट्रारों में पदों पर बैठे हैं. जो कुछ लोगों को डराकर मतदान कराते हैं और कुछ को सीधे मतदान के अधिकार का प्रयोग करने से ही वंचित कर देते हैं.

पूरी दुनिया में मताधिकार के इस्तेमाल को बाधित करने की कहानियां मौजूद हैं, जो समय के साथ धीरे-धीरे आबादी बढ़ने के साथ कमजोर पड़ती गईं. उदाहरण के रूप में औपनिवेशिक भारत को देखें. यहां केंद्रीय विधान परिषद के पहले चुनाव में इंडियन काउंसिल एक्ट 1901 के तहत 68 सदस्यों का चुनाव हुआ, जिसमें से 27 को विशेष निर्वाचन क्षेत्रों से चुना गया गया था. मगर गवर्मेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 से निर्वाचन क्षेत्रों और सदस्यों की संख्या बढ़ी. इसके बावजूद आजादी के बाद ही पूरे देश को मतदान का अधिकार प्राप्त हो सका. जिसमें हर क्षेत्र से प्रतिनिधि चुने गए. 1951-52 में देश में जब पहली बार मतदान हुआ तो करीब 11 करोड़ लोगों ने इसमें हिस्सा लिया, जिसमें पुरुष-महिलाएं, ऊंची और नीची जाति के लोग, हिंदू-मुस्लिम समेत अभी अल्पसंख्यकों ने वोट डाले. भारत में अभी तक 17 आम चुनाव हो चुके हैं, जिनमें पिछला 2019 में हुआ था. हालांकि यहां दशकों तक मतदाताओं के दमन की बात नहीं होती थी. लोकतंत्र का चुनाव-पर्व पवित्र था. मगर 1970 और 1980 के दशक में बूथ कैप्चरिंग ने राजनीतिक शब्दकोश में अपनी ऊंची जगह बनाई और तब से चुनाव में राजनीतिक अनियमितताओं तथा गड़बड़ियों के आरोप लगातार बढ़ते चले गए. 2019 के 17वें लोकसभा चुनाव में यह बात मुखर हुई कि मतदाता पत्रों से लाखों महिलाओं और मुस्लिमों के नाम कथित रूप से गायब हो गए लेकिन ‘मतदाता दमन’ की बात सामान्य रूप से भारत के राजनीतिक विमर्श का बड़ा अंग नहीं बन सकी. इसके विपरीत दुनिया ने भारत से आई वे तस्वीरें चकित होकर देखी जिनमें गरीब, श्रमिक और गांव की महिलाएं लंबी कतारें लगाए मतदाता केंद्रों पर घंटों खड़ी हैं ताकि गर्व से मताधिकार का इस्तेमाल कर सकें. भारतीय लोकतंत्र की आधुनिक राजनीति में, ऐसे अध्याय भी चुनाव गाथाओं जुड़े जिनमें चुनाव अधिकारी मुट्ठी भर लोगों के वोट डलवाने के लिए कई-कई दिनों की यात्रा करके दूर-दराज के इलाकों में गए. इन क्षेत्रों में पूर्वोत्तर के गांव और एशियाटिक शेर का घर कहलाने वाले गिर के घने जंगल में बसी झोपड़ियां तक शामिल हैं.

अमेरिका भले ही खुद को दुनिया का पहला संवैधानिक लोकतंत्र घोषित करते हुए, वैयक्तिक स्वतंत्र की मशाल लेकर सबसे आगे दौड़ने का दावा करता है, परंतु वहां इन दावों के विपरीत मतदाताओं के दमन का लंबा इतिहास है. 18वीं सदी के उत्तरार्द्ध में वोट का अधिकार वहां चुनिंदा प्रभावशाली श्वेत लोगों के पास था. बाद में संपत्ति पर एकाधिकार बंधन ढीले पड़े और 1882 में अधिकतर राज्यों के सभी राज्यों के श्वेत पुरुषों को मताधिकार मिला. 1856 में उत्तरी कैरोलीना अंतिम राज्य था, जिसने वोट देने लिए वोटर के पास संपत्ति होने की शर्त को हटाया और वहां सभी श्वेत पुरुषों को वोट देने का अधिकार मिला. अमेरिका में गृहयुद्ध की समाप्ति के साथ राज्यों के संघ की पराजय हुई और अश्वेतों को भी नागरिकों का दर्जा दिया गया. मगर अमेरिकी संविधान के 14वें संशोधन (1868) ने राज्यों को अश्वेतों को वोट देने पर निर्णय करने की छूट दे दी. हालांकि जल्दी ही 15वें संशोधन (1870) में सभी अश्वेतों को मतदान का अधिकार मिल गया. संशोधन में साफ कहा गया किया कि अमेरिकी नागरिक को वोट देने के अधिकार से कोई वंचित नहीं कर सकता. न राष्ट्र और न राज्य. फिर उसका रंग, नस्ल या पिछली स्थिति चाहे जो रही हो.

अमेरिका में 15वें संविधान संशोधन को 150 साल हो चुके हैं और अमेरिका के राजनीतिक इतिहास में श्वेत वर्ग अश्वेत नागरिकों को मतदान से वंचित रखने की निरंतर कोशिशें करता आ रहा है. पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों में अमेरिका में ही यह चरित्र दिखाई पड़ता है और यहां की खास विशेषता बन चुका है. ये विशिष्ट कोशिशें अमेरिकी इतिहास में विभिन्न क्षेत्रों में नागरिकों को मतदान से प्रतिबंधित करने के प्रयासों से अलग है. उदाहरण के लिए महिलाओं के मताधिकार का मामला देखें. उन्हें 1920 में 19वें संविधान संशोधन के बाद ही वोट का अधिकार मिल सका. मूल या स्थानीय अमेरिकियों को वोट का मामला तो श्वेतों के अहंकार की वजह से बरसों खिंचा. 1924 में ही इन स्थानीय लोगों को अमेरिकी नागरिकता प्रदान की गई मगर तब भी कुछ राज्यों ने उन्हें मताधिकार से वंचित रखा. कई राज्यों का तर्क था कि ये लोग दूसरे ही देश के नागरिक हैं और इन्हें यहां आरक्षण प्राप्त है. कुछ राज्यों ने कहा कि ये लोग टैक्स (कर) नहीं देते, इसलिए वोट देने का अधिकारी नहीं है. अंततः न्यू मैक्सिको ने 1948 में संविधान की पाबंदी को हटाया और इन लोगों पर लगी वोट देने की रोक हटाई गई.

अमेरिका में लंबे समय तक अश्वेतों को मताधिकार से वंचित गया. इसके अनेक सुबूत हैं कि अमेरिका नस्लवाद से इतर नहीं सोचता रहा है. अमेरिका में अन्य तमाम खूबियां हो सकती हैं परंतु यहां अब भी नस्लीय श्रेष्ठता को लेकर कुछ लोग प्रतिबद्ध हैं, जिसमें राजनेताओं की वर्तमान पीढ़ी भी शामिल है. वे रिपब्लिकनों को समर्थन देते हैं और अपने पूर्ववर्तियों की तरह निरंतर ऐसे उपायों या कलाबाजियों की खोज में हैं कि कैसे अश्वेतों से वोट देने के अधिकार वापस लिए जा सकते हैं.

अमेरिकी इतिहास के हाल के कुछ अध्ययनों में यह बात स्थापित करने की कोशिशें हुई हैं कि दासता के अंत के बाद अफ्रीकी-अमेरिकी अश्वेतों का जीवन स्तर ऊंचा उठाने के लिए उन्हें बढ़ा-चढ़ा कर नई-नई सेवा-सुविधाएं दी गईं, ताकि वे सम्मानपूर्वक जी सकें. यहां तक कि नागरिक अधिकारों के 1950-1960 के संघर्ष के दौर में अश्वेतों पर अत्याचार की गाथाओं से पटे पड़े मिसिसिपी राज्य से उनकी मदद करने वाले श्वेत समर्थकों का इतिहास ढूंढा और बताया गया कि यहां से 1870 और 1875 में दो अश्वेतों को चुन कर अमेरिकी संसद (सीनेट) में भेजा गया था. 1967 में फिर एक अश्वेत अमेरिकी यहां से संसद में पहुंचा. सच यह है कि मिसिसिपी से 1875 के बाद दूसरे अश्वेत को संसद भेजने में करीब एक सदी लग गई. ऐसा क्यों हुआ. यह दासप्रथा के विरोधी फ्रेडरिक डगलस के 1869 में बोस्टन में दिए भाषण से साफ होता है. उन्होंने कहा कि हमारे दक्षिणी राज्यों के सज्जन दासता में अब भी विश्वास रखते हैं. उन्हें लगता है कि वह समाज का उच्चवर्ग हैं और इसमें उनका पक्का विश्वास है... वह संसद को अश्वेतों से मुक्त करना चाहते हैं. 1890 में मिसिसीपी के संवैधानिक सम्मेलन के अध्यक्ष की टिप्पणी थी कि सम्मेलन का सबसे कड़ा काम यह था कि इसमें अश्वेतों को मतदान के अधिकारों से वंचित करने के रास्ते तलाशे जाएं.

गृहयुद्ध के खत्म होने से लेकर वोटिंग राइट्स 1965 पारित होने तक बंदूकधारी श्वेत अमेरिकी पूरी एक सदी तक देश में अपने बर्बर आतंक और धमकियों से अश्वेतों को मतदान से वंचित करने का प्रयास करते रहे. श्वेत मालिक फरार हुए दासों के पीछे जंगली कुत्ते लगाते. उनके उत्तराधिकारियों ने इससे कुछ कम और गैर-पारंपरिक तरीका अपनाते हुए ‘अच्छे चाल-चलन का प्रमाणपत्र’ वोट के लिए जरूरी बना दिया. जिसमें ज्यादातर अश्वेत नाकाम या फेल होते रहे. 2014 में आई अवा डुवेर्ना की फिल्म सेलमा में इन बातों को बहुत खूबसूरती से दिखाया गया है. इसमें एनी ली कूपर (ओपरा विनफ्रे) अलबामा की डालास काउंटी में रजिस्ट्रार के सामने उपस्थिति होती है कि अपने को वोटर रूप में रजिस्टर करा सके. अधिकारी उससे अमेरिकी संविधान की प्रस्तावना सुनाने को कहता है. वह पूरे गर्व से सुनाती है. फिर वह पूछता है कि राज्य में कितने देसी न्यायाधीश हैं. वह बताती है, 67. फिर वह उससे कहता है कि सबके नाम बताओ. वोटर के रूप में रजिस्टर होने का एनी ली कपूर का आवेदन यहां खारिज हो जाता है. उसे वापस घर भेज दिया जाता है. अलबामा की लोंडेस काउंटी में करीब 15 हजार की आबादी में 80 फीसदी अफ्रीकी अमेरिकी थे. मगर एक मार्च 1965 को वोटरों को रजिस्टर करने की प्रक्रिया में अधिकारियों ने एक भी अश्वेत को रजिस्टर नहीं किया.

वोटिंगि राइट्स एक्ट 1965 को ऐसे शर्मनाक प्रावधानों को हटाना पड़ा. लेकिन इसके बाद भी श्वेत नेताओं का लक्ष्य अश्वेतों को उनकी जगह बरकरार रखना बना रहा. ऐसे में आश्चर्य नहीं कि उन्होंने अलग-अलग तरीके अपनाए. ताकि उन्हें मतदान के अधिकार से वंचित रखा जा सके. इनमें राजनीतिक दमन का सबस ताजा मामला है वोटर आईडी कानून. जिसे रिपब्लिकन सरकारों वाले राज्यों ने बीते दशक में फटाफट पास किया. हालांकि इनमें अश्वेतों से ज्यादा अप्रवासियों को लक्ष्य किया गया है. साथ ही गरीबों, बुजुर्गों, छात्रों और ऐसे लोग जिनके पास ड्राइविंग लाइसेंस जैसे सरकार द्वारा जारी पहचान पत्र नहीं हैं. उधर, अपराधियों के वोटिंग अधिकारों के मामले में भी अमेरिका एक बार फिर पश्चिमी दुनिया के लोकतंत्रों में लगातार दमनकारी रवैया अपना रहा है. अपराधियों को मताधिकार से वंचित करने के मामले में भी कमोबेश कुलीन ढंग से अश्वेतों को ही मत-प्रक्रिया से दूर रखने का प्रयास है. बीते दो दशक से गंभीर अपराधियों को मताधिकार से वंचित करने की कोशिशों के बीच केवल दो ही राज्य (मैनी और वेरमोंट) हैं, जहां अपराधियों को किसी भी कैद में मताधिकार से नहीं रोका गया है. जबकि अन्य 37 राज्यों में जेल में बंद होने की स्थिति में गंभीर अपराधी को वोट देने का अधिकार नहीं है. 21 राज्य तो ऐसे हैं जो रिहाई के बाद भी ऐसे अपराधियों को मताधिकार से वंचित रखते हैं. वहीं 11 राज्यों में गंभीर अपराधियों से हमेशा के लिए वोटिंग का अधिकार छीन लिया गया है.

निश्चित ही इसका सबसे ज्यादा असर पुरुषों, वह भी अश्वेत पुरुषों पर पड़ा है. वही अपराधों में बड़ी संख्या में पकड़े जाते हैं. वास्तव में इस कदम के द्वारा अश्वेतों को दिए गए मताधिकार को अप्रत्यक्ष रूप से सरकार द्वारा वापस ले लिया गया है. एक अध्ययन के अनुसार 2016 के चुनाव में करीब ऐसे 60 लाख अपराधियों को मताधिकार के प्रयोग से वंचित रखा गया था.

वोटिंग राइट्स एक्ट का सेक्शन पांच न्याय व्यवस्था को वीटो पावर का अधिकार देता है, जिसके तहत वह ऐसे कानूनों पर रोक लगा सकती है, जिसमें नस्लीय भेदभाव का इतिहास प्रामाणिक रूप से साबित होता है. इसके बावजूद 2013 में शेल्बी काउंटी वर्सेस होल्डर मामले में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने 5-4 से यह बात खारिज कर दी कि राज्यों को वोटिंग अधिकार छीनने वाले नस्लीय भेदभाव को प्रभावित करते कानून बनाने से रोका जाना चाहिए. इस तरह अदालत अपने तरीके से ‘मतदाता दमन’ की हवा के रुख के साथ नजर आती है. सामान्य रूप से उसे ऐसी अविवेकपूर्ण बात पर सवाल पूछते नजर आना चाहिए परंतु वह साधारण राजनीति के अंग जैसे नजर आती है. असल में यहां लोगों से मताधिकार छीनने की ऐसी कई बातें हो रही हैं, जिनमें न्याय विभाग व्यवस्था से सहमत नजर आता है कि वोटिंग के लिए दरवाजे ही बंद कर दिए जाएं. जैसे डाक-मतों को खारिज करना. पूरे निर्वाचन क्षेत्र को ही मतदान के अधिकार से रोक देना. यूएस डाक सेवा को मतों को एक से दूसरी जगह पहुंचाने के लिए होने वाली फंडिंग में बाधा डालना. ताकि मतों को सही जगह पहुंचा कर उनकी गितनी न हो सके. इस तरह की और भी कई बातें अमेरिकी लोकतंत्र की अव्यवस्थित व्यवस्था में 2020 में पारदर्शी बनाई जानी चाहिए. इस तरह से अमेरिकी एक बार फिर अपने असाधारण होने के बारे में पूरी दुनिया को बता सकते हैं.

विनय लाल UCLA में इतिहास के प्रोफेसर के रूप में कार्यरत हैं. साथ ही वो लेखक, ब्लॉगर और साहित्यिक आलोचक भी हैं. वेबसाइटः http://www.history.ucla.edu/faculty/vinay-lal यूट्यूब चैनलः https://www.youtube.com/user/dillichalo ब्लॉगः https://vinaylal.wordpress.com/ (नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.) ये भी पढ़ें- US Presidential Election: जानें कैसे होता है दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश के राष्ट्रपति का चुनाव, इस बार ट्रंप-बिडेन में कड़ी टक्कर US Presidential Election: ताजा सर्वे में बाइडेन को 4 प्रमुख राज्यों में बढ़त, ट्रंप को लगा बड़ा झटका
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